3.8.10

वेद सागर ऋषि और राम शर्मा, कृष्ण शर्मा

 (परमपूज्य आसाराम बापूजी के सत्संग से )



कावेरी तट में वेद सागर ऋषि के चरणों में राम शर्मा और कृष्ण शर्मा ये 2 भाई शिष्य होने के लिए आये…
वेद सागर बोले , थोड़े दिन की सम्मति देता हूँ… !’ मतलब लर्निंग लायेसेन्स देता हूँ :) … ‘परीक्षा होगी …पात्र हुए तो फिर तुम्हारा समर्पण स्वीकार करेंगे…’
कुछ दिन बीते… एकादशी का दिन आया… गुरूजी बोले, ‘आश्रम में एकादशी के दिन सब उपवास करते है … वो दूर पहाड़ी पर मंदिर दिखाई दे रहा है , वहा जाकर भगवान के दर्शन कर आओ…’

पहाड़ी तो सामने दिख रही थी , लेकिन कई मिले चले तब मंदिर आया ….मंदिर में एकांत था…. पुजारी ने कहा कुछ खा लो….राम शर्मा ने कहा , ‘एकादशी का उपवास है..’
पुजारी बोला, ‘इतना दूर पैदल चल के आये… ये प्रसाद है…खा लो…’
राम शर्मा बोला, ‘एकादशी है तो गुरू महाराज, गुरू भाई प्रसाद नहीं लेंगे तो हम भी नहीं ले सकते..’

पुजारी बोला, ‘गुरू महाराज इधर थोड़े है…तुम दोनों के सिवाय कोई गुरू भाई भी नहीं यहाँ… जवान हो , भूख लगी होगी, खा लो…’
अब तो महाराज कृष्ण शर्मा के मुंह में पानी आ गया! बोला, ‘गुरू महाराज यहाँ नहीं और गुरू भाई भी यहाँ नहीं…’
राम शर्मा बोला, ‘हम अध्यात्मिक पथिक है…हमारा अंतरात्मा देख रहा है…हमारा आत्मा और गुरू का आत्मा एक ही है..जुड़ा है.. गुरू जी नहीं देखते ऐसा नहीं सोचो…गुरू का आत्मा और हमारा आत्मा एक है..गुरू देखते नहीं,ऐसा सोचना ही ना-लायकी है..’

इतने में जंगल में आग लग गयी… अब क्या करे?

नदिया के इस पार आग है और उस पार जाते तो बच जायेंगे….एक केवट आया नाव लेकर…बोला, एक आदमी आ सकता है नाव में…
कृष्ण शर्मा बोला, ‘हम दोनों को नहीं ले सकते?’
नाविक बोला, जा सकते है, मुझे यहाँ रहेना पडेगा..मेरी जान जाये तो जाये… ये शिकारा है..नाव चलाने वाले के साथ केवल एक सहायक बैठ सकता है, 2 नहीं…

आग की पलटे नजदीक आ गयी थी…नाविक बोला जल्दी करो..
राम शर्मा बोला, ‘तुम जाओ कृष्ण… मैं यहाँ रुकता हूँ..’
कृष्ण शर्मा बोला, ‘अच्छा …केवट मुझे वहा पहुंचा के आएगा तुम को लेने…’
कृष्ण शर्मा तो गुरू भाई को छोड़ के बैठ गया नाव में…
केवट के रूप में, पुजारी के रूप में गुरू महाराज ही थे….
बोले , असली आग है स्वार्थ!…कृष्ण जो तुम्हारे मन में छुपा है…
स्वार्थ के कारन ही गुरू के आश्रम में 40 साल से रहे कर के भी उन्नत नहीं होते… अपने दुःख सहे के भी अपने गुरू भाई को ज्यादा सुविधा देते उस का आत्म वैभव जागता है…

गुरू महाराज बोले, ‘कृष्णा तू जा घर… कमा और खा, वासना चिंता रोग की दल दल में फसो.. जनमो और मरो …. राम शर्मा तू चल आश्रम में..आत्म-पिया का प्रभु रस जी भर के पी और औरों को भी पिला!!’ … राम शर्मा को प्रवेश आश्रम में प्रवेश मिला…क्यों की उस के मन में स्वार्थ नहीं, परदुख कातरता है…

आज धरती पर सव्वा 500 करोड़ है , लेकिन एक भी आदमी ऐसा दिखाए जो बोले की फलाना काम दुखी होने के लिए किया…पूरी जिंदगी सुख के पीछे भागते फिर भी सरप्लस में दुःख ही रहे जाता है… ऐसा कोई सुख नहीं जिस के गर्भ में दुःख ना छिपा हो..
दुःख उन्नति के लिए आता है, सुख बाट दो.. आत्म-आनंद प्रगट करो…

ॐ शांती

बृहस्पति पुत्र कौंच की कथा

मानुषी सुख से 100 गुना ज्यादा सुख गन्धर्वो को है, उन के पास प्राकृतिक माया की सुविधायें हैं ….गन्धर्वो से 100 गुना ज्यादा सुख पितृलोक में है..पितृ लोक से 100 गुना ज्यादा अजानु देव को सुख है..अजानु देवो से 100 गुना ज्यादा सुख कर्मज् देवताओ को है.. कर्मज देवताओ से 100 गुना ज्यादा सुख स्वर्ग के देवो के पास है..वे जब चाहे जहा चाहे प्रगट हो सकते, अंतर्धान हो सकते, वरदान दे सकते, रूप बदल सकते …ऐसे कई सामर्थ्य होते उन के पास..उन से कई गुना ज्यादा सुख देवो के राजा इंद्र के पास है और इंद्र से कई गुना ज्यादा सुख इंद्र देव के गुरूदेव ब्रुहस्पति के पास है…ऐसे ब्रुहस्पति का बेटा कौंच अपने पिताजी को पूछता है की,
“वास्तविक अमृत क्या है?”
ब्रुहस्पति कहेते है की, “वास्तविक अमृत है : ब्रम्ह-परमात्मा का सुख है!”
“पिताश्री इस को कहा से पा सकते है?”
“धरती पर जाओ!”
ऐसी ये धरती है…और यहाँ मनुष्य वो सच्चा अमृत पाने के बजाये तुच्छ सुखो में ‘हैप्पी लाइफ’ करते करते ‘व्हील चेअर’ लाइफ कर लेता है!…
केवल धरती पर ही ब्रम्ह परमात्मा का सुख पाने की सुन्दर व्यवस्था है…जो और लोकों में नहीं है…तो ऐसी धरती पर मृत्यु लोक में ब्रुहस्पति के पुत्र कौंच आये..जहा अध्यात्मिक उन्नति होती ऐसे भारत में गुफा में रहेने लगे…श्वासोश्वास में जप और ध्यान धारणा करने लगे…2 साल बीत गए…
गुरू ब्रुह्स्पति आये…… पुत्र कौंच बोले, “पिताश्री 2 वर्ष बीते ब्रम्हानंद नहीं हुआ..”

“त्याग कर” इतने 2 वचन बोल कर गुरू जी चले गए.

कौंच तितिक्षा में रहेते…खूब ध्यान धारणा करते… और 5 वर्ष बीत गए…गुरूजी आये… अब कौंच ने गुरू के नाई पिता का स्वागत किया… ‘तुझ में तू ना रहे, द्वैत की बू ना रहे’ ऐसी स्थिति पा लिए थे… …गुरू के सामने ‘मैं’ को मिटा दिया तो ब्रम्हानंद हो गया!…
वो तो ज्यादा सुविधा में रहेते तो आदत मिटाने के लिए 7 साल लगे, नहीं तो इतने समय की भी जरुरत नहीं….

ॐ शांती

जोगी निपट निरंजन और औरंगजेब

जिस ने भगवान को, विवेक को जगाया , उस को जोगी कहा जाता है…. माणिक नाथ जोगी,हरिदास जोगी,तुकाराम जोगी है… ज्ञानेश्वर जोगी है… उन सभी को प्रणाम है ….

औरंगाबाद में निपट निरंजन नाम के महापुरुष थे…औरंगजेब उन को मिलने गया की इन को अपने पक्ष में करू…
देल्ही से आया औरंगाबाद में…. हाथी पे बैठ के बैंड -बाजे के सहित महाराज पे प्रभाव डालने के लिए औरंगजेब आया….

निपट निरंजन बाबा समझ गए की , संत को प्रभावित कर के मराठो की जड़े खोदने के हेतु से आया है… संत के शरण में नहीं आया…. मराठो में भी भक्ति है, उन को दबाना पाप है…. ये पाप करता हुआ भी मेरे को पटाने को आ रहा है…
बाबा मकान की प्लिंथ बनती , उस पर बैठे थे…. जरा बुखार था शरीर में….तो शरीर काँप रहा था….कम्बल ओढ़ के बैठे थे…. देखा की अब औरंगजेब आ रहा है… अपने ताम-झाम दिखाने को… संकल्प से बुखार को कम्बल में रख दिया…कम्बल कापने लगा! और चबूतरे(प्लिंथ) को आज्ञा किया और ज्ञानेश्वर के जैसे उस प्लिंथ को चलाया!!
‘लाहोल्लाकुवत!’ कर के औरंगजेब हाथी से उतरा ….. महाराज की ऊँचाई देख कर दंग रहे गया और महाराज के चरणों में प्रणाम किया!!
जहा ऐसे परम महापुरुष रहेते थे, ऐसी जगह की जमीन हड़पी जाती है…. जहा संभाजी की हत्या हुयी , उन को खिले घुसे वो जगह हड़पी जाती…मकबरा के आसपास किसी को घर नहीं बनाने दिया जाता…. हिन्दुओ के साथ क्या क्या हो रहा है ..
हिन्दू जाते मानस सरोवर की यात्रा करने उन पर टैक्स डालते… ये कैसा अन्याय है ! हिन्दू के साथ सौतेला व्यवहार अच्छा नहीं लगता…. मैं कुछ बोलता तो मेरा कुप्रचार करते..मेरा कुप्रचार करने से मैं रुकने वाला नहीं, डरनेवाला भी नहीं हूँ…

जब प्लिंथ चली औरंगजेब का अहंकार थोडा दबा ….

बुध्दी में 2 धाराएं होती है…अहंकार और विवेक होता…. जिन को गुरू का ज्ञान नहीं होता उन का अहंकार उठता है…राम जी में विवेक है, रावण में अहंकार है… ऐसे जो सदगुरू के होते तो विवेक जगता है.. ये ही सत-बुध्दी है…
अगर विवेक जगा तो ईश्वर बना दिया! अहंकार जगा तो विवेक दबा…विवेक दबा तो बुध्दी दुर्गति करा देती…

बाबा को खुश करने के लिए औरंगजेब लगातार 8 दिन सत्संग में बाबा के पास जाता रहा…लेकिन बाबा जानते थे .. औरंगजेब हाथ जोड़ के बोला, ‘बाबा मैं देल्ही से खास औरंगाबाद आया…’
बाबा बाल-कवी थे… कविता में उपदेश दिया…

दावा बादशाह का करते, दुवा माँगते? हम तो फकीर है…
कहे निपट ये देल्ही का दरबार नहीं, फकीरी दरबार है..
चारो दिशा बाहर मार-काट किया कत्ले आम
एक बहादुर की शीश कटवाई है…
गुरु गोविन्द सिंह के बेटे को नाहक दिवार में चिनवाया है…
और फकीर की दुवा माँगने आया है ?

…मेरे को आजमाने को हाथी पे बैठ के आया…
कहे सव्वा मन जनेऊ जलाए, खाना तब खाए..
फिर दुवा मांगता है ?
सुनो सुल्तान… कौन है मुस्लमान?
जिस का मुसल्ले ईमान… यकीन पक्का हो वो ही मुसलमान होता है..

