2.8.10

आत्मसंयम से शक्ति विकास

15 वर्ष का एक नटखट किशोर था। वह बड़ा ही शैतान था। बात-बात पर गुस्सा हो जाना, झगड़ पड़ना यह उसकी आदत ही थी।
एक बार वह अपने मित्रों के साथ एक बारात में गया। वहाँ भोजन बनाने में कुछ देर हो गयी उसे सख्त भूख लग रही थी। जी मसोलकर वह बैठा हुआ था पर अंदर तो गुस्से का गुबार उठ रहा था। वह भूख से तिलमिलाया और स्वागत कर्ताओं पर बरस पड़ाः "इतनी देर हो गयी, अभी तक तुम्हारा भोजन ही तैयार नहीं हुआ है !"
उस ओर भी था कोई सवा सेर, बोलाः "भीख माँगना तो तुम्हारा काम है ही, गाँव में से माँगकर खा लो। यहाँ ज्यादा धाँस मत दिखाओ।"
उस किशोर को और गुस्सा आया। बात कहा सुनी से हाथापाई तक पहुँची और किशोर की अच्छी मरम्मत हुई। पिट-पिटकर वह अपने गाँव लौट आया। उसके कपड़ों की हालत और रूआँसा चेहरा देखकर उसके पिताजी सारी बात समझ गये, बाकी की जानकारी साथ गये लोगों ने दे दी।
पिता जी ने उसे सांत्वना देकर भोजन कराया और आराम करने भेज दिया। वह दो घंटे बाद सोकर उठा तो शांत था।
पिता जी ने प्यार से बुलाकर कहाः "बेटा ! तुम अपने अंदर झाँककर देखो कि अपराध किसका है ? तुम हरेक से लड़ते झगड़ते रहते हो। कोई भी व्यक्ति तुमसे प्रसन्न नहीं है। बात-बात में तुम उत्तेजित हो जाते हो। अपनी प्रकृति के अनुसार अवश्य तुम्हारी वहाँ भी किसी छोटी सी बात पर अनबन हो गयी होगी।"
वह किशोर बुद्धिमान तो था। वह उद्विग्न नहीं हुआ। उसे अपनी गलती पर ग्लानि हो रही थी। वह नम्रतापूर्वक प्रार्थना करते हुए बोलाः
"पिता जी ! कृपा करके इसका कोई उपाय बताइये ताकि मैं भी आपकी तरह शांत हो जाऊँ।"
पिता जी ने कहाः "बेटा ! तुम चैतन्यस्वरूप हो। शांति तो तुम्हारा जन्मसिद्ध अधिकार है। मनुष्य जब अपने आत्मस्वरूप को भूल जाता है तो बाह्य व आंतरिक कारणों के वशीभूत होकर अपना संतुलन खो बैठता है। बुद्धिमान मनुष्य कैसी भी परिस्थिति में सम रहता है। छोटे व्यक्ति छोटी-छोटी बातों पर खिन्न हो जाते हैं, चिढ़ जाते हैं और आवेश में आकर गलत कदम उठा लेते हैं।
ध्यायतो विषयन्पुंसः सङ्गस्तेषूपजायते।
सङ्गात्संजायते कामः कामात्क्रोधोऽभिजायते।
विषयों का चिंतन करने वाले पुरुष की उन विषयों में आसक्ति हो जाती है, आसक्ति से उन विषयों की कामना उत्पन्न होती है और कामना में विघ्न पड़ने से क्रोध उत्पन्न होता है।
(श्रीमद् भगवद गीताः 2.62)
इसलिए तुम अपनी इच्छाओं को नियंत्रण में रखो। इच्छा की पूर्ति न होने पर क्रोध आता है। यदि तुम न पूरी होने वाली कामनाओं से बच सकते हो तो तुम शांत रहोगे।
गीता का यह श्लोक उस बालक के हृदय पर मानो हमेशा हमेशा के लिए अंकित हो गया। उसने इसका गहन चिंतन-मनन किया। उसे जीवन का अनमोल सूत्र हाथ लग गया था। उसने उसे अपने जीवन में उतारा और अभ्यास किया। अब उसका क्रोधी स्वभाव शांत हो गया था। वह एक अच्छा बालक बन चुका था। एक-एक करके वह अपनी कमियों को खोज-खोज कर निकालता गया। भगवदध्यान और जप से उसकी दैवी शक्तियों का विकास हुआ और वही बालक आगे चलकर अवंतिका क्षेत्र में महात्मा शांतिगिरी नाम से प्रसिद्ध हुआ।
स्रोतः लोक कल्याण सेतु, अप्रैल 2010, पृष्ठ 6,13, अंक 145
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वीरांगना झलकारीबाई

पुराने जमाने में प्रारम्भ से ही बालक-बालिकाओं में निर्भयता एवं शूरता-वीरता के संस्कार डाले जाते थे लेकिन आज वैसा नहीं है। आज के माता-पिता, दादा-दादी और शिक्षकगण सभी को बच्चों में वीरता और पराक्रम के संस्कार भरने चाहिए ताकि वे छोटी-छोटी समस्याओं में घबरा न जायें, उद्विग्न होकर गलत कदम न उठायें।

पहले के जमाने में तो भाइयों में ही नहीं, बच्चियों, माताओं और बहनों में भी मर्दानगी के संस्कार भरे जाते थे। इसी कारण रानी लक्ष्मीबाई, गार्गी, मदालसा, जीजाबाई आदि अनेक महान नारी रत्न भारत देश को गौरवान्वित करते थे। इसी श्रृंखला में एक थी झलकारीबाई। जब वह छोटी बालिका थी तब की यह घटना है। एक शाम वह ईंधन के लिए सिर पर लकड़ियाँ लेकर जंगल से घर वापस लौट रही थी। अचानक उसे झाड़ियों में हलकी सी सरसराहट सुनायी पड़ी। एक कद्दावर चीता उस पर आक्रमण करने को तैयार था। चीते को अपने सामने पाकर वह घबरायी नहीं बल्कि उसका मुकाबला करने के लिए उसने भगवन्नाम व आत्मविश्वास का सहारा लिया। जैसे ही चीते ने छलाँग लगाकर उस पर आक्रमण किया, सावधानी से अपना बचाव करते हुए झलकारी ने चीते के मुँह पर लाठी का एक भरपूर प्रहार किया। जोरों की मार से चीता तिलमिला उठा, गुस्से से लाल-पीला होकर वह और फुर्ती से उस पर झपटा। झलकारी ने भी दुगने वेग से चीते पर तड़ातड़ कई प्रहार कर दिये। चीता दोबारा सँभल न सका, वहीं चित हो गया।

बचपन की इस साहसिक घटना से उसकी कीर्ति दूर दूर तक फैल गयी। आगे चलकर वह रानी लक्ष्मीबाई की महिला सेना में भर्ती हो गयी। उसका हौंसला देखकर रानी ने उसे अपनी महिला सेना का प्रमुख बना दिया।

समय बीतता गया, अंग्रेजों की पकड़ भारत पर मजबूत होती गयी। उन्होंने झाँसी पर भी आक्रमण कर दिया और किले की घेराबंदी कर दी। विपदा की इस घड़ी में झलकारी की स्वामीभक्ति ने रंग दिखाया। झलकारी ने रानी लक्ष्मीबाई का वेश धारण कर रानी को एक विश्वस्त सैनिक टुकड़ी के साथ किले से बाहर सुरक्षित निकाल दिया और अंग्रेजों को भुलावे में डालने के लिए स्वयं अंग्रेज छावनी में जाकर युद्ध करने लगी।

झलकारी हूबहू रानी लक्ष्मीबाई लग रही थी किंतु एक विलक्षण वीरांगना ऐसे ही आत्मसमर्पण कर दे, अंग्रेजों को विश्वास नहीं हो रहा था। गुप्तचरों द्वारा वास्तविकता का पता लगते ही अंग्रेज घुड़सवारों की सेना रानी लक्ष्मीबाई को पकड़ने के लिए रवाना कर दी गयी और झलकारीबाई को अंग्रेजों को गुमराह करने के जुर्म में गिरफ्तार कि लिया गया। झलकारीबाई की दिलेरी और स्वामीभक्ति की चर्चा सर्वत्र फैल गयी।

अंग्रेज न्यायाधीश ने जब झलकारी को उम्रकैद का दंड दिया तो उसने अंग्रेजी न्याय की खिल्ली उड़ाते हुए तुरंत झाँसी से लौट जाने का आदेश दिया। चिढ़े हुए अंग्रेज अफसरों ने बौखलाकर तुरंत उस पर फौजी मानहानि तथा बगावत का आरोप सिद्ध किया और देशभक्त वीरांगना झलकारीबाई को तोप के मुँह से बाँधकर उड़वा दिया गया। धन्य थी उसकी स्वामीभक्ति !

उस समय जीवन में निष्ठा का अत्यन्त महत्त्व था, आज की तरह लोग केवल रोटी, कपड़ा और मकान के लिए ही नहीं जीते थे। उनमें ईमानदारी, सच्चाई, स्वामीनिष्ठा और जिसका नमक खाया है उसके प्रति वफादारी का भाव कूट-कूटकर भरा होता था। लोग प्राण न्योछावर करके भी दिया हुआ वचन निभाते थे। उस आदर्श स्थिति को पुनः प्राप्त करने के लिए अब हमारा यह कर्तव्य है कि अपनी संस्कृति के नैतिक मूल्यों का सिंचन अपने बालकों व विद्यार्थियों में अवश्य करें।

स्रोतः लोक कल्याण सेतु, मई 2010, पृष्ठ संख्या 12,15 अंक 155

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स्वामी विज्ञानानंद

दो हथियार

स्वामी विज्ञानानंद नाम के एक संन्यासी थे। निर्भयता, सहजता, सरलता उनका स्वभाव था। एक बार वे हिमाचल प्रदेश के किसी गाँव में प्रवचन करने गये। प्रवचन करते-करते बहुत देर हो गयी महात्मा जी को सत्संग हेतु दूसरे गाँव में भी जाना था। उन्होंने जाने के लिए अपनी पोटली उठायी तो गाँव के मुखिया ने प्रार्थना करते हुए कहाः "बाबाजी ! जंगल का रास्ता है, अकेले मत जाइये। कुछ रक्षक साथ में भेज देता हूँ।"

बाबा जी ने मुखिया पर प्रेमभरी दृष्टि डालते हुए कहाः "बेटा ! सबका रक्षक जो है वह मेरा भी रक्षक है। वह अन्तर्यामी जब मेरे साथ है तो बाह्य रक्षकों की मुझे क्या आवश्यकता ! तुम्हारी इस सदभावना का मैं धन्यवाद करता हूँ।"

"बाबाजी ! आपके पास तो हथियार भी नहीं है, कुछ तो साथ में रखिये।"

"बेटा ! सबसे तेज दो हथियार तो मैं सदा अपने साथ ही रखता हूँ, फिर तीसरे की मुझे क्या जरूरत !"