खुद की ना पहेचान , और जीकर खुदा का छेड़ा है..
कलाम कहे भारम्भार अन्दर मलबा भरा है…
अन्दर ऐसी बुध्दी है जिस में अहंकार और द्वेष का मलाबा भरा है…
100 चूहे खाके हुक्का हाज को दौड़ा है…
करे नमाज रोजाना रूह का खुदा खोजा ना …
कहे जगत है बखेड़ा, कहे आँगन टेढा …
नाचना तो आवे नहीं.. कहे आँगन टेढ़ा
ये साधना कठिन है..
हिन्दू को काफिर कहे नर आलमगीर
मुर्दा गाड़ा कहे उस को बोलते पीर?
सुन मून उम्र गवाया सब तुने 60 साल का हुआ….
अभी भी छल कपट कर के पटाने आया
धोबी का कुत्ता ना घर ना घाट का
खुद को नहीं खुद की खबर
कुछ ऐब ढूंढ़ खुद की नजर
अपनी बुराई को खोज दूसरों की भलाई कर
ऐश में ना खो हैवान कहेलायेगा,
सुन आलमगीर दिल से भी जाएगा, दुनिया से भी जाएगा!
सती भय सत नहीं यति भय मुनि गुनी भय
तापी जपी भय रागी भय जोगी बियोगी नहीं थिर
औलिया बतिया है …
दिल की देल्ही की सफाई करो..ये ही बादशाही है

औरंगजेब को बाबा निपट निरंजन ने ऐसी करारी बात बतायी….औरंगजेब 8 दिन का सत्संग सुना, बाबा को पटा न सका..जैसा अहंकार में आया था , ..वैसा लकड़ी और दाढ़ी हिलाता चला गया…सच्ची बादशाही की सच्ची बात नहीं पचा सका…
सच्ची बादशाही तो की मौलाना आज़ाद ने..मुसलमानो में भी कई सूफी फकीरों ने सच्ची बादशाही पायी…

अहंकार से आप अ-तृप्त रहेगा और दुसरे का शोषण करेगा….अ-तृप्त व्यक्ति ही झगड़े करता कराता है…
समाज का शोषण करता है….
अहंकारियों ने ही आतंकवादी बनाए जोगियों ने आतंकवादी नहीं बनाए..

बुध्दी की 2 धारा समझ लो….और जब भी किसी से बात करो, व्यवहार करो तो अहंकार की विशेषता है की विवेक की ये जान लो…विवेक की विशेषता रहेगी तो आप किसी को तुच्छ नहीं मानेंगे, किसी का बुरा नहीं सोचेंगे…. सभी में प्रभु है.. आप बुद्दू नहीं बनेंगे, दूसरा आप को बुद्दू बना दे ऐसे भी नहीं रहेंगे… आप टूटेंगे नहीं, दुसरे को तोड़ेंगे नहीं…आप अ-ज्ञानी रहेंगे नहीं, दूसरो का अज्ञान रखेंगे नहीं…

बुध्दी में विवेक होगा तो अपने रस्ते चलेंगे… भगवान को प्रार्थना करे की, ‘भगवान की कृपा से बुध्दी में सत -विवेक रहे …प्रभु सत -विवेक दीजिये …’
बुध्दी तो बदमाशो के पास भी होती है… बुध्दिमान होना बड़ी बात नहीं, बुध्दियोगी होना है तो योगेश्वर कृष्ण का ध्यान करो….जिस में भगवान की सत्ता जागृत है वो ही जोगी है… भगवान को पाए हुए महापुरुष जोगी है….

ॐ शांती

पन्ना के भक्त राज हिम्मत दास

मध्य प्रदेश की राजधानी पन्ना थी पहेले…पन्ना में खदाने थी.. जहा हीरे मोती निकलते वो पन्ने की खदाने थी… वहाँ से 3 कोस अर्थात 16 कि. मी. दुरी पर एक भक्त रहेते थे..पन्ना छत्तरपुर और सदना के बिच में पड़ता है..पन्ना से बराया गाँव में हिम्मत दास जी नाम के भक्त रहेते थे…

उन्हों ने मन में ठान लिया की रोज पन्ना के बांके बिहारी जी के दर्शन करने है.. रोज १६ कि. मी. चल के आते..हाथ में खड़ताल बजाते बजाते आते….. दर्शन करते ..और फिर अपने गाँव बराय में वापस जाते…5 कोस दुरी पर…कीर्तन करते करते आते…ठाकुर जी के दर्शन करते ..ये उन का नियम हो गया…एक दिन रास्ते में 4 चोर मिले… खडताल के सिवाय कुछ नहीं था…खड़ताल छीन ली ..

बोले, ‘बताओ और क्या है?’
हिम्मत दास बोले, ‘हरी का नाम है… लेना है तो ले लो!’
चोरो ने देखा की भगत के पास कुछ नहीं तो खडताल छीन के चले गए…
हिम्मत दास जी बोले, ‘हरी तेरी मर्जी! ये क्या लीला दिखा रहे तुम जानो महाराज!’
इतने में देखा की 4 चोर अंधे हो गए..पीछे से आवाज देने लगे की महाराज रुको… हमें माफ करो ..
हिम्मत दास जी पीछे गए..पूछा की, ‘क्या हो गया?’
चोर बोले , ‘..हम देख नहीं रहे …आँखे फटी है, लेकिन दिखता कुछ नहीं…हम को माफ कर दो महाराज..’
हिम्मत दास जी ने प्रार्थना की ठाकुर जी को .. चोरन से दिलवाओ खडताल…चोरन से ना मुख मोड़ीयो ओ नंदलाल…चोरन को भी करो निहाल ! ऐसे मध्य प्रदेश के हिम्मत दास जी भक्त हुए… चोरो की दृष्टी वापस आई ! हिम्मत दास जी का अन्दर का ज्ञान बढ़ा..

चोरो से निपटने में हिम्मत दास जी को देर हो गयी… पन्ना के मंदिर पहुंचे तो सांध्य की आरती हो गयी थी.. पट बंद हुए थे..मंगला आरती हो गयी….हिम्मत दास जी वहाँ ही बैठ गए..इतने दिन का नियम था..अब दर्शन के बिना कैसे खाउंगा … कैसे जाउंगा…
वो प्रेमी भक्त बंद कपाट को देख कर ही ऐसा भाव से निहारने लगा…ऐसा गाने लगा की झटके से बंद कपाट खुल गए!… भगवान मूर्ति में से प्रत्यक्ष प्रगट हो गए…दर्शन से गदगद होने पर बांके बिहारी जी अंतर्धान हो गए…भगवान मंदिर के महंत प्रतिदिन कि तरह प्रभात को आये..सभी बात पता चली …मंदिर के महंत ने हिम्मत दास जी को दंडवत प्रणाम करते हुए बोला की, ‘बाबा आप रोज 5 कोस चल कर आते … कठिनाई होती होगी.. यही निवास करो….मंदिर की आय से अभ्यागत साधुओ की सेवा होगी……सेवा स्वीकार करो…’
हिम्मत दास जी अब पन्ना में निवास करते.. प्रीति पूर्वक साधुओ की सेवा होती… साधू मंडली आने से आवक से जावक ज्यादा थी.. एक बड़ी मंडली आई.. हिम्मत दास जी गए शिधा सामान लेने को बनिया के पास … ‘मंडली आई भैय्या’ …. भैय्या ने बिठाया तो सही, लेकिन बही- खाता देखो बोला…ज्यादा नहीं दे सकता… पहेले पैसे चुकते करो तो अभी का ले जाओ बोला…
हिम्मत दास जी घर वापस लौटे… पत्नी को कहा, साधुओ की जमात आई है… बनिया शिधा नहीं देता…
पत्नी ने बोला, “संत की सेवा है..ये नथनी है!” … चटाक से उतार दी…
हिम्मत दास जी बनिया के पास गए, पत्नी की नथनी देकर बोले , ‘ये तू गिरवी रख ले… आज के लिए शिधा दे दे….’
बनिया से शिधा लेकर आये, पत्नी ने साधू मंडली को भोजन कराया…

इधर बांके बिहारी सोचे की जो मेरे भक्त है उन भक्तो की नथनी भी नहीं रहे तो मैं ईश्वर किस प्रकार का ?
..ठाकुर जी भक्त हिम्मत दास जी का रूप लेकर बनिया के पास पहुंचे ..कितने पैसे है..ले लो… नथनी लाओ… बनिया से भगवान भक्त के पत्नी की नथनी वापिस ले आये…हिम्मत दास जी के पत्नी को नथनी दिए.. पत्नी बोली, ‘ये कैसे लाये?’
बोले, ‘जैसे भी लाया, पहेर ले!’
भक्त की पत्नी बोली, ‘मेरे तो गोबर वाले हाथ है! आप ही पहेरा दीजिये!!’ अंतरयामी भगवान नथनी पहेरा के अंतर्धान हो गए..
हिम्मत दास जी आये , पत्नी को देखा की नाक में नथनी पहेनी है…पत्नी ने बताया की आप ने ही ला कर दी, पहेरा दी…
हिम्मत दास जी समझ गए की मैं तो नहीं आया!… भक्तो के भगवन ही आये होंगे… भागे भागे गए बनिया के पास! ….पूछे की मेरा जैसा दूसरा आदमी आया था क्या? …
बनिया बोला, ‘आप को क्या हो गया? अभी सारे बहीखाता का हिसाब कर दिए… साइन भी है आप के…!’
हिम्मत दास को पता चला की भगवान ही आ कर नथनी देकर गए है..
जो भगवान् का हो के जीता है , उस को कदम कदम पर भगवान सहायता करते है!…
हिम्मत दास जी की श्रध्दा ऐसी उच्च कोटि की थी की स्व तरति , लोकां तारिती …ऐसे भाग्य को प्राप्त होते है .

उन का ह्रदय ऐसा पवित्र हुआ..जहा ऐसे पवित्र शुध्द ह्रदय वाले संतो का निवास होता , उन के चरण पड़ते …उस भूमि पर भगवतिय आनंद, भगवतिय प्रीति , भगवत माधुर्य चमचम चमकने लगता है…
अपने जीवन में भक्त राज हिम्मत दास जी को कई अनुभव हुए… ठाकुर जी के सामने एक टक देखते..प्रीति पूर्वक प्रभु के गीत गाते… ठाकुर जी प्रगट हो के बोलते… ब्रिन्दावन में दर्शन होंगे.. ठाकुरजी अन्तरधान हुए…. हिम्मत दास जी ब्रिन्दावन चल दिए… पन्ना से चलते चलते 7 वे दिन ब्रिन्दावन के बांके बिहारी के मंदिर में पहुंचे…पंडो को तो मूर्ति दिखती..लेकिन भक्त राज हिम्मत दास को प्रत्यक्ष भगवान दिखते! … ठाकुरजी सर्व व्याप्त है, उन्ही की चेतना सभी में है..सभी ठाकुर जी का रूप है ….मन एकाग्र हुआ.. ज्ञान उभरने लगा… भगवान चेतन रूप, ज्ञान रूप, आनंद रूप है… भगवान प्राणी मात्र के सुहुर्द है …

जो भगवान की कथा सुनता , भगवान उस की व्यथा मिटाता है ….जो भगवान की कथा सुनते नहीं, वो ही व्यथा में है… जिस के जीवन में भगवान की कथा है, वो व्यथित नहीं होता…

ॐ शांती

वल्लभाचार्य और सूरदास महाराज

वल्लभाचार्य महान संत हो गए…वो यमुना तट पर विचरण करते करते आगरा के पास आये तो किसी ने बताया की आगरा के पास एक सूरदास रहेते..बहोत अच्छा भजन गाते…वल्लभाचार्य को पता चला तो उस सूरदास कवी के पास गए..बोले, ‘कवी हो कुछ सुनाओ!’

कवी सूरदास ने अपना तान तंबोरा उठाया और गाने लगे…
हे हरी मैं तो सब पतितो से हूँ पतित..
सब दीनो से हूँ दीन …इस तरह गिड़ गिड़ा रहे थे…

वल्लभाचार्य उठे और उस सूरदास महाराज का सर पकड़ के हीला दिया…. “ये क्या बोलते हो? भगवान का गुण गाने की बजाय अपने दुर्गुण क्यों गाते हो? भगवन आप ज्ञान स्वरुप हो..चेतन रूप हो..ऐसा गाओ ना… अंतर चक्षु जगाओ ना…बाहर से अंधे हो, भीतर से भी अंधे होने जा रहो हो! अपने लिए क्या गाते हो? भगवान कैसे है ये गुणगान करो ना..तो भगवान का सामर्थ्य अपने में आ जाये, अन्दर का भगवत रस आ जाये..” इस प्रकार खूब डांटा वो सूरदास कवी को… सूरदास के सर में ऐसा परिवर्तन हुआ की ज्ञान चक्षु खुल गए!
अंतर का परिवर्तन हो गया!..उसी समय भीतर की आँख खुल गयी..!
ऐसी खुली की आगरा में बैठे ये सूरदास ब्रिन्दावन के बांके बिहारी जी का सिंगार हूब हु वर्णन करते की बांके बिहारी जी ने कौन से रंग का क्या पहेना है हूब हु वर्णन करते…
आज श्रीकृष्ण भगवान ने ये वेश किया है.. आज पित वर्ण का पीताम्बर है..कौन से फूलो का सिंगर है..वर्णन करते..लोगो को आश्चर्य होता की सूरदास तो कभी ब्रिन्दावन में गए नहीं..गए तो भी आँखों से देख नहीं पायेंगे.. तो सूरदास कैसा वर्णन करते?
किसी ने सोचा सुन सुन कर कल्पना करते होंगे…सूरदास की परीक्षा लेने के लिए एक दिन ऐसा किया की बांके बिहारी जी को कोई वस्र नहीं पहेनाया और सूरदास को पूछा की आज कौन सा सिंगार किये है बताओ…

तो सूरदास जी गाने लगे.. सभी मनुष्य तो कभी काम का वस्त्र पहेनाते कभी क्रोध का
लेकिन मेरे हरी तो आज है नगम नंगा …ह्रदय में बहेती है प्रेम की गंगा…
लोगो का आश्चर्य हुआ की सूरदास को कैसे पता चला?
ऐसा वर्णन करे की लोग दंग रहे गए…

आप के अन्दर दिव्य चक्षु है… दिव्य ज्ञान जागृत करो…

ॐ शांती

संत दादू दीन दयाल जी और तिलाजी

तिलाजी दादू दीनदयाल के पास धन बढाने की लालच से गया था..संत दिन दयाल बोले, “हमारे पास सोना बनाने की विद्या नहीं लेकिन वो भक्ति रसायन है की जिस से हरी रस पान करता है..इस रसायन से परमात्म शांति मिलती और आत्म सुख का संगीत सुनाई देता है..”

तिलाजी को ये बात जँची नहीं.. नकली धन पाने को आया था..

नकली धन का, नकली सत्ता का अहंकार बावरा बना देता है..

दादू दीनदयाल जी ने समझाया की, संसार का धन सत्ता ये नकली है..असली धन को असली सत्ता को पाना ही पुरुषार्थ है.. ये भक्ति का रसायन ऐसा है की अष्ट सिध्दी नवनिधि उस के आगे कोई माना नहीं रखती.. जिस ने इस असली धन को पाया बड़े से बड़ा धनवान उस के आगे कोई माना नहीं रखते..तिलाजी सावधानी से सुनने लगे…
परमात्म शांति और आत्म ज्ञान का संगीत सुनने में रूचि होने लगी..

जिस में रूचि होती मनुष्य उस में प्रगति करता है… संसार में रूचि है इसलिए भगवत प्राप्ति में देरी होती..

तिलाजी की तत्परता और दादू दीनदयाल जी की करूणा कृपा ने तिलाजी को महान बना दिया ..तिलाजी समझ गया की यहाँ का धन, सत्ता यहाँ ही ढल जाता है.. शाश्वत धन ईश्वर निष्ठा और आत्म सत्ता ही है!

इस को ही पाना ही सार है ऐसा तिलाजी की बुध्दी में विवेक जगा..
सत्संग सुनने में रूचि बढ़ी..सुनते सुनते एकाकार हो जाते…गुरूजी की तरफ आँखों की टिकटिकी लगा कर एकाग्रता से सुनते..तो गुरूजी की प्रसन्नता पायी..दादू दीनदयाल जी के अंगद सेवा करने का सौभाग्य मिला..

महा पुरुष के अंगद सेवा से सहेज में उन्नति होती…क्यों की महापुरुष के दर्शन सहेज में मिलते रहेते…उन के शरीर से जो तन्मात्राए निकलती .. महापुरुष के आँखों से रोम कुपो से निकलती जो करूणा कृपा की मंगलमयी कम्पने मिलती है, उस का लाभ मिलता.. ईश्वर की ही चर्चा होती है.. तो महापुरुष के अति निकटता से अति शीघ्र ईश्वर प्राप्ति होती है, अगर साधक बुध्दिमान है , उस की जीतनी बुध्दी शुध्द है उतना जल्दी कल्याण होता है…ऐसे साधक को अंगद सेवा मिलना बड़े भाग्य है… जल्दी से अपना कल्याण कर लेता है और उस के दर्शन कर के दुसरे भी अपना भाग्य बनाने लगते..वरना बुध्दी में दोष होंगे तो अंगद सेवक हो कर भी महापुरुष में भी दोष दर्शन करते और यात्रा लम्बी हो जायेगी….

खाकी वर्दीवाले थानेदार को देखते तो थाना याद आता है.. काले कोट वाले वकील के देख के कोर्ट की याद आती है ऐसे संत को देखते तो भगवान और उस की महिमा याद आती है..

श्वासोश्वास की साधना करे..सत्स्वभाव, चेतन स्वभाव , आनंद स्वभाव का सुमिरन करते करते भगवान की गोद में जाए और सुबह उठे तो थोड़ी देर ध्यानस्थ हुए…दिन भर में काम करते करते बिच बिच में उस ही भगवत स्वाभाव में शांत हुए तो भगवान का रस जागेगा ….

ॐ शांती

सिन्धी और मुल्ला की कथा

2 प्रकार की माताएं होती है..
एक कहेती, ‘ये क्या मिटटी का खिलौना है, फेंको… अभी उठूंगी ना मारूंगी ‘ ..भय से बच्चा मिटटी का खिलौना निचे रख दिया.. माँ थोड़ी दूर गयी तो बच्चे की मन के लालच ने फिर उठाया और चुपचाप चाटने लगा..
दूसरी माँ क्या करती की बच्चे को समझाती , ‘ये आम नहीं बेटा! ये तो मिटटी का खिलौना है’ …सिर्फ समझाया नहीं , माँ असली आम ले आई और बच्चे को आम चखा दिया…बच्चा अपने आप आम खाने की कला सिख गया!
निषेधात्मक संस्कार देकर बच्चे कहेना नहीं मानेंगे,गलत राह पकड़ेंगे.

‘खुदा को नहीं मानोगे तो दोजख की आग में झुलसोगे…’ ऐसा निगेटिव भाषण से आतंकवादी हो जाएगा..

सब तुम्हारे तुम सभी के फासले दिलो से दूर करो..

एक मुसलमान भाई बोला, ‘इंसान नाजायज है..अल्ला-ताला को मानोगे तो बचोगे, नहीं तो दोजख की आग में झुलसोगे…’
एक पक्का सत्संगी सिन्धी था, बोला.., ‘ऐसा नहीं की इंसान नाजायज है..इंसान तो भगवान का बाप बन गया है.. गुरु बन गया ..ऐसी शक्तियां है इंसान में!’
मुसलमान भाई : …खुदा की खुदाई कोई नहीं जानता ..
सत्संगी : खुदा की खुदाई जानेगा नहीं तो मनुष्य की प्रगति कैसे होगी?
मुसलमान भाई : तू जानता है?
सिन्धी सत्संगी : हां! कल 100 रुपियो लेकर आ जाना सिन्धु नदी के किनारे!
दोनों में 100 रुपये की शर्त लगी.दुसरे दिन दोनों पहुंचे सिन्धु नदी के किनारे..
मुसलमान भाई : दिखाओ खुदा की खुदाई!
सत्संगी सिन्धी : ये देखो बहेती हुई सिन्धु नदी! ये खुदा की खुदाई ही है!
मुसलमान भाई : ये कैसी खुदाई?
सिन्धी सत्संगी: ये खुदा की खुदाई नहीं तो क्या तेरे बाप ने खुदाई है?
मुसलमान भाई : किसी के मन में क्या है कोई नहीं जान सकता!
सिन्धी सतंगी : इन्सान जान सकता है..सिपाही भी जान लेता की सामनेवाला चोर है की नहीं..मनुष्य की अनुमान शक्ति बहोत जोरदार है..
मुस्लमान भाई : क्या तू जान सकता है मेरे मन में क्या है ?
सिन्धी सत्संगी : हां! अगर मन की एकाग्रता बढ़ाये तो जान सकते है की किसी के मन में क्या चल रहा है..
मुस्लमान भाई बोले : ठीक है अगले जुम्मे मस्जिद में आना, 500 रुपियों की शर्त है!
..इन्सान के मन की बात कोई नहीं जान सकता…मुसलमान मुल्ला ने पहेले से ही सोच लिया था की ये जो भी कहेगा मैं ये ही कहूँगा ये मेरे मन में नहीं था..इस की बात मेरे मन में होगी तो भी मैं कहूँगा की ये मेरे मन में नहीं था..

अगले जुम्मे को सिन्धी सत्संगी आया मस्जिद में..
मुल्ला ने सब के सामने पूछा : मेरे मन की बात बताओ..
सिन्धी सत्संगी ने बोला : आप के मन में कभी ऐसा नहीं आता की मेरे पास जो पब्लिक आती है वो शैतान हो जाए, वो दोजख में जाये…
मुल्ला क्या बोले? नहीं तो कहे नहीं सकता था ! बोला : हां और क्या है बोल..
सिन्धी सत्संगी :आप के मन में ऐसा कभी नहीं आता की यहाँ आनेवालों के दामन में दाग आये ऐसा नहीं सोचते…आप के मन में हमेशा आता की यहाँ आनेवाले सभी नेक बने!
अब इस बात पे मुल्ला को झूठ बोलने की गुन्जायिश नहीं रखी..

मुल्ला ने पूछा : अच्छा ..ठीक है ..लेकिन आसमान के तारे कितने कोई नहीं जानता ? धरती का बिज भी कोई नहीं जनता?
सिन्धी भाई बोला : धरती तो गेंद की नाई गोल है, जहा भी उंगली रख दो वो उस का बिज है..

मुल्ला बोले : आसमान में तारे कितने है कोई नहीं गिन सकता..
सिन्धी सत्संगी बोले :गाय बुलाओ..
गाय आई..बोले जितने इस गाय माता के अन्दर बाल है उतने आसमान में तारे है!
मुल्ला : कम ज्यादा होंगे तो?
सिन्धी भाई : कम ज्यादा होंगे तो चलते है ऊपर तारे गिनने को.. :)

मुल्ला क्या बोले? बोले ठीक है अगले जुम्मे आना…
सिन्धी भाई फिर हाजिर हुआ जुम्मे को..