बाबाजी की अटपटी बातें मुखिया की समझ में नहीं आ रही थीं।

बाबा जी समझाते हुए बोलेः भगवान का नाम और भगवान पर भरोसा – "ये दो मेरे सबसे तेज हथियार है, जो हर मुसीबत में कदम-कदम पर मेरा साथ देते आये हैं।"

बाबाजी के आगे मुखिया ने हाथ जोड़ते हुए माथा टेक दियाः "ठीक है बाबा ! जैसी आपकी मर्जी।"

बाबाजी ने अपनी पोटली उठायी, छाता हाथ में लिया और चल पड़े।

घंटे भर की यात्रा के बाद बाबाजी को थोड़ी थकान लगी। वे सुस्ताने के लिए कोई जगह ढूँढा रहे थे कि उन्हें सामने से एक भीमकाय काली छाया आती दिखायी दी। एक खतरनाक जंगली भालू बाबा की ओर तेजी से बढ़ रहा था। उसके तेज दाँत और पैने नाखून चमक रहे थे।

छिपने की कोई जगह नहीं और भागने का कोई रास्ता नहीं, ऊपर सीधी चढ़ाई, नीचे गहरी खाई ! बाबाजी ने नारायण.... नारायण.... नारायण... नारायण...कहा और अन्तर्यामी नारायण में तनिक शांत हुए। भालू और बाबाजी में थोड़ा ही फासला बचा था कि महात्मा जी की मति में भगवान ने प्रेरणा की। उन्होंने अपना काला छाता भालू के मुँह में ठीक सामने लाकर एक झटके से खोला।

छाता एक तो काला था, दूसरा वह खुला भी झटके के साथ। यूँ भी भालू काले कपड़े से घबराता है। उसे देखकर वह ऐसे घबराया मानो आकाश से सहसा कोई बला टपक पड़ी हो। छाते से डरकर उलटे पाँव वह ऐसे भागा कि पलटकर देखा तक नहीं। डर के मारे उसकी टट्टी निकलती जाती थी। उसकी यह बुरी हालत देखकर बाबाजी ठहाका मार कर हँस पड़े। उनके वे हँसी के ठहाके पहाड़ों से टकराकर पचासों ठहाकों में बदल गये। उसे सुनकर तो भालू और घबराया। वह और तेजी से भागा और नजरों से ओझल हो गया।

बाबा जी की आँखों से धन्यवाद के आँसू बह रहे थे और दोनों हाथ प्रार्थना की मुद्रा में जुड़े थे।

यह घटना बताती है कि जीवन की राह मे चाहे कैसी भी मुश्किल आ पड़े, धैर्य नहीं खोना चाहिए। जन्म से पहले ही जिसने दूध की व्यवस्था कर दी, जो प्राणों को गति देता है, हमारे हृदय को जो धड़कनें दे रहा है, वह प्यारा प्रभु हमारे साथ है, हमारे पास है, फिर भय और चिंता के लिए स्थान ही कहाँ ! भगवान का नाम लेकर उसके अर्थ में जो शांत होता है, जो सच्चा ईश्वर-विश्वासी है उसके कदम कैसी भी कठिन परिस्थिति में लड़खड़ाते नहीं। भगवत्कृपा से उसकी हर मुश्किल आसान हो जाती है।

मुश्किल आसान हो जाये इसलिए नहीं, परमात्मा के लिए ही परमात्मा में विश्रान्ति पायें। संतों महापुरुषों के सत्संग-सान्निध्य से परमात्मा के स्वरूप का सच्चा ज्ञान पाकर इसी जीवन में मुक्तता, पूर्णता का अनुभव कर लें। संतों की युक्ति पाकर परमात्मा के ज्ञान –ध्यान से अपने जीवन को महकायें, इसी में जीवन का साफल्य है।

स्रोतः लोक कल्याण सेतु, मई 2010, पृष्ठ संख्या 6,7 अंक 155

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सिद्ध संत महात्मा फलाहारी जी

पंजाब में एक सिद्ध संत हो गये योगिराज फलाहारी जी। आपका जन्म संवत् 1924 में लुधियाना के सतलुज नदी पर बसे शेरपुर (बड़ा) नामक गाँव में हुआ था। आप संत कैसे बने और आपको जीवन का परम लक्ष्य आत्म-साक्षात्कार कैसे प्राप्त हुआ, यह घटना बड़ी रोचक है।

बाईस साल की युवावस्था में घर छोड़कर भगवत्प्राप्ति की तीव्र प्यास हृदय में लिए कामिल (पूर्ण) गुरु की तलाश में आप गली-गली, गाँव-गाँव पागलों की तरह घूम रहे थे। किसी ने बताया की भरोवाल (लुधियाना) में एक महापुरुष हरिदास जी पधारे हुए हैं। वहाँ पहुँचते ही आप हरिदास जी के श्रीचरणों में दंडवत् पड़ गये। आँखों से अविरल अश्रुधार बह रही थी, मानों वर्षों से बिछुड़ा हुआ पुत्र माँ से मिला हो। बाबा हरिदासजी दोनों वरदहस्त इस भाग्यशाली युवक के मस्तक पर रख दिये।

उस समय इनके शरीर से चट चट की ऐसी ध्वनि निकल रही थी, मानों कोई उंगलियाँ चटका रहा हो। ध्वनि बंद होते ही इनकी समाधि लग गयी। आधे घंटे के पश्चात जब नेत्र खुले तो नेत्रों में एक प्रकार की मादकता थी। मुरझाया चेहरा खिल उठा था, जिससे पता चलता थ कि अनादि-अनंत व्याथाओं का नितांत अंत हो चुका है और हृदय किसी लोकोत्तर आनंद में निमग्न है।

बाबाजी के अन्य शिष्यगण ईर्ष्यापूर्ण नेत्रों से घूर-घूरकर देख रहे थे। एक से रहा नहीं गया, वह बोल ही पड़ाः "बाबा जी ! हम लोगों को बारह-बारह वर्ष आपकी सेवा करते हो गये, कुछ न मिला। अभी जो छोकरा चलता-चलता आया, उस पर बिना जान-पहचान के आपने इतनी दया कर दी, इसका कारण मैं नहीं समझा।"

बाबा हरिदासजी मुस्कराकर बोलेः "संतों ! मैं तो लोहा हूँ। कोई भी चुम्बक बनकर अपनी ओर खींच सकता है, आज को हो या कल का। दूसरी बात यह है कि भिक्षुक और डाकू दोनों धनाभिलाषी हैं। एक को मालिक की प्रसन्नता पर निर्भर रहना होता है और दूसरे के सामने मालिक को विवश होकर सब कुछ खोलकर रख देना पड़ता है। तुम लोग भिक्षुक हो यह डाकू। मैं क्या करूँ ? इसकी अंतरात्मा उत्तम अधिकार की उस कक्षा में पहुँच चुकी है, जहाँ पर परमेश्वर का भी कुछ वश नहीं चलता।"

बाबा हरिदासजी उस युवक से बोलेः "बेटा ! तुम्हारी आंतरिक व्यथाओं को देख मुझसे न रहा गया, यथाशक्ति मैंने उपचार किया। अब कहो, कहाँ से आ रहे हो ? कहाँ जाना है ?"

युवकः "महाराज ! मैं आया हूँ संसार वनदावाग्नि की धधकती ज्वालाओं में से। जाना बस श्रीचरणों तक था, पहुँच गया। अब यहाँ से मुझे कहीं जाना नहीं है। आपका शिष्य बनकर अपने जीवन को सफल करूँगा।"

बाबाजीः "मैं शिष्य नहीं बनाता।"

युवकः "यदि आप शिष्य नहीं बनाते तो ये सब संत कौन हैं ?"

बाबाजीः "ये सब मेरे गुरु हैं।"

एक शिष्य चिढ़कर बोलाः "बाबाजी ! माँगने वालों को यदि कुछ देते नहीं तो न सही, पर पत्थर क्यों मारते हो !"

बाबा हरिदास मंद-मंद मुस्करा उठे।

अपनी श्रेष्ठता, वरिष्ठता का अभिमान रखने वाले दूसरे शिष्य पीछे रह गये और परमात्मप्राप्ति की तीव्र पिपासावाला यह नवयुवक बाबा हरिदास की कृपा पचाकर धन्य-धन्य हो गया। यही युवक आगे चल कर महात्मा फलाहारीजी के नाम से प्रख्यात हुआ।

भगवत्प्राप्ति की तीव्र तड़प व तत्परता हो और समर्थ सदगुरु का आश्रय मिल जाय तो भगवत्प्राप्ति दूर नहीं, दुर्लभ नहीं।

स्रोतः लोक कल्याण सेतु, जून 2010, पृष्ठ संख्या 9,11 अंक 156

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गुरुभक्त रसिक मुरारीजी

गुरुभक्त रसिक मुरारीजी

रसिकमुरारी नाम के एक महात्मा हो गये। वे बड़े ही संतसेवी और गुरुभक्त थे। एक बार उनके यहाँ साधुओं का भंडारा था। बहुत से साधु-संत पधारे हुए थे। रसिकजी ने संतों का चरणामृत मँगवाया और बड़े अहोभाव से, श्रद्धा-भक्ति से पान किया, पर आज उन्हें पहले जैसी तृप्ति न हुई।

चरणामृत लाने वाले सेवक को बुलाकर उन्होंने कहाः "ऐसा लगता है कि मेरे प्राणप्यारे प्रभु मेरे समीप हैं पर मैं उनके दर्शन नहीं कर पा रहा। चरणामृत में भी आज वह अमृतमय स्वाद नहीं आया। जरूर हमसे कोई चूक हुई है।"

रसिकजी संतों के निवास पर गये। एक-एक करके सभी संतों को उन्होंने वंदन किया और क्षमा प्रार्थना की, पर अब भी उनके हृदय का अभाव गया नहीं।

संतों के निवास से काफी दूर वृक्ष की छाया में एक कोढ़ी साधु बैठे थे। शरीर भले कोढ़ से ग्रस्त था पर उनके चेहरे पर अदभुत तेज विद्यमान था। उन पर दृष्टि जाते ही रसिकजी उसी ओर भागे। दंडवत् कर उनके चरणों में गिर पड़े। बार-बार उठते, फिर दंडवत् करते।

"प्रभो ! आप स्वयं मेरे द्वार पर आये, मैं पहचान न सका। मुझे अपनी शरण में लीजिए।

संत उनके मस्तक पर स्नेह से हाथ फेरते हुए बोलेः "बेटा ! संतों के प्रति तुम्हारी श्रद्धा-भक्ति अदभुत है। भगवान तुम पर अवश्य कृपा करेंगे। यहाँ से थोड़ी दूरी पर एक ब्रह्मनिष्ठ महात्मा रहते हैं, वे ही तुम्हारे गुरु हैं। बेटा ! अनंत जन्मों की तपस्या का, अनंत जन्मों की साधनाओं का साफल्य इसी में है कि किसी हयात ब्रह्मनिष्ठ महात्मा की चरण-शरण मिल जाय। तुम्हारे जीवन की वह शुभ घड़ी आ गयी है।"

दूसरे लोग जिन्हें देखकर नाक सिकोड़ रहे थे, रसिक जी ने बड़े प्रेम से उन संत का चरणामृत लिया और तब उनके हृदय को तृप्ति मिली।

सदगुरु से दीक्षा पाकर रसिकमुरारी के जीवन का रूपांतरण हो गया। भगवन्नाम जप व गुरु की बतायी साधना-पद्धति से वे तीव्र गति से साधन-मार्ग में आगे बढ़ने लगे।

अपने गुरुदेव के प्रति रसिक जी की कैसी अटूट निष्ठा व भक्तिभाव था, इससे जुड़ा उनके जीवन का एक मधुर प्रसंग उल्लेखनीय है।

रसिकजी के गुरुदेव को एक राजा ने आग्रहपूर्वक चार गाँव भेंट किये ताकि उनके राजस्व से साधु संतों की सेवा भली प्रकार होती रहे। परंतु कुछ समय बाद एक लोभी ठेकेदार ने राजा को पटाकर वे चार गाँव खरीद लिये। संतों की सेवा में विघ्न उपस्थित देख गुरु महाराज ने रसिक जी को बुलावा भेजा। जिस समय उनके पास संदेशवाहक पहुँचा उस समय वे भोजन कर रहे थे। समाचार मिलते ही बिना हाथ धोये उसी अवस्था में चल पड़े। गुरु ने उनको उक्त चार गाँव ठेकेदार से छुड़ाने की आज्ञा दी। उधर जब ठेकेदार को पता चला कि रसिकमुरारी गाँव छुड़ाने आ रहे हैं तो उसने उनके मार्ग में एक मतवाला हाथी छुड़वा दिया ताकि वह उन्हें कुचलकर मार डाले। रसिकजी को ठेकेदार की बदनीयत पता चल चुकी थी। वे बोलेः 'कई जन्मों में कई बार यह शरीर मर चुका, फिर भी जन्म-मरण का अंत नहीं आया। इस बार यह नाशवान शरीर यदि गुरुदेव के काम आ रहा है तो मेरा अहोभाग्य है !' ऐसा कहकर वे आगे बढ़ने लगे। सभी शिष्य घबराये और रसिकजी से मार्ग छोड़ देने का आग्रह करने लगे। रसिकजी ने कहाः 'आप लोगों ने निष्ठापूर्वक उपदेश नहीं लिया है। अगर तुम्हें शरीर का मोह है तो गले में व्यर्थ ही यह माला क्यों पहन रखी है ?'

रसिकजी की बात सुनकर कुछ शिष्य जिन्हें जान प्यारी थी माला उतारकर आसपास छुप गये और निष्ठावान शिष्य रसिकजी के साथ ही डटे रहे। इधर से विशालकाय मतवाला हाथी बढ़ता चला आ रहा था तो इधर रसिकमुरारि गुरुनाम का जप करते निर्भयता से बढ़े चले जा रहे थे। 'अब क्या होगा', यह सोच कायर शिष्यों के हृदय भय से काँप रहे थे और निष्ठावान शिष्य अपने सदभाग्य की मनोमन सराहना कर रहे थे।

जाको राखें साइयाँ, मार सके ना कोय।

बाल न बाँका करि सकै, चाहे जग बैरी होय।।

रसिकजी के समीप आकर वह मतवाला हाथी मानो पालतू कुत्ता बन गया। रसिक जी की दृष्टि पड़ते ही उस तामसी जीव में भी अष्टसात्त्विक भावों का संचार हो गया। उसके नेत्रों से जल बहने लगा और वह हाथी रसिकजी के चरणों में शीश झुकाकर बैठ गया। रसिकजी ने शिष्यों की उतारी हुई मालाएँ हाथी को पहना दीं और उसके कान में 'रामकृष्ण नारायण' मंत्र सुनाकर उसे मंत्रदीक्षा भी दे दी। उसका मतवालापन शांत हो गया। जो बेचारे माला छोड़कर छुप गये थे वे भी अब अपनी जगह से निकल आये और रसिकजी के चरणों में पड़कर क्षमा माँगी व पुनः शरणागत हुए। जब ठेकेदार को यह समाचार मिला तो वह नँगे पाँव भागा-भागा आया और रसिकजी से क्षमा-याचना करने लगा। उसने चारों गाँवों के दस्तावेज और वह हाथी भी रसिकजी को भेंट कर दिया। गुरुसेवा में सफल होकर जब वे अपने गुरुदेव के पास पहुँचे तो गुरु ने परम संतुष्ट होकर उन्हें हृदय से लगा लिया। गुरु शिष्य से संतुष्ट हो जायें, इसके आगे तीनों लोक का वैभव भी तुच्छ हैं, अष्टसिद्धियाँ, नवनिधियाँ भी फीकी हैं। भगवान शिव माता पार्वती जी से कहते हैं-क

आकल्पजन्मकोटीनां यज्ञव्रततपः क्रियाः।

ताः सर्वाः सफला देवि गुरुसंतोषमात्रतः।।

'हे देवी ! कल्पपर्यन्त के, करोड़ों जन्मों के यज्ञ, व्रत, तप और शास्त्रोक्त क्रियाएँ – ये सब गुरुदेव के संतोषमात्र से सफल हो जाते हैं।'

स्रोतः लोक कल्याण सेतु, जून 2010, पृष्ठ संख्या 5,6,7 अंक 156

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स्वामी रामकृष्ण परमहंस और रसिक मेहतर

तेरे भीतर नारायण है

दक्षिणेश्वर (कोलकाता) में स्वामी रामकृष्ण परमहंस किसी मार्ग से जा रहे थे। उन्हें देखकर झाड़ू लगानेवाले रसिक मेहतर ने उन्हें दण्डवत् प्रणाम किया। ठाकुर ने प्रसन्नमुख से पूछाः "क्यों रे रसिक ! कुशल तो है ?"

"बाबा ! हमारी जाति हीन, हमारा कर्म हीन, हमारा क्या कुशल-मंगल !" हाथ जोड़ कर रसिक ने उत्तर दिया।

ठाकुर तेजयुक्त स्वर में बोलेः "हीन जाति कहाँ ! तेरे भीतर नारायण हैं, तू स्वयं को नहीं जान पाया इसलिए हीनता का अनुभव कर रहा है।"

"किंतु कर्म तो हीन है।" रसिक ने कहा।

"क्या कह रहा है ! क्या कभी कोई कर्म हीन होता है !" फिर ठाकुर जोर देकर बोलेः "यहाँ माँ का दरबार है, राधाकांत, द्वादश शिव का दरबार है, कितने साधु-संतों का यहाँ आना-जाना लगा रहता है, उनके चरणों की धूल चारों ओर फैली हुई है। झाड़ू लगाकर तू वही धूल अपने शरीर पर लगा रहा है। कितना पवित्र कर्म है ! कितने भाग्य से यह सब तुझे मिल रहा है !"

रसिक आश्वस्त होकर बोलाः "बाबा ! मैं मूर्ख हूँ, बातों में आपसे पार नहीं पा सकता। मैं तो केवल एक बात आपसे पूछना चाहता हूँ कि क्या मेरी मुक्ति होगी ?"

ठाकुर चलते-चलते स्वाभाविक बोलेः "हाँ होगी, अंतिम समय होगी किंतु घर के आँगन में तुलसी का पौधा लगाना और संध्या के समय हरिनाम का जप करना।"

संत तो परम हितकारी होते हैं। वे जो कुछ कहें, उसका पालन करने के लिए तत्परता से लग जाना चाहिए। इसी में हमारा परम कल्याण है। महापुरुष की बात को टालना नहीं चाहिए।

रसिक ने ठाकुर जी की आज्ञा समझकर अपने घर के आँगन में तुलसी का पौधा लगा लिया और रोज बच्चे-बूढ़ों सहित संध्याकाल में हरिनाम का जप-कीर्तन करने लगा।

कुछ वर्ष पश्चात रसिक की तबीयत अचानक खराब हो गयी। उसे तेज बुखार था पर उसने जिद पकड़ी कि दवा नहीं खाऊँगा। बुखार ने और जोर पकड़ा। एक दिन भरी दोपहर को उसने पत्नी को बुलाया और कहाः

"मुझे तुलसी के पास ले चलो, पुत्रों को बुलाओ। अब मेरा शरीर जाने वाला है।"

बच्चे जल्दी उसे तुलसी के पास ले गये। वहाँ रसिक तुलसी की माला से जप करने लगा। जप करते-करते पता नहीं उसे कौन सा दृश्य दिखने लगा। उसके मुखमंडल पर तृप्ति, संतुष्टि का एक विलक्षण भाव झलकने लगा।

अचानक वह बोल उठाः "बाबा आये हो, आहा ! कितने सुन्दर, कितने सुन्दर.... बाबा ! आपके दर्शन से कितनी शांति मिल रही है ! आपका दर्शन पाकर मैं धन्य हो गया ! बाबा बाबा...." न कहीं साँस खिंची, न हिचकी आयी। बोलते-बोलते रसिक ने गम्भीर शांति से आँखें मूँद लीं और सदा के लिए परमात्मधाम में प्रवेश पा लिया।

भगवत्प्राप्त महापुरुष पृथ्वी पर के साक्षात कल्पतरू हैं। जन्मों की अंतहीन यात्रा से थका मानव उनका सान्निध्य पाकर, उनके अमृतवचन सुनकर परम शांति का अनुभव करता है, उसे जीवन में भी विश्रांति मिलती है और मृत्यु में भी। वह जन्म-मृत्यु के चक्र से सदा के लिए छूट जाता है।

स्रोतः लोक कल्याण सेतु, जुलाई 2010, पृष्ठ संख्या 7, अंक 157

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मातृदेवो भव, पितृदेवो भव

माता पिता परम आदरणीय

(पूज्य बापू जी के सत्संग प्रवचन से)

एक पिता अपने छोटे से पुत्र को गोद में लिए बैठा था। कहीं से उड़कर एक कौआ उनके सामने छज्जे पर बैठ गया। पुत्र ने पिता से पूछाः

"पापा ! यह क्या है ?"