अगले जुम्मे मस्जिद में भाषण चल रहा था..दुनिया में ऐसी क़यामत(प्रलय) हो जाएगी..जो हमारे मजहब में आयेंगे उस की हम अल्ला ताला से सिफारिश कर देंगे…बाकि सब मरेंगे.. आग में झुलसेंगे..

सिन्धी भाई बोले : क़यामत नहीं होगी…
महिना बीत गया…6 महीने बीत गए…साल बीत गया…सिन्धी भाई पहुंचा बोला, सलाम आलेकुम! क़यामत नहीं हुयी..
मुसलमान भाई ने शर्त के 1000 रुपये दिए और बोले अब मत आना!
सिन्धी भाई बोला, मुझे ये आप के 1600 रुपये रखने नहीं है ..ये तो मैं आप को वापिस दे रहा हूँ…मैं तो बस इतना चाहता हूँ की पोजिटिव सोचने से आतंकवाद नहीं होगा…

मुस्लिम धरम में यकिन की विशेषता है… मुसलमान भाइयो को यकिन के नाम पर कही भी चला दो, चल पड़ते है…..श्रध्दा के साथ बुध्दी योग , तत्परता और एकाग्रता भी होना जरुरी है..

सत्संग से कितने लाभ होते इस की खोज तो कोई नहीं कर पाया…ब्रम्हा जी ने तराजू बनायी तो भी टूट जाएगी… :)

ॐ शांती

3 प्रकार के भुत - रामकृष्ण परमहंस

रामकृष्ण परमहंस की ठहर ने की व्यवस्था उन के गोपाल नाम के भक्त ने एक आवास में की थी की जहां गुरूजी दोपहर में थोड़ी देर आराम करेंगे..रामकृष्ण परम हंस जी को उन के भक्त ठाकुर जी बुलाते थे…सेवक गोपाल ठाकुर जी को अन्दर आराम करने ले गया और स्वयं बाहर गुरूजी की सेवा में बैठा था…थोड़ी देर में अन्दर से बात करने की आवाज आने लगी..गोपाल को लगा की ठाकुर जी तो अन्दर आराम करने गए लेकिन ठाकुरजी आराम नहीं कर रहे…किसी से बात कर रहे…अन्दर तो कोई नहीं था… किस से बात करते होंगे?… इतनी देर में ठाकुरजी बाहर निकल आये..
गोपाल बोला, ‘हम सोच रहे थे की ठाकुरजी विश्राम में गए थे, लेकिन ठाकुरजी तो बात कर रहे थे..’
राम कृष्ण देव बोले, “हां!… उस कमरे में भुत है ..उन से बात कर रहा था!”
3 प्रकार के भुत होते है…जो जीते जी गन्दी तामसी आदतोवाले होते उन के भुत गन्दी जगहों में भटकते…राजसी भुत खाली मकान में रहेते…और सात्विक भुत पीपल आदि में रहेते..तो ये राजसी प्रकार के भुत है ..बोले की, तुम आये हो तो हम को बाहर धुप में परेशान होना पड़ता है…”
हम ने पूछा की तुम कौन हो?
तो बोले पास की फैक्ट्री में हमारी अकाल मृत्यु हो गयी.. इस इलाके में रहेने की रूचि थी तो इस खाली घर में रहेते थे..अब आप आ गए तो हम को बाहर धधकती धुप में रहेना पड़ता…तो हम बाहर आ गए..”

गोपाल को आश्चर्य हुआ…पूछा, “ठाकुरजी आप के दर्शन करने के बाद भी उन भूतो की सदगति नहीं हुयी?”
ठाकुरजी बोले, “अभी उन की इस इलाके में रहेने की वासना है..वासना धीरे धीरे मिटेगी तो ऊँची गति में जायेगे..”

मनुष्य शरीर तो जीव को ऊँची यात्रा करने के लिए मिला है, उस को भोग योनी मान लिया इसलिए परेशान होते..तामसी बुध्दी वाले लोगो की बुध्दी उलटा निर्णय करती…इसलिए नीची गति को जाते …
मैं स्विस एअर वेज में यात्रा कर रहा था..लम्बी सफर थी..तो हवाई जहाज में बार बार थोड़ी थोड़ी देर में यात्रियों को कुछ न कुछ खिलाते या पिलाते रहेते…और यात्री भी खाते रहेते चबर चबर….मुझे उन पर दया आती और उन को मेरे पर दया आती की मैं नहीं खाता !… परिचारिका को हुआ की 5-6 घंटे में कुछ नहीं लेंगे, इसलिए बार बार पूछे तो सोचा की कुछ मांग लो, जान छूटे! ओरेंज ज्यूस बोल दिया.. तो वो इतना बड़ा गैलन भर के लेकर आई….बोले की आप थोडा थोडा पीते रहो…मैंने थोडा लिया और बाकी वापस दे दिया …उन को लगे ये बेचारा क्या जी रहा! और मुझे लगे की ये बेचारे अपने स्वास्थ्य के साथ क्या कर रहे..एक के बाद एक चबर चबर करते जा रहे…जिस बाबा पर उन को दया आती वो तो अभी 71 साल में भी जवान है और वो बेचारे ना जाने विकलांग होकर व्हील चेअर में होंगे की भगवान के धाम पहुँच गए होंगे भगवान जाने…
कहेने का तात्पर्य है की तामसी बुध्दी के लोग पुण्य को पाप और पाप को पुण्य समझते…सही को गलत और गलत को सही मानते…

तामसी बुध्दी अनर्थकारी है …उस से अच्छी है राजसी बुध्दी…हमारा मकान ऐसा हो , हमारा लड़का ऐसा हो, ऐसी गाड़ी चाहिए..और धन चाहिए ऐसे राजसी बुध्दिवाले खप्पे खप्पे में खप जाते….ये भी अनर्थकारी बुध्दी है..
फिर भी तामसी बुध्दी से राजसी बुध्दी ठीक है..

राजसी से सात्विक बुध्दी अच्छी है.. सचाई से कमाएंगे , कमाई का 20 वा या 10 वा हिस्सा दान पुण करेंगे.. समय का कुछ हिस्सा ध्यान भजन आदि में लगायेंगे..लेकिन ये सोचेंगे की मैं तो धर्मात्मा हूँ , वो ऐसा है वैसा है..
ऐसी सात्विक व्यक्ति ईश्वर कृपा से सत्संग में पहुँच गयी, दीक्षा मिली, गुरुमंत्र का अर्थ सहित जप, थोडा साधन किया तो ऐसी थोड़ी यात्रा करने के बाद समझते की मैं धर्मात्मा हूँ ये “मैं पना” नहीं रहेगा….बुध्दी भगवत अर्थदा होने लगेगी…
ऐसी व्यक्ति मंदिर मठों में जायेगी लेकिन वहाँ उस का मन ज्यादा देर नहीं टिकेगा..
सोचेगा की : - "मेरा ऐसा दिन कब आएगा की संसार का सुख दुःख स्वप्ना लगेगा.. जिस प्रभु का ज्ञान और शांति पाने के लिए ये मनुष्य जनम मिला है वो उस अंतर्यामी भगवान का दर्शन मैं कब पाउँगा… ह्रदय मंदिर में कब पहुचुँगा … मुझे ह्रुदयेश्वर तक पहुंचा दे कोई..नहीं पूजन नमाज में फरक जहा.. मुझे ऐसी जीवन की धारा में पहुंचा दे कोई …मेरे ऐसे दिन कब आवेंगे…"


ॐ शांती

मथुरा की पट्टरानी की कथा

जीवात्मा सुख के लिए क्या क्या करता है , सोचता है वो सब उस ने अपने लिए बंधन बना दिया.

जैसलमेर के महाराज जानोजी महाराज खुदाई करा रहे थे तालाब की..कई लोग मजदुर वहा खुदाई का काम करते..

कुछ समझदारो ने एक महिला को भाप लिया की ये महिला किसी से बोलती नहीं.. घूँघट में मुंह छिपाए रहेती..किसी से बातचीत नहीं करती ….चुपचाप तालाब के लिए मिटटी निकालती रहेती..
जैसलमेर नरेश जानोजी के पास ये बात आई..जानोजी महाराज ने गुरुमहाराज को पूछा की ये बाई आखिर है कौन ? ये कौन घूँघट वाली चुपचाप सेवा कर रही है अपने राज्य में?
गुरुमहाराज बोले, ‘इस बाई की 3 जन्मो की बात बता दू की जो बाई मुंह छुपा के सेवा कर रही है..

आज से तीसरा जनम पहेले मथुरा के राजा की पट्ट रानी थी.. मथुरा नरेश की मृत्यु हो गयी…राजा का पद पट्ट रानी संभालने लगी…पट्ट रानी को पद मिला…मिला हुआ पद दूसरो के हीत में संभालते तो ईश्वर की सेवा हो जाती है..मिले हुए पद का दुरूपयोग करे तो पतन होता है.. संचालक हो या अधिकारी हो , अपने पद का दुरुपयोग करता है तो हटाया जाता है या तो अपने आप भाग जाता है.. जिस को जो पद मिला ठीक से उस का निर्वाह उपयोग करता नहीं तो उस को उस पद से हटाया जाता ये प्राकृतिक नियम है..
इस लोभी रानी ने अपने पद का दुरुपयोग किया अपने ऐशो आराम के लिए..
मथुरा में कुछ यात्री आये थे गुजरात से..मथुरा तीर्थधाम है.. मथुरा में यात्री आये …तो उन के पास जो भी शिधा सामान के साथ कुछ चांदी के सिक्के और सोने के अशरफियां आदि थे… स्वार्थी अधिकारीयों ने हमारे मथुरा में ये टैक्स होता वो होता कर के लुटा और रानी को खुश करने के लिए भेट किया…
लोभी रानी ने पूछा की , ‘उन के पास और है क्या?’
अधिकारी बोले, ‘हां’
तो रानी बोली, ‘लूटो!’
राजा के मृत्यु के बाद राजा का पद संभाल रही है तो मथुरा में आनेवाले तीर्थ यात्रीयों की सेवा हो ऐसा काम करना चाहिए था…यात्रियों की सेवा करनी चाहिए थी, लेकिन अधिकारियो को आदेश देकर यात्रियों को लूट कर अपने खजाने में धन भरा और उस का उपयोग अपने ऐश-आराम में करने लगी..

तो वो घूँघट वाली माई 3 जनम पहेले मथुरा की पट्ट रानी थी.. यात्रियों पे टैक्स डाल कर ऐशो आराम किया तो मरने के बाद गधी बनी… खूब डंडे मार कर प्रकृति ने वसूली की.. गधी बुढ्ढी हुयी फिर उस के पीठ पर मटके लाद के प्याऊ की सेवा की जाती थी… गधी के जनम में अनजाने में प्याऊ की खचरी की सेवा हो गयी…
अब वो ही खचरी बाई के रूप में दिख रही… अपने कर्म काट रही है..

शुभ-अशुभ कर्मो का फल मिलता ही है.. अच्छे कर्म करे और वो कर्म भगवान को अर्पण करो..बुराई से बचो.. नहीं तो नीच योनियों में दुर्गति होती रहेती….

नीच कर्म करना नहीं चाहते फिर भी हो जाते तो उन से बचने की कुछ ऐसी बातें समझ लो ….
हम से बुराई ना हो, हम बीमार न हो, हम अशांत न हो, ऐसा हम चाहते लेकिन फिर भी पूर्व के संस्कार से फिसल जाते..तो गुरु पोर्णिमा निमित्त ये सौगात समझ लो की फिसलाहट से कैसे बचे इस का उपाय समझ लो और ऐसा करो..

सुबह उठते ही थोड़ी देर शांत बैठे..नहा धोकर धरती पर कुछ बीचा देना कम्बल जैसा जिस से अर्थिंग न मिले, सूर्य किरण भले मिले..

ये वरदान है आप के लिए समझो!
जो ब्रम्हचर्य पालना चाहता, सपन दोष की बीमारी मिटने के लिए, स्वास्थ्य पाने के लिए, वायु प्रकोप.. पित्त प्रकोप.. कफ्फ़ की बीमारी है उस के लिए ये वरदान है ..
जो अपनी चिकित्सालय की सेवा में डॉक्टर वैद्य हो उन के लिए भी ये सूचना है..इस का पैमप्लेट छाप कर दे दिया करे..

इस को अश्विनी मुद्रा कहेते है..आप सीधे सो गए श्वास बाहर छोड़ा…पेट को ऊपर निचे अच्छी तरह किया….फिर घोडा जैसे लीद छोड़ते समय आकुंचन प्रसरण करता ऐसे शौच जाने की जगह को संकोचन विस्तारण 100 बार करे. चमतकारिक ढंग से फायदा होगा.

50 बार करे तो पित्त वायु कफ्फ़ में शमन होगा..सपन दोष में जादुई फायदा करेगा.सभी बीमारियों का मूल है वात पित्त आम कफ्फ़ इन से बीमारी होती …ये संतुलित रहे.

100 बार करने से आप की सुशुप्त शक्तियां जागृत होने में सुविधा होगी. आप के अन्दर बुध्दी का सुशुप्त खजाना पड़ा है उस में हिल्चल होगी… कुंडलिनी जाग्रति में सुविधा होगी…

ॐ शांती

संत दादू दीनदयालजी महाराज और राजा मानसिंह

सत्संग से 18 लाभ , और मन्त्र दीक्षा से 33 लाभ होते …और सत्संग में एक एक डगला(कदम) चल एक आते तो एक एक यज्ञ करने का फल होता…सत्संग सुनते तो ज्ञानयोग होता…सत्संग में ताली बजाते तो भक्ति योग होता….ऐसे सब फल है!

..जो दीक्षा लेते उन को हार्ट एटेक नहीं होगा, हाई बी. पी. नहीं होगी… ऑपरेशन नहीं करना पड़ेगा ….

राजे महाराजे राजपाट छोड़कर भी सत्संग जाते थे…



राजस्थान में दादू दीनदयाल बहोत उच्च कोटि के संत थे… राजा मानसिंह का भी इतिहास में नाम है… सुमति से मानसिंग आमेर के गद्दी पे बैठे …तो अधिकारी से लेकर सभी अभिवादन करने आये…..सब ने तोहफा दिया….राजा मानसिंह का जयजयकार किया….मस्का मारने वालो ने खूब मस्का मारा…

उस समय का ज़माना और अभी का ज़माना वोही का वोही है…!! उस समय भी संतो के दैवी कार्य का फायदा लेनेवाले लोग थे…और संतो के दैवी कार्य के विरोध में भड़काने वाले लोग भी थे ..!!



..तो दादू दीनदयाल के दैवी कार्य के जो विरोधी थे ऐसे लोगो ने राजा मानसिंह को भड़काया ….की आप आये तो बापू दीनदयाल ने अभिवादन भी नहीं किया ..इतने लोग आये…लेकिन दादू दिनदयाल ने आप को अभिवादन नहीं किया तो इस से दुसरे नागरिको को असर पड़ जायेगी…दादू दीनदयाल ऐसे है..वैसे है….आदि..

.. संत के लिए दुष्ट प्रवृत्ति के लोग निंदा करते और सत-प्रवृत्ति के लोग उन के दैवी गुणों का फायदा लेते..जैसे बछडा गाय का दूध पिता और पुष्ट होता है…. दुष्ट लोग तो गाय को काटते है .. ऐसे जहां दूध पिने वाले बछड़े है तो खून पिने वाले भी होते…!

ऐसे लोग दूसरो की श्रध्दा तोड़ते …..तो ऐसे लोगों ने राजा मानसिंग को कुछ न कुछ भड़काया..की, “ दादू दीनदयाल के आश्रम में किसी की मौत हो गयी तो उस को ना जलाया, ना समाधि दी….और ना उन का कुछ वैदिक विधि से संस्कार किया….ऐसे ही जंगल में फिकवा दिया… की गीध जानवर खा जाए…. किसी साधू के लिए क्या ये अच्छी बात है ?…ये तो बहोत अनर्थ हो गया ….आप इतने अच्छे राजा है…आप पर अकबर प्रसन्न है…..लेकिन उस दादू दीनदयाल को नाराजी है…इसलिए आप का राजतिलक हुआ तो अभिवादन स्वागत करने नहीं आये..और शिष्यों को भी नहीं भेज के 2 वचन नहीं बोले….!”



..राजा मानसिंग ने देखा की कोई कुछ भी कहे…लेकिन संतो के लिए ऐसी बातो में विश्वास नहीं करना चाहिए…. अपनी बुध्दी लगना चाहिए…..राजा मानसिंग बुध्दिमान था …..सोचा की खुद ही जांच करूंगा……



..एक दिन मोका पा के एका एक राजा मानसिंह साधू जी महाराज के आश्रम में गए…प्रणाम किया …..साधू महाराज ने कुशल पूछा ……राजा मानसिंह बोले, “आप की दया है… संतो की दया है ! आप के दर्शन करने आये है….”



….दादू दीनदयाल महाराज बोले, “तुम्हारी आँखों में कुछ प्रश्न दिख रहा है…आप केवल दर्शन करने नहीं आये…. कुछ सच्चाई जानने को आये है….”

….तो राजा मानसिंह बोले, “ महाराज सच्ची बात है…

..दरबार में लोग बोलते की आप आये नहीं… राज्याभिषेक के समय भी बापूजी नहीं आये…तो आप हमारे राजा बनने से नाराज है क्या?… आप पधारे नहीं!…”

..दादूजी दीनदयाल महाराज बोले, “…प्रेरणा नहीं हुयी तो नहीं आये… आप ने हमारा क्या बिगाड़ा है की हम आप से नाराज होंगे?…हम तो दुसरे में भी अपने आत्मा को देखते ….हम आप से नाराज नहीं …..लेकिन आने की जरुरत भी नहीं लगी, इसलिए नहीं आये….”

….उन की बातो से राजा मानसिंह का चित्त शांत हुआ…तो उन्हों ने आगे पूछा की, “महाराज , आप ने आश्रम के व्यक्ति का शव जंगल में फेकवा दिया….उस को जलाया नहीं..कोई संस्कार नही किया….”



तो महाराज बोले, “जिस की मौत हुयी थी , उस की उस शरीर में कामना नहीं थी….वो त्यागी पुरुष था.. (जीते जी ही देहाध्यास छोड़ चुका था…)..इसलिए हमने उस का शव जंगल में फेकवा दिया…

कोई मर जाता है तो उस का 6 प्रकार से संस्कार किया जा सकता है….एक अग्नि संस्कार होता, दूसरा समाधि संस्कार होता है. ..तीसरा वायु संस्कार होता है….जो त्यागी होते उन का वायु संस्कार किया जाता है….जिन की मृत्यु हुयी वो संत त्यागी था…तो ऐसे त्यागी का वायु संस्कार कर दिया ….

चौथा होता है जल संस्कार …जल संस्कार होता तो उस को नदी में बहा देते ..जल को अर्पण कर दिए तो जल संस्कार ..वायु को अर्पण किये तो वायु संस्कार ….. अग्नि में जलाते तो अग्नि संस्कार….. (पूज्य बापूजी जोधपुर सत्संग में बोले की , भूमि संस्कार और विरह-अग्नि संस्कार भी होता..मीराबाई और संत तुकाराम महाराज का देह विरह-अग्नि में भगवान में समा गए…)

..जो संन्यासी होते उन की समाधि संस्कार होता… और वेदों के अनुसार करते उस को वैदिक संस्कार बोलते…

तो ऐसे शव के 6 प्रकार से संस्कार होते… वो त्यागी थे, उन का हम ने त्यागी थे इसलिए वायु संस्कार किया…उन की देह में अहंता नहीं थी.. संसार में महानता नहीं थी…. तो वायु का संस्कार कर देते……”



..राजा मानसिंह को शान्ति हुयी… उस को लगा की , चलो भाई, अच्छा हुआ मैं महाराज जी से मिला… निंदक कुछ न कुछ बकते…लेकिन धरती पे संत आये, इसलिए सुख शांति है….

..ऐसे बड़े बड़े संत जब भी इस धरती पर आये है…निंदक लोग उन के लिए कुछ न कुछ बकते है…. राम जी के गुरू के लिए क्या क्या बोलते….लेकिन संत दयालू स्वभाव के होते है की , अपने कार्य से लोगो का फायदा हो इसलिए समाज में रहेते ….अज्ञानी लोगों का सुन कर ऐसे संतो की निंदा कर के अपने 7 पीढ़ियों को नरक में क्यों डाले?



… ऐसे मानसिंह राजा को संतोष हुआ …कुछ दिन बीते तो फिर दुसरे धर्म वालो ने फिर भड़काया….. “महाराज हद हो गयी!बापू दीनदयाल महाराज ने तो 2 कुंवारी ब्राम्हण कन्याओं को आश्रम में रखा है… उन के साथ में ना शादी करते, ना घर बसाते…. साधू बाबा हो के लड़कियों कों साथ में रखना!….आप के राज्य में कैसा अधर्म हो रहा….हम को दुःख होता है ..!” ऐसी और भी गन्दी गन्दी बाते करते…



फिर गए राजा मानसिंह महाराज के आश्रम में !..

महाराज को प्रणाम किया ….बोले, “महाराज आप के दर्शन करने आये…”

..महाराज बोले, “दर्शन को भी आये और कुछ पूछने के लिए भी आये..पूछ लो…”

राजा मानसिंह बोले, “सच्ची बात है महाराज..आप के आश्रम में 2 कुमारियाँ …2 लड़कियाँ रहेती ….ब्राम्हण की कन्याएं …लोग कुछ न कुछ बोलते…"

महाराज बोले, “लोग तो बोले जो बोलना है..लेकिन वो कन्याएं क्या बोलती वो भी सुन लो…”

…महाराज ने शिष्यों को भेजा की, कन्याओं को बुलाओ… राजा मानसिंह उन से मिलना चाहते है…



..राजा मानसिंह ने कन्याओं को पूछा की “तुम्हारी इतनी उम्र हो गयी, शादी क्यों नहीं करती….बोलो तो बढ़िया वर खोज दूँ…”



..तो उन ब्राम्हण कन्याएं बोली, “महाराज हमारी शादी तो हो गयी 8 साल पहेले …!

..हमारी शादी तो 8 साल पहेले ही भगवान से हो गयी है …महाराज, शादी वो है जो शाद आबाद करे….गुरू के मार्गदर्शन से हम ने ये जान लिया की शरीर के हाडमांस में सुख खोजना व्यर्थ्य है … अमर आत्मा- परमात्मा से, भगवान से शादी हो… ऐसे वर को क्या वरू जो मर जाए!…..हमारी तो 8 साल पहेले भगवान से शादी हो गयी…ये तो आत्मा परमात्मा की शादी है…. गार्गाचार्य ऋषि की बेटी थी गार्गी… वो भी जीवन भर अ-विवाहित थी….क्यों की समझ आ गयी थी की असली विवाह आत्मा परमात्मा का है, लोग उन को प्रणाम करते…… हमारे गुरू के चरणों में रहेकर भगवान की स्मृति में रहेना..इस से अच्छी जगह कही ओर हो सकती है क्या?….गुरूजी के आश्रम में ध्यान भजन करना…उन के दैवी कार्य में भागिदार होना इस से बड़ा काम हो सकता हैं क्या?….”