पिताः "कौआ है।"

पुत्र ने फिर पूछाः "यह क्या है?"

पिता ने कहाः "कौआ है।"

पुत्र बार-बार पूछताः "पापा ! यह क्या है ?"

पिता स्नेह से बार-बार कहताः "बेटा ! यह कौआ है कौआ।"

कई वर्षों के बाद पिता बूढ़ा हो गया। एक दिन पिता चटाई पर बैठा था। घर में कोई उसके पुत्र से मिलने आया। पिता ने पूछाः "कौन आया है ?"

पुत्र ने नाम बता दिया। थोड़ी देर में कोई और आया तो पिता ने फिर पूछा। इस बार झल्लाकर पुत्र ने कहाः "आप चुपचाप पड़े क्यों नहीं रहते ! आपको कुछ करना धरना है तो नहीं, 'कौन आया-कौन गया' दिन भर यह टाँय-टाँय क्यों लगाये रहते हैं ?"

पिता ने लम्बी साँस खींची, हाथ से सिर पकड़ा। बड़े दुःखभरे स्वर में धीरे-धीरे कहने लगाः "मेरे एक बार पूछने पर तुम कितना क्रोध करते हो और तुम दसों बार एक ही बात पूछते थे कि यह क्या है ? मैंने कभी तुम्हें झिड़का नहीं। मैं बार बार तुम्हें बताताः बेटा कौआ है।"

बच्चो ! भूलकर भी कभी अपने माता पिता का ऐसे तिरस्कार नहीं करना चाहिए। वे तुम्हारे लिए परम आदरणीय हैं। उनका मान सम्मान करना तुम्हारा कर्तव्य है। माता-पिता ने तुम्हारे पालन-पोषण में कितने कष्ट सहे हैं। कितनी रातें माँ ने तुम्हारे लिए गीले में सोकर गुजारी हैं, और भी तुम्हारे जन्म से लेकर अब तक कितने कष्ट तुम्हारे लिए सहन किये हैं, तुम कल्पना भी नहीं कर सकते। कितने-कितने कष्ट सहकर तुमको बड़ा किया और अब तुमको वृद्ध माता-पिता को प्यार से दो शब्द कहने में कठिनाई लगती है ! पिता को 'पिता' कहने में भी शर्म आती है।

अभी कुछ वर्ष पहले की बात है।

इलाहाबाद में रहकर एक किसान का बेटा वकालत की पढ़ाई कर रहा था। बेटे को शुद्ध घी, चीज़-वस्तु मिले, बेटा स्वस्थ रहे इसलिए पिता घी, गुड़, दाल-चावल आदि सीधा-सामान घर से दे जाते थे।

एक बार बेटा अपने दोस्तों के साथ कुर्सी पर बैठकर चाय-ब्रेड का नाश्ता कर रहा था। इतने में वह किसान पहुँचा। धोती फटी हुई, चमड़े के जूते, हाथ में डंडा, कमर झुकी हुई... आकर उसने गठरी उतारी। बेटे को हुआ, 'बूढ़ा आ गया है, कहीं मेरी इज्जत न चली जाय !' इतने में उसके मित्रों ने पूछाः "यह बूढ़ा कौन है ?"

लड़काः "He is my servant." (यह तो मेरा नौकर है।)

लड़के ने धीरे-से कहा किंतु पिता ने सुन लिया। वृद्ध किसान ने कहाः "भाई ! मैं नौकर तो जरूर हूँ लेकिन इसका नौकर नहीं हूँ, इसकी माँ का नौकर हूँ। इसीलिए यह सामान उठाकर लाया हूँ।"

यह अंग्रेजी पढ़ाई का फल है कि अपने पिता को मित्रों के सामने 'पिता' कहने में शर्म आ रही है, संकोच हो रहा है ! ऐसी अंग्रजी पढ़ाई और आडम्बर की ऐसी-की-तैसी कर दो, जो तुम्हें तुम्हारी संस्कृति से दूर ले जाय !

भारत को आजाद हुए 62 साल हो गये फिर भी अंग्रेजी की गुलामी दिल-दिमाग से दूर नहीं हुई !

पिता तो आखिर पिता ही होता है चाहे किसी भी हालत में हो। प्रह्लाद को कष्ट देने वाले दैत्य हिरण्यकशिपु को भी प्रह्लाद कहता हैः "पिताश्री !" और तुम्हारे लिए तनतोड़ मेहनत करके तुम्हारा पालन-पोषण करने वाले पिता को नौकर बताने में तुम्हें शर्म नहीं आती !

भारतीय संस्कृति में तो माता-पिता को देव कहा गया हैः मातृदेवो भव, पितृदेवो भव.... उसी दिव्य संस्कृति में जन्म लेकर माता-पिता का आदर करना तो दूर रहा, उनका तिरस्कार करना, वह भी विदेशी भोगवादी सभ्यता के चंगुल में फँसकर ! यह कहाँ तक उचित है ?

भगवान गणेश माता-पिता की परिक्रमा करके ही प्रथम पूज्य हो गये। आज भी प्रत्येक धार्मिक विधि-विधान में श्रीगणेश जी का प्रथम पूजन होता है। श्रवण कुमार ने माता-पिता की सेवा में अपने कष्टों की जरा भी परवाह न की और अंत में सेवा करते हुए प्राण त्याग दिये। देवव्रत भीष्म ने पिता की खुशी के लिए आजीवन ब्रह्मचर्य का व्रत पाला और विश्वप्रसिद्ध हो गये। महापुरुषों की पावन भूमि भारत में तुम्हारा भी जन्म हुआ है। स्वयं के सुखों का बलिदान देकर संतान हेतु अगणित कष्ट उठाने वाले माता-पिता पूजने योग्य हैं। उनकी सेवा करके अपने भाग्य को बनाओ। किन्हीं संत ने ठीक ही कहा हैः

जिन मात-पिता की सेवा की,

तिन तीरथ जाप कियो न कियो।

'जो माता-पिता की सेवा करते हैं, उनके लिये किसी तीर्थयात्रा की आवश्यकता नहीं है।'

माता पिता व गुरुजनों की सेवा करने वाला और उनका आदर करने वाला स्वयं चिरआदरणीय बन जाता है। मैंने माता-पिता-गुरु की सेवा की, मुझे कितना सारा लाभ हुआ है वाणी में वर्णन नहीं कर सकता। नारायण..... नारायण.....

जो बच्चे अपने माता-पिता का आदर-सम्मान नहीं करते, वे जीवन में अपने लक्ष्य को कभी प्राप्त नहीं कर सकते। इसके विपरीत जो बच्चे अपने माता-पिता का आदर करते हैं, वे ही जीवन में महान बनते हैं और अपने माता-पिता व देश का नाम रोशन करते हैं। लेकिन जो माता-पिता अथवा मित्र ईश्वर के रास्ते जाने से रोकते हैं, उनकी वह बात मानना कोई जरूरी नहीं।

जाके प्रिय न राम-बैदेही।

तजिये ताहि कोटि बैरी सम,

जद्यपि परम स्नेही।।

(विनय पत्रिका)

स्रोतः ऋषि प्रसाद, फरवरी 2010, पृष्ठ संख्या 15, 16 अंक 206

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मगध नरेश और वृषभ

कहीं देर न हो जाए.....

मगध नरेश अपनी अश्वशाला और वृषभशाला का बहुत अधिक ध्यान रखता था। वह अपने बलिष्ठ घोड़ों और पुष्ट बैलों को देखने जाता, उनको सहलाता। उसकी वृषभशाला में एक अत्यन्त सुंदर बैल था। उसका सफेद रंग, लम्बे सींग और ऊँचा कंधा किसी का भी ध्यान खींच लेता था। मगध नरेश भी उसे बहुत पसंद करता था।

एक बार नरेश राज्य विस्तार करने दूर देश में चला गया। जब वापस आया तो अपने प्यारे वृषभ को देखने वृषभशाला में गया। उसे देखा तो नरेश दंग रह गया। उसने वृषभशाला सँभालनेवाले वयोवृद्ध सेवक से पूछाः "जिसका सुगठित शरीर, उज्जवल वर्ण, ऊँचा कंधा था, उसी वृषभ का कंधा झूल रहा है, वर्ण निस्तेज हो गया है, जवानी लुढ़क गयी है। आकर्षण का केन्द्र वृषभ इतना दीन-हीन तुच्छ क्यों हुआ ?

सेवक बोलाः "राजा साहब ! इसकी जवानी चली गयी। बुढ़ापे में प्रायः सभी प्राणियों की यह दशा होती है और फिर मौत घेर लेती है। यही दृश्यमान जगत की नश्वरता और तुच्छता समझकर आप सरीखे विचारवान, बुद्धिमान राजा सत्संग का सहारा लेकर सत्यस्वरूप में, शाश्वत स्वरूप में जगे हुए महापुरुषों की शरण में आत्मस्वरूप में जगने के लिए जाते हैं।"

मगध नरेश रात भर इन्हीं विचारों में खोया रहा। मानो राजा के सोये हुए वैराग्य को जगा दिया वृषभ के बुढ़ापे ने और वृषभशाला के अनुभवी सेवक के आप्तवचनों ने। राजा सोचने लगा, 'हाय जगत ! तेरी नश्वरता, परिवर्तनशीलता ! तुझे अपना-अपना मानने वाले सब मर-मिटे। तूने किसी का साथ नहीं निभाया। तू स्वयं नाशवान है। तुझे पाकर जो अपने को भाग्यशाली मानते हैं, वे मूढ़मति स्वप्न के सिंहासन पर शाश्वत अधिकार और शाश्वत सुख की कल्पना में खोये रहते हैं और मृत्यु आकर सबको मिटाती जाती है। मैं भी उसी भ्रम की परिस्थिति में अपना अमूल्य जीवन खो रहा हूँ।

मिली हुई चीज़ छूट जायेगी यह सत्संग में सुना था लेकिन मुझ अधम की राज्य विस्तार की वासना के कारण मैं भटकता रहा। विस्तार-विस्तार में आयु नष्ट हो रही है। यह सुंदर, सुहावना प्यारा वृषभ बुढ़ापे की चपेट में आ गया। राज्य, वस्तुएँ और सत्ता के विस्तार में लगे मुझ जैसे अधमों को धिक्कार है !