..राजा मानसिंह बोला, “ ईश्वर भक्ति का इतना महत्त्व समझती हो, साधा जीवन का इतना महत्त्व समझती हो… भोगी और निंदक से फक्कड़ साधू जीवन, त्यागी साधू जीवन जी कर अपना मनुष्य जीवन धन्य कर रही है…. ऐसे त्याग से रहेने वाली कन्या साधू ही है!” मानसिंह राजा ने माफी मांगी….

“… साधू के देखकर लाचार , मोहताज नहीं कहेना चाहिए ..उन का आदर करना चाहिए ….साधू संतो की निंदा करने से , सुनने से विपदा आये, पुण्य नाश हो जाए, मति मरी जाए ऐसा नहीं हो….. संत का निंदा नहीं करे …साधू संतो को तो मान की इच्छा नहीं होती… लेकिन उन को प्रणाम करने से , उन का मान करने से करने वाले का अपार मंगल होता…मैंने आप को ऐसा प्रश्न कर के अपमान किया, मेरे को पाप लग गया” ऐसा राजा मानसिंह बोले…

ब्राम्हण कन्याएं बोली, “ आमेर नरेश .. हमारा अपमान नहीं हुआ … लेकिन गुरूजी के कार्य पर शंका हुयी इसलिए इस गलती की गुरूजी से माफी मांग लो …!”

..राजा मानसिंह बुध्दिमान थे..अकबर उन की बुध्दिमत्ता पे नाज करता था …ये ऐतिहासिक घटना है…राजा मानसिंह ने बापू दीनदयाल महाराज से माफी मांगी की, “मैं आप के बारे में गलत सोच रहा था..मैं आप का अपराधी हूँ”

महाराज जी बोले, “..लोग संतो में दोष देखते , उन की निंदा करते तो बुध्दी खराब करते ..राजन तुम्हारा कसूर नहीं…. संतो का संग है तो भगवान के भजन का रंग आता और गन्दी चीज का संग होगा तो गन्दी चीज का ही गंध आयेगा…ये संग का रंग है ! ..रामायण में लिखा है की मरुभूमि में मृग बनना अच्छा है लेकिन भगवान दुष्टो का संग ना दे..!”



कबीरा दर्शन संत के साहिब आये याद l

लेखे में वो ही घडी, बाकि के दिन बाद ll



संत का दर्शन होते वोही दिन जिंदगी के ऊँची कमाई के होते…बाकि के दिन खा-पि के गए…





…देव ऋषि नारद कलियुग के प्रभाव से बहोत दुखी हुए और ब्रम्हाजी को बोले की , “कलियुग का कु- प्रभाव इतना अधिक बढ़ गया है की अच्छे लोग भगवान की भक्ति साधन भूलकर निंदा चुगली में फसते….तीर्थो में जाते तो भी किसी साधू महाराज का दर्शन नहीं करते….कोई मिलते तो वे संतों के नाम पर कालिमा लगानेवाले होते…. “हमारे गुरूजी ये मांगे” ऐसा कर के धोखा- धडी करने वाले साधू मिलते…. इसलिए लोगो की श्रध्दा टूट गयी.. लोग बहोत दुखी है….. अच्छे साधू को कोई पूछता नहीं है…उन के दैवी कार्य का फ़ायदा नहीं लेते…. बुध्दिमान भी आटा , दाल, रोटी कमाए- खाए इसी में समय बरबाद करते …..!कुछ उपाय कीजिये भगवान!”



ब्रम्हाजी तनिक शांत हुए … …..फिर ब्रम्हाजी के आँखों में चमक और चेहरे पे प्रसन्नता आई…..बोले…नारद बहोत अच्छा प्रश्न किया… कलियुग में कलियुग का भाई अधर्म घुस गया है….एक मन्त्र है… इस मन्त्र से कलियुग के दोष दूर होंगे… अन्तर्यामी राम का कृपा प्रसाद पाके लोग दुखो से पार होंगे..!

मन्त्र है:-

हरे राम हरे राम

राम राम हर हरे

हरे कृष्ण हरे कृष्ण

कृष्ण कृष्ण हरे हरे..



तो कलियुग में भगवान का नाम का जो ये भजन करेगा उस के घर में कलियुग का प्रभाव कम हो जायेगा..

… भजन करते हाथ की ताली बजती तो हाथ पवित्र होते , बोलते तो जीभ पवित्र होती….सुनते तो मन पवित्र होता..



राम राम राम” ऐसा 3 बार कहेने से किसी भी काम में पूर्णता हो जाती…. ऐसा राम नाम का प्रभाव है….

(पूज्य बापू जी श्लोक बोले…)

ये भगवान शिव जी ने पार्वतीजी को कहा….

पार्वतीजी विष्णु सहस्त्र नाम कर के, बाद में भोजन करती ….तो शिव जी ने पूछा, “अभी तक भोजन नहीं किया?” …. पार्वतीजी बोली, “नाथ, मेरा नियम बाकी है…”

जो साधक भजन नियम नहीं करते उन को भगवान की कीमत नहीं होती…



नारायण नारायण नारायण नारायण





सत्संग में वो ही लोग आते जिन पर भगवान की विशेष कृपा होती है..जिन के पुण्य जगे है…पूर्व के पाप से दुराचारी को “हरिनाम ना सुहावे”..उस को भगवान का नाम अच्छा नहीं लगता…





भगवान कृष्ण गीता में बोलते की , “दुखद समय में मेरे को स्मरण करो… युध्द जैसा घोर काम करते हुए भी मुझे स्मरण करो”

….जो भी काम करते तो करते करते भगवान का नाम सुमिरन करो….लेकिन इस में काम का महत्त्व बना रहेगा…तो जो भी काम करते वो भगवान के लिए करे तो बेड़ा पार!सब समय में जो भी काम करते - सब मन, बुध्दी, इन्द्रियों से जो भी करते ..सब भगवान को अर्पित करे….

3 प्रकार का सुमिरन होता है….

1)क्रिया जन्य सुमिरन

2) स्मृति जन्य सुमिरन

3)बोधजन्य (ज्ञानमय) सुमिरन

क्रिया जन्य सुमिरन…मुंह से राम राम बोल रहे हाथ से ताली बजा के हील रहे…ये हो गया क्रियाजन्य सुमिरन..

स्मृति जन्य सुमिरन… “मैं भगवान का और भगवान मेरे” इस की पक्की स्मृति हो जाए….तो मेरे मेरे ऐसा बोलना नहीं पडेगा….मैं मारवाड़ी मैं इस की लुगाई ऐसा याद करना पड़ता है क्या तुम को?ऐसे ये स्मृतिजन्य सुमिरन है…

बोध जन्य सुमिरन में सब वासुदेव है..जो अंतर्यामी देव है….बीमारी आती तो शरीर में आती, सुख दुःख आता तो वृत्तियों में आता…अच्छाई -बुराई आती तो मन बुध्दी में आती….मरते तो शरीर मरता …हमारा आत्मा अमर है …ऐसा ज्ञानमय सुमिरन है….



..एक बेटा चल बसा और दुसरे बेटे को बेटा हुआ….तो बेटा मर गया इस का दुःख हुआ और पोता हुआ इस का सुख भी हुआ…लेकिन दोनों को जाननेवाला कौन है?….वो ही आत्मा-परमात्मा है..अपने अन्दर चेतन स्वरुप बन के बैठा है…

मन तू ज्योति स्वरुप अपना मूल पहेचान l



गुरू के दिखाए मार्ग पर चलते तो गुरू की कृपा है…गुरू सब संभाल लेंगे…गुरू से निभाते तो ह्रदय में भगवान प्रगट हो जाते….:-) लेकिन गुरू से छलछिद्र करते तो गुरू कृपा से वंचित हो जाते…..ऐसा व्यक्ति भगवान को नहीं भाता….


राजा मानसिंह के आस पास के नीच मति के लोगों ने फिर से संत दादू दिन दयाल के प्रति कान भर दिए .... तो मानसिंह ने सोचा अच्छा होगा की महाराज आमेर छोड़ कर कही और चले जाए ....इस विचार से राजा फिर से महाराज दिन दयाल जी के दर्शन करने आया ....बोला , "महाराज , संत फकीर तो रमते ही भले लगते ...आप यहाँ इतने सालों से रहे कर उब नहीं गए क्या ?"

दादू दिन दयाल जी महाराज उस ही रात को चेलों के साथ आश्रम छोड़ कर चले गए ....

जिस प्रांत में , राज्य में संतों के चरण पड़ते उस राज्य में संपत्ति समृध्दी लहेराती है , प्रकृति प्रसन्न रहेती है.. लेकिन जहां संतों को सताया जाता है , वहाँ प्रकृति का कोप हो जाता है ....

जिस स्थान में 5 वर्ष तक संत के चरण नहीं पड़ते वहा के लोग पिशाच के जैसे बन जाते..

संत दीनदयाल के बारे में जो कु-प्रचार हो रहा था , मानसिंग राजा उस का शिकार हुआ..राजा मानसिंह ने दादू दीनदयाल को सताया..दादू दिन दयाल वहा का आश्रम छोड़ के चले गए..प्रभात को राजा मानसिंह को सपना आया की तुम्हारे नगर का नाश होगा..प्रभात के स्वपने ने राजा को झाँकझोर दिया..सैनिको को दौड़ाया की देखो दादुजी आमेर में है की नहीं…पता चला की दादू जी स्थान छोड़ कर निकल गए…पद चिन्ह ढूंढ़ते उन का पीछा किया.. संत के चरण पकडे.. बोले, “ऐसा सपना आया प्रभात का..संत रूठ गए ..महाराज गुस्ताखी माफ हो.. कुल नाश होगा..राज्य नाश होगा… सुबह का सपना है महाराज..बचाईये ”
संत ह्रदय था..बोले, “100 साल की गद्दी रहेगी ..बाद में उजड़ेगा …”
अभी भी जयपुर के चारो ओर जयजयकार है लेकिन आमेर के तरफ उजड़ा हुआ है …जयपुर में ही है आमेर फिर भी ऐसा है..



ॐ शांती

संत वेणी ब्राम्हण की कथा

गुरुग्रंथ साहिब में 15 भक्तो की वाणी संग्रहीत की गयी है…बाबा फरीद की वाणी है, संत नामदेव की वाणी है…इस प्रकार गुरू ग्रन्थ साहिब में वेणी ब्राम्हण की भी वाणी संग्रहीत है…
वेणी भट्ट ब्राम्हण थे..बिहार के असिनी गाँव में १७६० में उन का जन्म हुआ था… वेणी गरीबी में ऐसे जीते की भगवान ऐसी गरीबी किसी को ना दे..वेणी ब्राम्हण को, उस की पत्नी और बच्चो को कभी एक समय खाने को मिलता तो कभी भूखा रहेना पड़ता..तो कभी 2-2 दिन का लंघन हो जाता… भक्त वेणी की मधुर वाणी पत्नी भी अन्न धान्य के अभाव में चिडचिडे स्वभाव की हो गयी… गरीबी की पीड़ा से जीवन का अंत कर लेने की सोचा… शरीर की आत्महत्या करने के विचार में दरिद्र, लाचार , मोहताज वेणी घर से निकल पडा…
वेणी को रास्ते में संत का सत्संग मिला… गरीबी से पीड़ित लाचार मोहताज वेणी का भाग्य ऐसा बदला की गुरू ग्रन्थ साहिब में उस की वाणी संग्रहीत हो जाती है…
इसलिए कबीर जी कहेते:-
कबीरा दर्शन के साध के साहिब आवे याद!
(संत के दर्शन दिन में कई कई बार करने चाहिए..रोज न कर सके तो 2 दिन में, 4 दिन में एक बार अवश्य करे…वो भी न कर सके तो 7 दिन में कर ले…जिन को हफ्ते में एक बार भी संत दर्शन करना संभव नहीं होता वे 15 दिन में एक बार या तो महीने एक बार तो अवश्य करे…कबीर जी कहेते है ऐसे मनुष्य को काल भी दगा नहीं दे सकता…अर्थात उस की अकाल मृत्यु नहीं होगी…)
महापुरुष की वाणी से भगवत रस छलकता है..उन के पास घडी भर बैठे रहे तो भी अंतर का भगवत रस प्रगट हो जाता है!!इसलिए समझदार शिष्यों की भाषा है की…

गुरूजी तुम तसल्ली ना दो, सिर्फ बैठे ही रहो..
महेफिल का रंग बदल जायेगा ..गिरता हुआ दिल भी संभल जाएगा !