हाय मेरी वासना ! जो पूर्ण विस्तृत है उस व्यापक परमेश्वर के पूर्ण विस्तार में जो पूर्ण हो जाते हैं, धन्य हैं वे महापुरूष ! हम प्रकृति की चीजों के विस्तार-विस्तार में नीच योनियों में भटकने के रास्ते जा रहे हैं, जैसे राजा अज, राजा नृग ऐसी वासना में लगकर नीच योनियों में भटके। मैंने भी नासमझी की, नीच योनियों में भटकने का रास्ता पकड़ा।

नहीं.....! अभी नहीं तो कभी नहीं !! बाह्य विस्तार विनाश की ओर ले जाता है, आत्मवस्तु में चित्तवृत्ति का विस्तार स्वतः सिद्ध, विस्तृत ब्रह्म में विश्रान्ति दिलाता है। ऐसे दिन कब आयेंगे कि मैं स्वतः सिद्ध, विस्तृत ब्रह्म में विश्रान्ति पाऊँगा ?

हाय ! मुझे अनित्य शरीर, अनित्य संसार को जानने वाले अपने नित्य नारायणस्वरूप 'मैं' को, जो नर-नारी का अयन है उस आत्मा को जानना चाहिए, पाना चाहिए। देर हो गयी देर ! बुढ़ापा तो इस शरीर भी उतर रहा है। बुढ़ापे की लाचारी, मोहताजी और मौत से पहले ही मुझे परमात्मपद को पाना चाहिए।'

बुद्धिमान मगध नरेश मौत के पहले अमर आत्मा का अनुभव करने वाले सत्पुरुषों के रास्ते चल पड़ा। राजपाट सज्जनों के हवाले करके एकांत अरण्य में सदगुरू की सीख के अनुसार अपने सत्-चित्-आनन्दस्वरूप को पाने में तत्परता से लग गया। धन्य है वह घड़ी जब बूढ़े बैल को बुढ़ापा और मौत की याद आयी और राजा अपने अनामय स्वरूप को, अपने अमर आत्मा को पाने में लग गया। निःस्वार्थी, प्रभुपरायण सम्राट ने राजा जनक की नाईं जीते-जी आत्मसाक्षात्कार कर लिया।

ब्राह्मी स्थिति प्राप्त कर, कार्य रहे न शेष।

मोह कभी न ठग सके, इच्छा नहीं लवलेश।।

"मैं शरीर हूँ और संसार की चीजों से सुख मिलेगा, और चाहिए-और चाहिए...' इस प्रकार की मोहजनित मान्यताओं से पार होकर-

पूर्ण गुरूकृपा मिली, पूर्ण गुरू का ज्ञान।

स्वस्वरूप में जागकर, राजा हुए आत्माराम।।

क्या तुम भी किसी बूढ़े बैल या बूढ़े व्यक्ति को देखकर अपने बुढ़ापे की कल्पना नहीं कर सकते ! मगध नरेश की तरह तुम भी जगना चाहो तो जग सकते हो। अपने आत्मस्वरूप में लगना चाहो तो लग सकते हो। जगना चाहो और लगना चाहो तो अपने आत्मस्वरूप से प्रीति करो। करो हिम्मत ! ॐ ॐ ॐ.... हे जगत तेरी अनित्यता ! हाय मनुष्य, तेरी वासना और अंधी दौड़ !! आखिर कब तक !!!

ॐॐॐ श्री परमात्मने नमः। ॐॐ विवेकादाताय नमः। ॐॐ वैराग्यदाताय नमः। ॐॐ स्वस्वरूपदाताय नमः। श्रीहरि... श्री हरि...

मगध नरेश की नाईं लग पड़ो। पहुँच जाओ अपने परम स्वभाव में।

संकर सहज सरूपु सम्हारा।

लागि समाधि अखंड अपारा।।

(श्री रामचरित. बा.कां. 57.4)

ऐसे ही आप भी अपने स्वरूप को सँभालो। जहाँ न राग, न द्वेष, न भय, न शोक, न अहं, न अज्ञान है, उस स्वस्वरूप को जानने में लग जाओ। वह दूर नहीं, देर नहीं, दुर्लभ नहीं !....

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स्रोतः ऋषि प्रसाद, फरवरी 2010, अंक 206, पृष्ठ संख्या 2,3

वेदधर्म मुनि की कथा

ऐसी हो गुरु में निष्ठा

पुराणों में एक कथा आती है कि-

भगवान शिवजी ने पार्वती से कहा हैः

आकल्पजन्मकोटीनां यज्ञव्रततपः क्रियाः।

ताः सर्वाः सफला देवि गुरुसंतोषमात्रतः।।

'हे देवी ! कल्पपर्यन्त के, करोड़ों जन्मों के यज्ञ, व्रत, तप और शास्त्रोक्त क्रियाएँ – ये सब गुरुदेव के संतोषमात्र से सफल हो जाते हैं।'

शिष्य को गुरु की ऐसी सेवा करनी चाहिए कि गुरु प्रसन्न हो जाएँ, उनका संतोष प्राप्त हो जाये। कोई भी कार्य ऐसा न हो जिससे गुरु नाराज हों। हमें हमारा सेवाकार्य इतने सुंदर ढंग से करना चाहिए कि कहीं कोई कमी न रह जाये और गुरुदेव की प्रसन्नता भी स्वाभाविक ही प्राप्त कर लें। लेकिन कई बार ऐसा होता है कि गुरु अपने शिष्यों की गुरुभक्ति की, निष्ठा की परीक्षा भी लिया करते है, जैसे संदीपक और उसके गुरुभाइयों की परीक्षा उनके गुरु ने ली थी।

प्राचीन काल में गोदावरी नदी के किनारे वेदधर्म मुनि के आश्रम में उनके शिष्य वेद-शास्त्रादि का अध्ययन करते थे। एक दिन गुरु ने अपने शिष्यों की गुरुभक्ति की परीक्षा लेने का विचार किया। सत्शिष्यों में गुरु के प्रति इतनी अटूट श्रद्धा होती है कि उस श्रद्धा को नापने के लिए गुरुओं को कभी-कभी योगबल का भी उपयोग करना पड़ता है।

वेदधर्म मुनि ने अपने शिष्यों को एकत्र करके कहाः " हे शिष्यों ! पूर्वजन्म में मैंने कुछ पापकर्म किये हैं। उनमें से कुछ तो जप-तप, अनुष्ठान करके मैंने काट लिये, अभी थोड़ा प्रारब्ध बाकी है। उसका फल इसी जन्म में भोग लेना जरूरी है। उस कर्म का फल भोगने के लिए मुझे भयानक बीमारी आ घेरेगी, इसलिए मैं काशी जाकर रहूँगा। वहाँ मुझे कोढ़ निकलेगा, अँधा हो जाऊँगा। उस समय मेरे साथ काशी आकर मेरी सेवा कौन करेगा ? है कोई हरि का लाल, जो मेरे साथ रहने के लिए तैयार हो ?"

वेदधर्म मुनि ने परीक्षा ली। शिष्य पहले तो कहा करते थेः "गुरुदेव ! आपके चरणों में हमारा जीवन न्योछावर हो जाये मेरे प्रभु !" अब सब चुप हो गये। गुरु का जयघोष होता है, माल-मिठाइयाँ आती हैं, फूल-फल के ढेर लगते हैं तब बहुत शिष्य होते हैं लेकिन आपत्तिकाल में उनमें से कितने टिकते हैं !

वेदधर्म मुनि के शिष्यों में संदीपक नाम का शिष्य खूब गुरु-सेवापरायण, गुरुभक्त एवं कुशाग्र बुद्धिवाला था। उसने कहाः "गुरुदेव ! यह दास आपकी सेवा में रहेगा।"

गुरुदेवः "इक्कीस वर्ष तक सेवा के लिए रहना होगा।"

संदीपकः "इक्कीस वर्ष तो क्या मेरा पूरा जीवन ही अर्पित है। गुरुसेवा में ही इस जीवन की सार्थकता है।"

वेदधर्म मुनि एवं संदीपक काशी नगर में मणिकर्णिका घाट से कुछ दूर रहने लगे। संदीपक सेवा में लग गया। प्रातः काल में गुरु की आवश्यकता के अनुसार दातुन-पानी, स्नान-पूजन, वस्त्र-परिधान इत्यादि की तैयारी पहले से ही करके रखता। समय होते ही भिक्षा माँगकर लाता और गुरुदेव को भोजन कराता। कुछ दिन बाद गुरु के पूरे शरीर में कोढ़ निकला और संदीपक की अग्निपरीक्षा शुरु हो गयी। गुरु कुछ समय बाद अंधे हो गये। शरीर कुरूप और स्वभाव चिड़चिड़ा हो गया। संदीपक के मन में लेशमात्र भी क्षोभ नहीं हुआ। वह दिन-रात गुरुजी की सेवा में तत्पर रहने लगा। वह कोढ़ के घावों को धोता, साफ करता, दवाई लगाता, गुरु को नहलाता, कपड़े धोता, आँगन बुहारता, भिक्षा माँगकर लाता और गुरुजी को भोजन कराता।

गुरुजी को मिजाज और भी क्रोधी एवं चिड़चिड़ा हो गया। वे गाली देते, डाँटते, तमाचा मार देते, डंडे से मारपीट करते और विविध प्रकार से परीक्षा लेते। संदीपक खूब शांति से, धैर्य से यह सब सहते हुए दिन प्रतिदिन ज्यादा तत्परता से गुरु की सेवा में मग्न रहने लगा। धनभागी संदीपक के हृदय में गुरु के प्रति भक्तिभाव अधिकाधिक गहरा और प्रगाढ़ होता गया।

संदीपक की ऐसी अनन्य गुरुनिष्ठा देखकर काशी के अधिष्ठाता देव भगवान विश्वनाथ उसके समक्ष प्रकट हो गये और बोलेः "तेरी गुरुभक्ति एवं गुरुसेवा देखकर हम प्रसन्न हैं। जो गुरु की सेवा करता है वह मानो मेरी ही सेवा करता है। जो गुरु को संतुष्ट करता है वह मुझे ही संतुष्ट करता है। इसलिए बेटा ! कुछ वरदान माँग ले।" संदीपक ने अपने गुरु की आज्ञा के बिना कुछ भी माँगने से मना कर दिया। शिवजी ने फिर से आग्रह किया तो संदीपक गुरु से आज्ञा लेने गया और बोलाः "शिवजी वरदान देना चाहते है। आप आज्ञा दें तो मैं वरदान माँग लूँ कि आपका रोग एवं अंधेपन का प्रारब्ध समाप्त हो जाये।"

गुरु ने संदीपक को खूब डाँटते हुए कहाः "सेवा करते-करते थका है इसलिए वरदान माँगता है कि मैं अच्छा हो जाऊँ और सेवा से तेरी जान छूटे ! अरे मूर्ख ! जरा तो सोच कि मेरा कर्म कभी न कभी तो मुझे भोगना ही पड़ेगा।"

इस जगह पर कोई आधुनिक शिष्य होता तो गुरु को आखिरी नमस्कार करके चल देता। संदीपक वापस शिवजी के पास गया और वरदान के लिए मना कर दिया। शिवजी आश्चर्यचकित हो कि कैसा निष्ठावान शिष्य है ! शिवजी गये विष्णुलोक में और भगवान विष्णु से सारा वृत्तान्त कहा। भगवान विष्णु भी संतुष्ट हो संदीपक के पास वरदान देने के लिए प्रकटे।

गुरुभक्त संदीपक ने कहाः "प्रभु ! मुझे कुछ नहीं चाहिए।" भगवान ने फिर से आग्रह किया तो संदीपक ने कहाः "आप मुझे यही वरदान दें कि गुरु में मेरी अटल श्रद्धा बनी रहे। गुरुदेव की सेवा में निरंतर प्रीति रहे, गुरुचरणों में दिन-प्रतिदिन भक्ति दृढ़ होती रहे। इसके अलावा मुझे और कुछ नहीं चाहिए।" ऐसा सुनकर भगवान विष्णु ने संदीपक को गले लगा लिया।

जब तक गुरू का हृदय शिष्य पर संतुष्ट नहीं होता, तब तक शिष्य में ज्ञान प्रकट नहीं होता। उसके हृदय में गुरु का ज्ञानोपदेश पचता नहीं है। गुरु का संतोष ही शिष्य की परम उपासना है, परम साधना है। गुरु को जो संतुष्य करता है, प्रसन्न करता है उस पर सब संतुष्ट हो जाते हैं। गुरुद्रोही पर विश्वात्मा हरि रूष्ट होते हैं। आज संदीपक जैसे सत्शिष्यों की गाथा का वर्णन सत्शास्त्र कर रहे हैं। धन्य हैं ऐसे सत्शिष्य !

संदीपक ने जाकर देखा तो वेदधर्म मुनि स्वस्थ बैठे थे। न कोढ़, न कोई अंधापन, न अस्वस्थता ! शिवस्वरूप सदगुरु श्री वेदधर्म ने संदीपक को अपनी तात्त्विक दृष्टि एवं उपदेश से पूर्णत्व में प्रतिष्ठित कर दिया। वे बोलेः "वत्स ! धन्य है तेरी निष्ठा और सेवा ! जो इस प्रसंग को पढ़ेंगे, सुनेंगे अथवा सुनायेंगे, वे महाभाग मोक्ष-पथ में अडिग हो जायेंगे। पुत्र संदीपक ! तुम धन्य हो ! तुम सच्चिदानन्दस्वरूप हो।"

गुरु के संतोष से संदीपक गुरुतत्त्व में जग गया, गुरुस्वरूप हो गया।

अपनी श्रद्धा को कभी भी, कैसी भी परिस्थिति में गुरु पर से तनिक भी कम नहीं करना चाहिए। गुरु परीक्षा लेने के लिए कैसी भी लीला कर सकते हैं। निजामुद्दीन औलिया ने भी अपने चेलों की परीक्षा ली थी। खास-खास 24 चेलों में से भी 2-2 करके फिसलते गये। आखिरी ऊँचाई तक अमीर खुसरो ही डटे रहे। संदीपक की तरह वे अपने सदगुरु की पूर्ण कृपा को पचाने में सफल हुए।

गुरू आत्मा में अचल होते हैं, स्वरूप में अचल होते हैं। जो हमको संसार-सागर से तारकर परमात्मा में मिला दें, जिनका एक हाथ परमात्मा में हो और दूसरा हाथ जीव की परिस्थितियों में हो, उन महापुरुषों का नाम सदगुरु है।

सदगुरु मेरा सूरमा, करे शब्द की चोट।

मारे गोला प्रेम का, हरे भरम की कोट।।

गुरु गोबिन्द दोऊ खड़े, काके लागूँ पाय।

बलिहारी गुरु आपने, गोबिन्द दियो बताय।।

(प्रेषकः आर.सी. मिश्र)

स्रोतः ऋषि प्रसाद, मार्च 2010, पृष्ठ संख्या 13,14. अंक 207.

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विदुरजी और धृतराष्ट्र

क्या आश्चर्य है !
महाभारत के युद्ध में अपने 100 पुत्रों और सारी सेना का संहार हो जाने से धृतराष्ट्र बड़े दुःखी हुए। उनके शोक को शांत करने के लिए धर्मात्मा विदुर जी ने मधुर, सांत्वनापूर्ण वाणी में धर्म का उपदेश दिया।
तब राजा धृतराष्ट्र ने कहाः ''विदुरजी ! धर्म के इस गूढ़ रहस्य का ज्ञान बुद्धि से ही हो सकता है। अतः तुम मेरे आगे विस्तारपूर्वक इस बुद्धिमार्ग को कहो।"
विदुरजी कहने लगेः "राजन ! भगवान स्वयंभू को नमस्कार करके मैं इस संसाररूप गहन वन के उस स्वरूप का वर्णन करता हूँ, जिसका निरूपण महर्षियों ने किया है। एक ब्राह्मण किसी विशाल वन में जा रहा था। वह एक दुर्गम स्थान में जा पहुँचा। उसे सिंह, व्याघ्र, हाथी, रीछ आदि भयंकर जंतुओं से भरा देखकर उसका हृदय बहुत ही घबरा उठा, उसे रोमांच हो आया और मन में बड़ी उथल पुथल होने लगी। उस वन में इधर-उधर दौड़कर उसने बहुत ढूँढा कि कहीं कोई सुरक्षित स्थान मिल जाये परंतु वह न तो वन से निकलकर दूर ही जा सका और न उन जंगली जीवों से त्राण ही पा सका। इतने में ही उसने देखा कि वह भीषण वन सब ओर जाल से घिरा हुआ है। एक अत्यंत भयानक स्त्री ने उसे अपनी भुजाओं से घेर लिया है तथा पर्वत के समान ऊँचे पाँच सिरवाले नाग भी उसे सब ओर से घेरे हुए हैं। उस वन के बीच में झाड़-झंखाड़ों से भरा हुआ एक गहरा कुआँ था। वह ब्राह्मण इधर उधर भटकता उसी में गिर गया किंतु लताजाल में फँसकर वह ऊपर को पैर और नीचे को सिर किये बीच में ही लटक गया।
इतने में ही कुएँ के भीतर उसे एक बड़ा भारी सर्प दिखायी दिया और ऊपर की ओर उसके किनारे पर एक विशालकाय हाथी दिखा। उसके शरीर का रंग सफेद और काला था तथा उसके छः मुख और बारह पैर थे। वह धीरे-धीरे उस कुएँ की ओर ही आ रहा था। कुएँ के किनारे पर जो वृक्ष था, उसकी शाखाओं पर तरह-तरह की मधुमक्खियों ने छता बना रखा था। उससे मधु की कई धाराएँ गिर रही थीं। मधु तो स्वभाव से ही सब लोगों को प्रिय है। अतः वह कुएँ में लटका हुआ पुरुष इन मधु की धाराओं को ही पीता रहता था। इस संकट के समय भी मधु पीते-पीते उसकी तृष्णा शांत नहीं हुई और न उसे अपने ऐसे जीवन के प्रति वैराग्य ही हुआ। जिस वृक्ष के सहारे वह लटका हुआ था, उसे रात दिन काले और सफेद चूहे काट रहे थे। इस प्रकार इस स्थिति में उसे कई प्रकार के भयों ने घेर रखा था। वन की सीमा के पास हिंसक जंतुओं से और अत्यंत उग्ररूपा स्त्री से भय था, कुएँ के नीचे नाग से और ऊपर हाथी से आशंका थी, पाँचवाँ भय चूहों के वृक्ष को काट देने पर गिरने का था और छठा भय मधु के लोभ के कारण मधुमक्खियों से भी था। इस प्रकार संसार-सागर में पड़कर भी वह नहीं डटा हुआ था तथा जीवन की आशा बनी रहने से उसे उससे वैराग्य भी नहीं होता था।
महाराज ! मोक्षतत्त्व के विद्वानों ने यह एक दृष्टान्त कहा है। इसे समझकर धर्म का आचरण करने से मनुष्य परलोक में सुख पा सकता है। यह जो विशाल वन कहा गया है, वह यह विस्तृत संसार ही है। इसमें जो दुर्गम जंगल बताया है, वह इस संसार की ही गहनता है। इसमें जो बड़े-बड़े हिंस्र जीव बताये गये हैं, वे तरह-तरह की व्याधियाँ हैं तथा इसकी सीमा पर जो बड़े डीलडौलवाली स्त्री है वह वृद्धावस्था है, जो मनुष्य के रूप रंग को बिगाड़ देती है। उस वन में जो कुआँ है, वह मनुष्य देह है। उसमें नीचे की ओर जो नाग बैठा हुआ है, वह स्वयं काल ही है। वह समस्त देहधारियों को नष्ट कर देने वाला और उनके सर्वस्व को हड़प जाने वाला है। कुएँ के भीतर जो लता है, जिसके तंतुओं में यह मनुष्य लटका हुआ है, वह इसके जीवन की आशा है तथा ऊपर की ओर जो छः मुँहवाला हाथी है वह संवत्सर (वर्ष) है। छः ऋतुएँ उसके मुख हैं तथा बारह महीने पैर हैं। उस वृक्ष को जो चूहे काट रहे हैं, उन्हें रात-दिन कहा गया है तथा मनुष्य की जो तरह-तरह की कामनाएँ हैं, वे मधुमक्खियाँ हैं। मक्खियों के छत्ते से जो मधु की धाराएँ चू रही हैं, उन्हें भोगों से प्राप्त होने वाले रस समझो, जिनमें अधिकांश मनुष्य डूबे रहते हैं। बुद्धिमान लोग संसारचक्र की गति को ऐसा ही समझते हैं, तभी वे वैराग्यरूपी तलवार से इसके पाशों को काटते हैं।"
धृतराष्ट्र ने कहाः "विदुर ! तुम बड़े तत्त्वदर्शी हो। तुमने मुझे बड़ा सुंदर आख्यान सुनाया है। तुम्हारे अमृतमय वचनों को सुनकर मुझे बड़ा हर्ष होता है।"
विदुरजी बोलेः "राजन् ! शास्ज्ञों ने गहन संसार को वन बताया है। यही मनुष्यों तथा चराचर प्राणियों का संसारचक्र है। विवेकी पुरुष को इसमें आसक्त नहीं होना चाहिए। मनुष्यों की जो प्रत्यक्ष और परोक्ष शारीरिक तथा मानसिक व्याधियाँ हैं, उन्हीं को बुद्धिमानों ने हिंस्र जीव बताया है। मंदमति पुरुष इन व्याधियों से तरह-तरह के क्लेश और आपत्तियाँ उठाने पर भी संसार से विरक्त नहीं होते। यदि किसी प्रकार मनुष्य इन व्याधियों के पंजे से निकल भी जाय तो अंत में इसे वृद्धावस्था तो घेर ही लेती है। इसी से यह तरह-तरह के शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गंधों से घिरकर मज्जा और मांसरूप कीचड़ से भरे हुए आश्रयहीन देहरूप गड्ढे में पड़ा रहता है। वर्ष, मास, पक्ष और दिन रात की संधियाँ – ये क्रमशः इसके रूप और आयु का नाश किया करते हैं। ये सब काल के ही प्रतिनिधि हैं, इस बात को मूढ़ पुरुष नहीं जानते।
अतः बुद्धिमान पुरुष को संसार की निवृत्ति का ही प्रयत्न करना चाहिए, इस ओर से लापरवाही नहीं करना चाहिए।
मनुष्य को चाहिए कि अपने मन को काबू में करके ब्रह्मज्ञानरूप महौषधि प्राप्त करे और उसके द्वारा इस संसार-दुःखरूप महारोग को नष्ट कर दे। इस दुःख से संयमी चित्त के द्वारा जैसा छुटकारा मिल सकता है, वैसा पराक्रम, धन, मित्र या हितैषी किसी की भी सहायता से नहीं मिल सकता।
जो बुद्धिहीन पुरुष तरह-तरह के माया-मोह में फँसे हुए हैं और जिन्हें बुद्धि के जाल ने बाँध रखा हैं, वे भिन्न-भिन्न योनियों में भटकते रहते हैं।"
स्रोतः ऋषि प्रसाद, अप्रैल 2010, पृष्ठ संख्या 16,17 अंक 208
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भक्त पुरंदरदासजी और राजा कृष्णदेव