भक्त वेणी का दिल भी संत दर्शन से संभल गया…

वेणी ब्राम्हण सत्संग सुन कर वहा ही रुक गए.. दिन में 2-3 बार बाबा के दर्शन हुए.. आत्महत्या का भाव ठंडा हुआ.. बाबा से नजदीक से भेट हुयी..
बाबा ने पूछा, ‘कहा जा रहे हो?’
वेणी बोले, ‘बाबा संत से झूठ बोलना पाप है..मैं तो आत्महत्या करने को जा रहा था…’ बोलते बोलते वेणी की आँखों में आसू आये… ‘पिता कर्जा छोड़ के गए थे..कर्जा चुकाते जैसे तैसे दिन गुजार रहे थे..लेकिन अब तो संसार की गाड़ी रटते रटाते राम जी ने भी मुंह मोड़ लिया… दुशमन की भी ये दुर्दशा भगवान ना करे..इसलिए आत्महत्या करने जा रहा था..’
संत बोले, ‘बेटा पुरुषार्थ कर! मेहनत कर!’
वेणी बोले,’मेहनत तो बहोत करता हूँ फिर भी पेट भरने के लिए भी नहीं मिल रहा है बाबा’
संत बोले, ‘मेहनत 2 प्रकार की होती है..एक होती है संसारी मेहनत…धंधा करता , नोकरी करता- जैसे जॉबर (जॉब करने वाले ) लोग मेहनत करते , दुकानदार मेहनत करते .. ये हो गयी संसारी पेट पालू मेहनत…दूसरी मेहनत है वो भगवान के नाम का जप और पुकार …संसार का सर्जनहार तेरी खबर लेने के लिए मजबूर हो जाये ऐसी पुकार…बेटा ये दूसरी मेहनत है… आत्महत्या करने जा रहा , शरीर की हत्या होगी, आत्मा तो भटकेगी…भगवान को पुकारो और बोलो की, ‘मैं अपनी अहम् की हत्या करना चाहता हूँ..हे प्रभु मुझ से नहीं होती, तुम ही कर दो मेरे रब !’..ऐसा भगवान का नाम ले.. जप, ध्यान कर..श्वासोश्वास में भगवान का नाम ले तो जल्दी वो पालनहार तेरी खबर लेगा… दुनियादार 10 साल में नहीं कमा सकते इतना तू 10 दिन में कमा सकता है बेटा..!ये असली पुरुषार्थ कर..’

वेणी को संत महापुरुष ने समझाया की भगवन नाम की मेहनत कर..अपने को भगवान का और भगवान को अपना समझ तो तेरी ये सारी परेशानियाँ भगवान की चीज हो जायेगी…तुम भगवान के हो गए तो तुम्हारे बेटे बेटी की चिंता भगवान की रहेगी.. तुम्हारी रोटी की चिंता भगवान की हो जाएगी..

वेणी का तो राजा महाराज योग हो गया…रोज जंगल में जा कर भगवान को पुकारता..संत ने बतायी ऐसी साधना करता..
2-3 दिन बीते..चौथे दिन पत्नी बोली, ‘कहाँ जा रहे हो? घर में बच्चे भूके है, सुबह से शाम तक जाते हो कुछ कमा के तो लाते नहीं..’
वेणी ने सोचा भगवान का नाम लेना तो राजाधिराज की सेवा करना है..मन में भगवान को राजाधिराज समझा और पत्नी को बोला, ‘मैं राजा के यहाँ कथा पढ़ने जाता हूँ..’
पत्नी को समझाने के लिए वेणी तो बोल दिया की राजा प्रसन्न हो जायेंगे तो बहोत धन और अन्न देंगे..लेकिन पत्नी बहोत भड़क गयी..बोली, ‘बाढ़ में गयी तेरी कथा और बाढ़ में गया अन्न धन..आज अगर खाली हाथ आये तो घर में मुंह नहीं दिखाना…’
वेणी ने भी सोच लिया की अब घर नहीं जायेंगे…जंगले में ही बैठे रहेंगे.. हे महाराज राजाधिराज जो तेरी मर्जी हो मुझे मंजूर है…
भगवान ने देखा की वेणी ने तो मुझे अपना आपा दे दिया…भगवान राज पुरुष हो कर संध्या होने से पहेले वेणी के घर पहुंचे…बैलगाड़ी में सब माल लबालब लाद दिया..राजवी पुरुष बन कर पूछने लगे, ‘पंडित वेणी जी का घर कहाँ है?’
वेणी की पत्नी दौड़ती हुयी आई, बोली, ‘ये घर है वेणी जी का..’
राजवी पुरुष बोला, ‘लो.. महाराज जी ने ये भेजा है…अनाज, आटे के बोरे, शिधा सामान और कुछ रुपये पैसे कपडे है..पंडित जी कथा पूरी होने के बाद ही आयेंगे..’
पत्नी ने सोचा की अरेरे! मेरे पति तो बोल रहे थे की राजा खूब रुपये पैसे देंगे , अन्न धन खूब आयेंगे… मैं कैसी अभागी की उन को घर में मुंह नहीं दिखाना बोली..

वेणी की पत्नी राजवी पुरुष को बोली, ‘मेरे पंडित जी को बोले की, मुझे अभागिन को दर्शन देने की कृपा करे, मेरा उन के चरणों में प्रणाम कहो..’

वो ही भगवान जंगल में वेणी के पास पहुंचे, उस को समझाए…बोले.. घर जाओ, रात हो गयी..बच्चो की माँ का दिल है..बच्चे भूखे तिलमिलाते तो सुनाती है.. अब नहीं सुनाएगी…तुम जिस राजाधिराज को पुकार रहे हो उस ने तुम्हारी पुकार सुन कर घर में अन्न धन पहुंचा दिया है…जाओ , घर जाओ..’
वेणी ने पूछा,’तुम कौन हो?’
बोले, ‘.. वो ही राजाधिराज का राजवी आदमी हूँ..वो ही दे आया तुम्हारे घर अन्न धन..वेणी तुम अब घर जाओ..’
राजवी पुरुष अंतर्धान हो गया!!

वेणी ब्राम्हण 4 दिन पुकारा वो दयालु ईश्वर प्रगट हो गया….. जिस ने जनमते ही माँ के शरीर में दूध बना दिया था वो ही बैलगाडियाँ भर के बच्चो को और पत्नी को अन्न धन पहुंचा के आया ..ऐसी मजूरी तो महाराजा भी नहीं देंगे… हे प्रभु!कैसा परम पिता है तू!!
वेणी ब्राम्हण घर तो गए लेकिन घर में मन टिका नहीं.. लोग आदर करने लगे.. भगवान की भक्ति ऐसी है की भाग्य के कुअंक मिटने लगे…भगवान की भक्ति, भगवान पे भरोसा और अपना पुरुषार्थ भगवान से मिला देता है… आलसी हो के ये ना देखे की भगवान आते की नहीं ऐसी परीक्षा ना करे.. :)

वेणी ब्राम्हण की कैसी भक्ति होगी की इतना लाचार , मोहताज , भूखा था फिर भी भगवान से उस की प्रीति मांग रहा था…तो भगवान ने कुछ देने में कमी नहीं रखी…इसलिए भागवत में कहा है की जो मनुष्य कर सकता है वो सुर असुर भी नहीं कर सकते..

लुधियाना के समिति वाले चाहते थे की सत्संग स्थली शहर के मैदान में हो…लेकिन वो दयालु प्रभु जानता था की 4 ,५, ६ तीनो दिन बारिश आनेवाली है तो सत्संग स्थली आश्रम में ही बना दिया…कितना ख़याल रखता है वो सर्जनहार ! यहाँ आज सुबह ४-5 बजे ध्यान आदि कराया… काढ़ा बनवाया ….आयुर्वेदिक चाय पिलवायी… मैदान में ऐसा लाभ नहीं होता..

हम सत स्वरुप भगवान में गोता मार के बोलते तो सत्संग हो जाता .. करोडो पाप ताप निकल जाते सत्संग सुनने से..

संत के वचनों से ब्राम्हण वेणी भी समझ गए की भजनीय तो भगवान है… अब तो ह्रदय पूर्वक भगवान के रंग में रंगने लग गए…. भगवान ही सार दिखता है बाकि सब अ-सार दिखता है.. भगवान के भजन की मेहनत वेणी को फल गयी..

धीरे धीरे वेणी का मन ध्यान में विश्रांति पाने लगा ..आप का मन भगवान में शांत हो जाये और संकल्प ना फले ये संभव ही नहीं..

‘मैं परेशान हूँ’ ये बेवकूफी का नाम है! जितना बेवकुफ उतनी दुःख परेशानियाँ ज्यादा.. समझदारी है तो एक टाइम भोजन नहीं तो भी सुखी रहे सकता है… शुकदेव जी का लोग अपमान करते, तो भी संतुष्ट थे…

प्रभु को अपना मानोगे और अपने को प्रभु का मानोगे तो नासमझी छूटती जायेगी.. दुःख हटता जायेगा..

सुख सुविधा चाहोगे तो मिल जाएगी लेकिन सुख सुविधा से दुःख दबता और समय पाकर कई गुना बढ़ चढ़ के आता है…भगवान से सुख सुविधा के लिए बेईमानीवाली प्रीति कर के सुखी होना चाहते तो और दुःख पाते..

वेणी ने सुख स्वरुप भगवान का रस पाया..वेणी की वाणी गुरू ग्रन्थ साहिब में दर्ज है…वेणी बोलते है की , भक्ति के नाम पर पूजा, पाठ , जनेऊ, मंत्र , तंत्र करोगे लेकिन नजर दान दक्षिणा पर रहेती ऐसे धर्म को धंदा बना बैठे पंडितो को वेणी जी ने खूब कोसा है..पंडित वेणी का वचन है.. कहे वेणी गुरू मुख ध्ययिये… बिनु सदगुरू बाट नहीं मिलेगी.. …

वेणी जैसा लाचार मोहताज आत्महत्या करनेवाला ब्राम्हण का जीवन संत के दर्शन सत्संग से ऐसा बदल गया की गुरू ग्रन्थ साहिब में उन के वचन दर्ज हुए.. मनुष्य को कभी हौसला नहीं खोना चाहिए..

वेणी की बात तो तब की थी अभी भी ऐसा ही है!राजू भैय्या और सुरेश बापजी उदाहरण सब के सामने है… :) सत्संग कैसे मनुष्य को ऊँचा उठा देता है..
(राजू नाम का एक लड़का भावनगर से भाग कर अमदाबाद आया..कर्जे के बोज से उस को कही का नहीं रखा था.. कांकरिया तालाब में जान देने गया…पोस्टर देखा की संत का शिबिर है…सोचा की संत का दर्शन कर के मरुंगा..सत्संग में आया..अब आगरा के गुरु कुल का अध्यक्ष है… कई आश्रमों के प्रभारी है ..आगरा के आश्रम का वो ही सर्वे सर्वा है ..खाली पोस्टर देखे तो जीवन बदल गया .. आगरा में गुरुकुल शुरू किया , बी. ए. बी. एड . कोलेज शुरू किया ..100 % रिजल्ट आता है ….
27 साल पहेले सुरेश बापजी की माँ बापूजी के पास आई थी ..पति दारुबाज और सुरेश पिक्चरबाज परेशां हो कर बोली की या तो सुरेश मर जाये या मैं मर जाऊ…पूज्य बापूजी बोले ना तुम मरो ना सुरेश मरेगा…तो बोली बाबा ले जाओ अपने साथ …अब वो ही सुरेश ‘बापजी’ हो के चमचम चमक रहे!)