बहुरत्ना वसुंधरा
मानव के जीवन में संसारी चीजों की कीमत तब तक होती है, जब तक उसको अपने जीवन के वास्तविक उद्देश्य का पता नहीं होता। जब उसे किन्हीं ब्रह्मनिष्ठ सदगुरु से दीक्षा-शिक्षा मिल जाती है, जीवन के वास्तविक उद्देश्य का पता चल जाता है और गुरुमंत्ररूपी अमूल्य रत्न मि जाता है तो फिर उसके जीवन में और किसी चीज की कीमत नहीं रह जाती। मेवाड़ की महारानी मीराबाई के जीवन में धन-धान्य की कोई कमी नहीं थी, परंतु जब उन्हें गुरु से भगवन्नाम की दीक्षा मिली तब वे कहती हैं-
पायो जी मैंने राम रतन धन पायो।
वस्तु अमोलक दी मेरे सदगुरु
कृपा करी अपनायो,
पायो जी मैंने राम रतन धन पायो।।
ऐसे ही भक्त पुरंदरदासजी के जीवन में भी देखने को मिलता है।
एक बार राजा कृष्णदेव के निमंत्रण पर भक्त पुरंदरदासजी राजमहल में पधारे। जाते समय राजा ने दो मुट्ठी चावल उनकी झोली में डालते हुए कहाः "महाराज ! इस छोटी सी भेंट को स्वीकार कर मुझे अनुगृहीत करें।" राजा ने उन चावलों में कुछ हीरे मिला दिये थे।
पुरंदरदास जी की पत्नी ने घर पर चावल साफ करते समय देखा कि उनमें कुछ बहुमूल्य रत्न भी हैं तो उन्हें अलग कर कूड़ेदान में फेंक दिया।
पुरंदरदासजी प्रतिदिन दरबार में जाते थे। राजा सदैव ही उन्हें दो मुट्ठी चावल के साथ हीरे मिलाकर दे देता पर मन में सोचता कि 'पुरंदरदास जी धन के लालच से मुक्त नहीं हैं। यदि वे मुक्त होते तो प्रतिदिन भिक्षा के लिए दरबार में क्यों आते !'
एक दिन राजा ने कहाः ''भक्तराज ! लालच मनुष्य को आध्यात्मिक उपलब्धियों से दूर कर देता है। अब आप स्वयं ही अपने विषय में विचार करें।"
राजा के मुख से यह बात सुनकर भक्त पुरंदरदास जी को बड़ा दुःख हुआ। वे अगले दिन राजा को अपना घर दिखाने ले गये। उस समय पुरंदरदासजी की पत्नी थाली में चावल फैलाकर साफ कर दी थी। राजा ने पूछाः "देवि ! आप क्या कर रही हो ?"
वह बोलीः "महाराज ! कोई व्यक्ति भिक्षा में चावल के साथ कुछ बहुमूल्य रत्न मिलाकर हमें देता है। मैं उन पत्थरों को निकालकर अलग कर रही हूँ।"
"फिर क्या करेंगी उनका ?"
"घर के बाहर कूड़ेदान में फेंक दूँगी। हमारे लिए इन पत्थरों का कोई मूल्य नहीं है।"
राजा ने उन सभी बहुमूल्य रत्नों को कूड़ेदान में पड़े देखा तो आश्चर्यचकित रह गया और भक्त-दम्पत्ति के चरणों में गिर पड़ा।
बहुरत्ना वसुंधरा.... यह वसुन्धरा, यह भारतभूमि ऐसे बहुविध मानव-रत्नों से सुशोभित है। धन संग्रह से अलिप्त, बहुमूल्य रत्नों से सुशोभित है। धनसंग्रह से अलिप्त, बहुमूल्य रत्नों में पत्थरबुद्धि रखने वाले भक्त पुरंदरदासजी व उनकी पत्नी जैसे भक्त भी यहाँ हुए हैं और लोक-मांगल्य के लिए धन का सदुपयोग कर सदज्ञान, सत्सेवा, सदाचार की विशाल पावन सरिता बहाने वाले संत एकनाथजी आदि महापुरुष भी इसी धरा पर हुए हैं।
स्रोतः ऋषि प्रसाद, अप्रैल 2010, पृष्ठ संख्या 9, अंक 208
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धर्मनिष्ठ राजधर्मा और कृतघ्न गौतम

राक्षस भी जिसे पसन्द नहीं करते

किसी के द्वारा की गयी भलाई या उपकार को न मानने वाला व्यक्ति कृतघ्न कहलाता है। 'महाभारत' में पितामह भीष्म धर्मराज से कहते हैं- "कृतघ्न, मित्रद्रोही, स्त्रीहत्यारे और गुरुघाती इन चारों के पाप का प्रायश्चित हमारे सुनने में नहीं आया है।"

गौतम नाम का ब्राह्मण था। ब्राह्मण तो वह केवल जाति से था, वैसे एकदम निरक्षर और म्लेच्छप्राय था। पहले तो वह भिक्षा माँगता था किंतु भिक्षाटन करते हुए जब म्लेच्छों के नगर में पहुँचा तो वहीं एक विधवा स्त्री को पत्नी बना कर बस गया। म्लेच्छों के संग से उसका स्वभाव भी उन्हीं के समान हो गया। वन में पशु-पक्षियों का शिकार करना ही उसकी जीविका हो गयी।

एक दिन एक विद्वान ब्राह्मण जंगल से गुजरे यज्ञोपवीतधारी गौतम को व्याध के समान पक्षियों को मारते देख उन्हें दया आ गयी। उन्होंने उसको समझाया कि यह पापकर्म छोड़ दे। गौतम के चित्त पर उनके उपदेश का प्रभाव पड़ा और वह धन कमाने का दूसरा साधन ढूँढने निकल पड़ा। वह व्यापारियों के एक दल में शामिल हो गया किंतु वन में मतवाले हाथियों ने उस दल पर आक्रमण कर दिया, जिससे कुछ व्यापारी मारे गये। गौतम अपने प्राण बचाने के लिए भागा और रास्ता भटक गया। वह भटकते-भटकते दूसरे जंगल में जा पहुँचा, जिसमें पके हुए मधुर फलोंवाले वृक्ष थे। उस वन में महर्षि कश्यप का पुत्र राजधर्मा नामक बगुला रहता था। गौतम संयोगवश उसी वटवृक्ष के नीचे जा बैठा, जिस पर राजधर्मा का विश्राम-स्थान था।

संध्या के समय जब राजधर्मा ब्रह्मलोक से लौटे तो देखा कि उनके यहाँ एक अतिथि आया है। उन्होंने मनुष्य की भाषा में गौतम को प्रणाम किया और अपना परिचय दिया। गौतम को भोजन करा के कोमल पत्तों की शय्या बना दी। जब वह लेट गया तब राजधर्मा अपने पंखों से उसे हवा करने लगे।

परोपकारी राजधर्मा ने पूछाः "ब्राह्मणदेव ! आप कहाँ जा रहे हैं तथा किस प्रयोजन से यहाँ आना हुआ ?"