ऐसी पढाई को धिक्कार है जो मुसीबतो में डाल दे…एम्. बी. ए. में क्या सिखाया जाता की गंजे आदमी को कंघी बेचिए और नंगे आदमी को कपडे धोने का साबुन बेचना है.. ये एम्. बी. ए. का प्रिन्सिपल है .. दुसरे को खड्डे में डाल कर आप ऊपर चढ़ जाओ ये सिध्दांत बहोत दुःख देगा..
फिर जॉब नहीं मिलेगी तो आत्महत्या करेंगे …जॉब मिली तो भी शांति नहीं.. दारू पिते .. पान मसाला खाते..अपनी पत्नी होते हुए भी दूसरी लवरिया करते और अपनी सेहत और जिंदगी खराब करते …माँ बाप के साथ पत्नी और बच्चे के साथ जुलुम करते …धिक्कार है ऐसे पढाई को जो जिंदगी का और मानवता का गला घोट दे ..ये कैसी पढाई?..

इस से गवार अच्छा… इमानदारी से पेश आता … परिवार का पालन करता.. सच्चाई से जीता है तो आखिर संत के द्वार तो पहुँच जाता है.. जो धोकादारी कर के मजा लो करते वो ही मजा फिर सजा बन जाती ..

पृथ्वी रूक जाए ! मुनि विश्वामित्र और वशिष्ट जी महाराज की कथा

मुनि विश्वामित्र और वशिष्ट जी महाराज समकालिन ऋषि थे.. वशिष्ट महाराज का स्वागत करते समय विश्वामित्र मुनि ने अपनी 60 हजार वर्ष की तपस्या के फल से किया…कुछ समय बाद विश्वामित्र जी वशिष्ठ जी के मेहमान हुए..तो वशिष्ठ महाराज ने उन का स्वागत 2 घडी ब्रम्हज्ञान के पुण्य से किया…मुनि विश्वामित्र बोले, ‘वशिष्ठ 2 घडी ब्रम्ह ज्ञान के सत्संग का पुण्य दिया, मैंने तो 60 हजार वर्ष की तपस्या का फल दिया..’
वशिष्ठ जी महाराज बोले, ‘2 घडी ब्रम्हज्ञान का सत्संग ऊँचा है…60 हजार वर्ष कोई तपस्या करे, तपस्या अच्छी है ; लेकिन ब्रम्हज्ञान अनंत ब्रम्हांड नायक से मिलाता तो ऊँचे में ऊँचा है..’
‘क्या आप का है तो ऊँचा.. हमारी चीज नीची हो गयी..ये बात समझ में नहीं आये..’ विश्वामित्र मुनि बोल पड़े..
वशिष्ठ महाराज बोले, ‘देखो महाराज! आप का इस बात का समाधान तो होना ही चाहिए..आप के पास योग शक्ति है,मेरे पास भी है..हम दोनों भगवान ब्रम्हाजी के पास चलेंगे…इस बात के निर्णायक भगवान ब्रम्हाजी ही होंगे…हम आपस में नहीं उलझे..’
दोनों मुनिवर योगशक्ति से ब्रम्ह् लोक में आये..ब्रम्हाजी को मुख्य वचन कहे..ब्रम्हाजी को बताये की कैसे आये… 60 हजार वर्ष तपस्या का फल बड़ा है या 2 घडी निष्ठावान महापुरुष का सत्संग का पुण्य बड़ा है आप ही निर्णय दीजिये..ब्रम्हाजी से प्रार्थना किये.

विश्वामित्र जी के भाव जान कर वशिष्ठ जी के पक्ष में निर्णय देंगे तो अन्याय होगा..विश्वामित्र जी उद्विग्न हो जायेंगे..
इस से सिख मिलती की निर्णय देते तो ऐसा हो की दोनों पक्ष के हीत में और दोनों पक्ष को स्वीकार हो..
ब्रम्हाजी ने कहा, ‘मैं सृष्टि बनाने के उधेड़ बुन में लगा रहेता हूँ..जब मन शांत होगा तभी तो आप जैसे महा पुरुषों का विचार कर सकेंगे..आप ऐसा करो की आप विष्णु जी के पास चले जाओ…’
दोनों गए विष्णु भगवान के पास… आप का सवाल बहोत ऊँचा है, गंभीर है …कोई सम-वान ही इस का समाधान दे सकता है…हम तो भक्तो के पालन पोषण रक्षा में विरत हो जाते, कभी विषम हो जाते…कभी राहू केतु के कारण मोहिनी अवतार लेते तो कभी ‘हाय सीता’ कर के राम अवतार करते..तो कभी श्रीकृष्ण बन कर ‘नरो व कुंजरोवा करते-कराते.. तो हमारा निर्णय सम कैसे होगा? जो सदा समाधी में रहेते उन शिव जी के पास आप जाओ!’

शिव जी ने प्रश्न सुना ..शिव जी शांत हुए…ब्रम्ह ज्ञान तो सर्वो परी है ..वशिष्ठ जी इस अनुभूति के धनि है, लेकिन विश्वामित्र कच्चे है.. तपस्या का सामर्थ्य है.. लेकिन अधिष्ठान में एकाग्र होने का सामर्थ्य अलग होता है ..तपस्या के बल से वरदान देने की ताकद आती लेकिन ब्रम्हज्ञान की शक्ति अलग होती है..
जैसे ब्रम्हाजी ने चावल बनाए, गेंहू बनाए ऐसे विश्वामित्र ने मका बना दिया ऐसी तपस्या का सामर्थ्य है ..ऐसे विश्वामित्र जी को तपस्या से अधिक महत्त्व ब्रम्हज्ञान के सत्संग का बोलूँगा तो वे चीड़ जायेंगे… अगर विश्वामित्र के पक्ष में निर्णय देते तो ब्रम्हज्ञान की बात का अनादर करने का पाप लगता है..शिव जी बोले, ‘आप ब्रम्हा जी, विष्णु जी की कथा सुन के आये.. ऐसे ही हम तो कभी देव दानव विष पान में कभी कोई भक्त वरदान माँगते तो हम तथास्तु कहे डालते तो भस्मासुर बन के पीछे पड़ते …आप ऐसा करो की नेति नेति करते जो शेष है उस के पास जाओ..जो संकल्प मात्र से अपने सर पर पृथ्वी को धारण किये है …शेष नाग के सत्व गुण, त्रि-गुणातीत के कारण ही पृथ्वी टिकी है उस शेष नाग के पास जाओ…
..दोनों गए शेष नाग के पास …ब्रम्हा देव , विष्णु भगवान , शिव जी तीनो देवता का देवत्व जिस चैत्यन्य विभु से है उस में विश्रांति पानेवाले ब्रम्हज्ञानी के 2 घडी का सत्संग का महत्त्व शेष नाग जी जानते थे ..लेकिन विश्वामित्र जी जानते नहीं तो तपस्या के बल से मुझे श्राप दे देंगे…
बोले, ‘देखो मुनिवर हम पृथ्वी को धारण करते है तो थक गया हूँ..तपस्या के बल से पृथ्वी को रोको तो आराम से निर्णय दूंगा..’

विश्वामित्र जी बोले, ’60 वर्ष की तपस्या का फल देता हूँ , हे पृथ्वी ! तुम वैसे ही टिक जाओ!’
..पृथ्वी तो कोपायमान हो गयी …

तो शेष जी ने वशिष्ठ जी को कहा की, ‘महाराज आप कुछ कहिये’
तो वशिष्ठ जी बोले, ‘जो सतचित आनंद स्वरुप परम तत्व है , उस में मेरा चित्त विश्रांति पाता है, उस परम तत्व के ही बल से शेष आप को धारण करते है..उन्ही की सत्ता से हे पृथ्वी माँ आप टिकी हो और टिकोगी … ऐसी परम सत्ता से एकाकार होकर किये हुए ब्रम्हज्ञान के सत्संग के 2 घडी प्रभाव से हे पृथ्वी माँ आप रुक जाओ!’

और पृथ्वी रुक गयी…!!
शेष नाग जी बोले निर्णय तो पृथ्वी ने दिया…अब क्या निर्णय करेंगे?

ऐसे आप के अन्दर ज्योति स्वरुप जो सब कुछ जानता है, सब कुछ बदल जाता फिर भी शेष रहेता है वो ही आत्मा परमात्मा है..उस का ज्ञान, उस की प्रीति, उस में विश्रांति पाओ!

..ये प्रसंग किसी को छोटा बड़ा कहेलाने के लिए नहीं है…आप उस विश्वेश की सत्ता में आओ इसलिए कहा है… प्रिय से प्रिय धन, पत्नी, प्रिय से प्रिय हीरे जवारात छोड़ के आप जब नींद में जाते हो तब आराम चाहते वो कहा से मिलता? शेष में से मिलता है! नींद चाहते तो पति पत्नी को , धन जेवरात आराम नहीं है ..वो छोड़ के जिस शेष में जाते वो शेष ही सब कुछ है!!
वो ही गोविन्द है जो इन्द्रियों में विचरण करता है..गोपाल है-आप सोते तो इन्द्रियों को पुष्ट करता है गो माने इन्द्रियों का पालन करता है.. वो ही राधा रमण है…राधा शब्द को उलटा करो तो धारा – वृत्तियों की धाराओं में जो चैत्यन्य स्वरुप स्पंदन है..जिस से विचार उठते, उठ उठ के चले जाते.. फिर भी जो शेष रहेता वो है रमण है…जिव भी वो ही है!

वो कौन है जिस की सत्ता से आँखे टिकती है… जिस की सत्ता से देखा जाता वो ही तो परमात्मा है..मर जाते तो कोई आकृति नहीं रहेती..काल के गाल में समा जाते…लेकिन काल के जो काल है उस के साथ का अमर सम्बन्ध जान लो..जो बनती बिगड़ती वो तो आकृति है..बुलबुला, झाग, तरंग अगर ‘मै’ पानी हूँ ऐसा जाने तो ‘तुम’ समुद्र हो!

जिस की सत्ता से वाणी स्फुरित होती वह तुम्हारा आत्मा तुम्हारा कभी साथ नहीं छोड़ता.. वह भगवान ना दूर है, ना दुर्लभ है..

ना दुरे ना दुर्लभ! ..वह दुरगम भी नहीं!! हजीरा हाजिर है!!

आध सत, जुगात सत, नानक हो से भी सत
ऐसा पूरा प्रभु आराधिये

ज्ञान के अभाव में वि-कल्पनाओं में मारे जाते..शादी हो जाए तो सुखी हो जाऊ, बड़ी कोठी हो जाये तो सुखी हो जाऊ, मित्र मिले तो सुखी हो जाऊ, गहने मिले तो सुखी हो जाऊ ..ऐसे करते कई जिन्दगिया तबाह हो गयी… जिन के पास नोकरी, गहने, कोठिया है वो भी दुखी है…अंध कूप में खदबदा रहे है.. उस आत्म देव को जानो …ब्रम्ह ज्ञान को समझो…ब्रम्हज्ञान का सत्संग सुनो…

ॐ शांति

सदगुरुदेव जी भगवान की महा जयजयकार जय हो!!!!
गलतियों के लिए प्रभुजी क्षमा करे…