गौतमः मैं बहुत गरीब हूँ और धन पाने के लिए यात्रा कर रहे था। मेरे कुछ साथियों को हाथियों ने मार डाला। मैं अपने प्राण बचाने के लिए इधर आ गया हूँ।"

राजधर्माः "आप मेरे मित्र राक्षसराज विरूपाक्ष के यहाँ चले जाइये, वे आपकी मदद करेंगे।"

प्रातःकाल ब्राह्मण वहाँ से चल पड़ा। जब विरूपाक्ष ने सुना कि उनके मित्र ने गौतम को भेजा है, तब उन्होंने उसका बड़ा सत्कार किया और उसे खूब धन देकर विदा किया।

गौतम जब लौटकर आया तो राजधर्मा ने फिर सत्कार किया। रात्रि में राजधर्मा भी भूमि पर ही सो गये। उन्होंने पास में अग्नि जला दी थी, जिससे वन्य पशु रात्रि में ब्राह्मण पर आक्रमण न करें। परंतु रात्रि में जब उस लालची, कृतघ्न गौतम की नींद खुली तो वह सोचने लगा, 'मेरा घर यहाँ से बहुत दूर है। मेरे पास धन तो पर्याप्त है पर मार्ग में भोजन के लिए तुच्छ नहीं है। क्यों न इस मोटे बगुले को मारकर साथ ले लूँ तो रास्ते का मेरा काम चल जायेगा।' ऐसा सोचकर उस क्रूर ने सोते हुए राजधर्मा को मार डाला। उनके पंख नोच दिये, अग्नि में उनका शरीर भून लिया और धन की गठरी लेकर वहाँ से चल पड़ा।

इधर विरूपाक्ष ने अपने पुत्र से कहाः "बेटा ! मेरे मित्र राजधर्मा प्रतिदिन ब्रह्माजी को प्रणाम करने ब्रह्मलोक जाते हैं और लौटते समय मुझसे मिले बिना घर नहीं जाते। आज दो दिन बीत गये, वे मिलने नहीं आये। मुझे उस गौतम ब्राह्मण के लक्षण अच्छे नहीं लगते। मेरा चित्त व्याकुल हो रहा है। तुम जाओ, पता लगाओ कि मेरे मित्र किस अवस्था में है।"

राक्षसकुमार दूसरे राक्षसों के साथ जब राजधर्मा के निवासस्थान पर पहुँचा तो देखा कि राजधर्मा के निवासस्थान पर पहुँचा तो देखा कि राजधर्मा के पंख खून से लथपथ बिखरे पड़े हैं। इससे उसे बड़ा दुःख हुआ। क्रोध के मारे उसने गौतम को ढूँढना प्रारम्भ किया। थोड़ी ही देर मे राक्षसों ने उसे पकड़ लिया और ले जाकर राक्षसराज को सौंप दिया।

अपने मित्र का आग में झुलसा शरीर देखकर राक्षसराज शोक से मूर्च्छित हो गये। मूर्च्छा दूर होने पर उन्होंने कहाः "राक्षसो ! इस दुष्ट के टुकड़े-टुकड़े कर दो और अपनी भूख मिटाओ।"

राक्षसगण हाथ जोड़कर बोलेः "राजन् ! इस पापी को हम लोग नहीं खाना चाहते। आप इसे चाण्डालों को दे दें।"

राक्षसराज ने गौतम के टुकड़े-टुकड़े कराके वह मांस चाण्डालों को देना चाहा तो वे भी उसे लेने को तैयार नहीं हुए। वे बोलेः "यह तो कृतघ्न का मांस है। इसे तो पशु, पक्षी और कीड़े तक नहीं खाना चाहेंगे तो हम इसे कैसे खा सकते हैं !" फलतः वह मांस एक खाई में फेंक दिया गया।

राक्षसराज ने सुगंधित चंदन की चिता बनवायी और उस पर बड़े सम्मान से अपने मित्र राजधर्मा का शरीर रखा। उसी समय देवराज इन्द्र के साथ कामधेनु उस परोपकारी महात्मा के दर्शन करने आकाशमार्ग से आयीं। कामधेनु के मुख से अमृतमय झाग राजधर्मा के मृत शरीर पर गिर गया और राजधर्मा जीवित हो गये।

इस प्रकार परोपकारी, धर्मनिष्ठ राजधर्मा की तो जयजयकार हुई और कृतघ्न गौतम को प्राप्त हुई – मौत अपकीर्ति और नरकों की यातनापूर्ण यात्रा !

ऐसे अनेक कृतघ्नों की दुर्दशा का वर्णन इतिहास में मिलता है। जैसे – महावीरजी से गोशालक ने तेजोलेश्या विद्या की शिक्षा ली और उस विद्या का प्रयोग उन्हीं के ऊपर कर दिया तो महावीर जी का तो कुछ नहीं बिगड़ा, उलटा वह दुष्ट ही उस विद्या के तेज से झुलसकर मर गया।

महापुरुष तो अपनी समता में रहते हैं, उनके मन में किसी के प्रति नफरत नहीं होती पर प्रकृति उन कृतघ्नों को धोबी के कपड़ों की तरह पीट-पीटकर मारती है।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जून 2010, पृष्ठ संख्या 10,11 अंक 210

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कबीर दास जी की पुत्री कमाली और ब्राह्मण की कथा

ज्ञान का अंजन मिला तो आँख खुल गयी

(पूज्य बापू जी के सत्संग प्रवचन से)

संत कबीर जयंतीः 26 जून 2010

कबीर दास जी के पुत्र का नाम कमाल और पुत्री का नाम कमाली था। कमाली जब सोलह सत्रह वर्ष की थी तब की एक घटना है। कमाली सदैव प्रसन्न रहती थी। उसका स्वभाव मधुर और हिलचाल इतनी पवित्र थी कि कोई ब्राह्मण सोच भी नहीं सकता था कि वह बुनकर है। उसकी निगाहें नासाग्र रहतीं. वह इधर उधर नहीं देखती थी। युवती तो थी, उम्रलायक थी लेकिन कबीर जी की मधुर छत्रछाया में रहने से उसका जीवन बड़ा आभा-सम्पन्न, प्रभाव सम्पन्न था।

एक बार कमाली पनघट पर पानी भरने गयी। कुएँ से गागर भरकर ज्यों ही बाहर निकली, इतने में एक ब्राह्मण आया और बोलाः "मैं बहुत प्यासा हूँ।" कमाली ने गागर दे दी। वह ब्राह्मण गागर का काफी पानी पी गया और लम्बी साँस ली। कमाली ने पूछाः "भाई ! इतना सारा पानी पी गये, क्या बात है ?"

ब्राह्मण ने कहाः "मैं कश्मीर गया था पढ़ने के लिए। अब पढ़ाई पूरी हो गयी तो अपने घर जा रहा था। रास्ते में कहीं पानी मिला नहीं, सुबह का प्यासा था। पानी नहीं मानो यह तो अमृत था, बहुत देर के बाद मिला है तो इसकी कद्र हो रही है। अच्छा तुम कौन सी जाति की हो ?"

कमाली बोलीः "कमाल है ! पानी पीने के बाद जाति पूछते हो ? ब्राह्मण ! पहले जाति पूछते।"

ब्राह्मणः "मैं तो समझा तुम ब्राह्मण की कन्या होगी और फिर जल्दबाजी में मैंने पूछा नहीं, प्यास बहुत जोरों की लगी थी। बताओ, जाति की कौन हो तुम ?"

कमालीः "हमारे पिता संत कबीर जी ताना-बुनी करते हैं। हम जाति के बुनकर हैं।"

उस विद्वान का नाम था हरदेव पंडित। 'बुनकर' सुनते ही वह आगबबूला हो गया, बोलाः "कबीर तो ब्राह्मणों को धर्मभ्रष्ट करते हैं और तुम भी उसमें सहयोगी हो ! मुझे तो तू ब्राह्मण कन्या लगती थी। तूने मुझे पानी देने के पहले क्यों नहीं बताया कि हम बुनकर हैं ?"

कमालीः "ब्राह्मण ! तुमने पूछा ही नहीं और मैंने धर्मभ्रष्ट करने के लिए तुमको पानी नहीं पिलाया है। मैंने तो देखा कोई प्यासा पथिक जा रहा है और पानी माँगता है इसलिए पानी पिलाया है। तुमने पानी जैसी चीज माँगी तो मैं ना कैसे करती ? क्यों तुम्हें जाति-पाँति के चक्कर में डालूँ ? मैंने तो देखा, पथिक प्यासा है, वैसे तो करोड़ों-करोड़ों लोग प्यासे ही हैं, उनकी प्यास तो मेरे पिता जी ही बुझा सकते हैं लेकिन तुम्हारे जैसे पथिक, जिसकी प्यास पानी से बुझती है उसकी प्यास तो मैं भी बुझा सकती हूँ। जिसकी प्यास आत्मा-परमात्मानुसंधान से बुझती है उसकी प्यास तो मेरे पिता जी बुझा सकते हैं।"

हरदेव पंडितः "वाह ! जैसा तेरा बाप चतुर है बात करने में वैसी तू भी चतुर है। अपनी जाति नहीं बतायी और लगी है ज्ञान छाँटने।"

कमालीः "पंडित जी ! ज्ञान के बिना तो जीवन खोखला है। ज्ञान तो पानी भरते समय भी चाहिए, रोटी बनाते समय और चलते समय भी चाहिए। कश्मीर के विद्वानों के पास उचित विद्या है, यह ज्ञान था तभी तो तुम पढ़ने गये। पढ़ाई पूरी हुई, यह ज्ञान हुआ तभी अपने वतन में आये हो। प्यास का ज्ञान हुआ तभी तुमने पानी माँगा। ज्ञान तो सतत चाहिए लेकिन वह ज्ञान अज्ञानसंयुक्त शरीर को पोसने में लगता है इसलिए दुःखकारी हो जाता है। यदि वह ज्ञानस्वरूप आत्मा के अनुसंधान में आकर फिर संसार का व्यवहार करता है तो पूजनीय हो जाता है, वंदनीय हो जाता है।"

हरदेव पंडित ने सोचा कि मैं कश्मीर से पढ़कर आया और यह जुलाहे की लड़की मुझे ज्ञान दे रही है। वह बोलाः "चुप रह, ब्राह्मणों को ज्ञान छाँटती है !"

कमालीः "पंडित जी ! ब्राह्मण कौन और बुनकर कौन ?"

हरदेवः "जो जुलाहे लोग हैं वे बुनकर होते हैं और जो ब्राह्मण के कुल में जन्म लेते हैं वे ब्राह्मण होते हैं।"

कमालीः "नहीं पंडित जी ! जो ब्रह्म को जानता है वह ब्राह्मण होता है और जो राग-द्वेष में झूलता रहता है वह जुलाहा होता है।"

हरदेवः "तुम्हारे पिता जी भी ब्राह्मणों के विरुद्ध बोलते हैं, पंडित बदे सो झूठा और तुमने हमारे साथ ऐसा किया ! लेकिन लड़कियों से मुँह लगना ठीक नहीं। चलो तुम्हारे पिता के पास, वहीं खुलासा होगा।"

कमालीः "हाँ, चलिये पिता जी के पास।"

कबीर जी तो अपने सततस्वरूप में रमण करने वाले थे। उन्होंने देखा कि कमाली के साथ कोई पंडित चेहरे पर रोष लिये आ रहा है। कबीर जी ने अपने स्वरूप आत्मदेव में गोता मारा और पूरी बात जान ली।

पंडित बोलाः "तुम्हारी लड़की ने मेरा ब्राह्मणत्व नाश कर दिया। मुझे अशुद्ध पानी पिलाकर अशुद्ध कर दिया।"

जिनको अपने सततस्वरूप का स्मरण होता है, वे छोटी-मोटी बातों में उलझते नहीं। भले बाहर से कभी आँख दिखाके भी बात करें लेकिन भीतर से उलझते नही। वे समझते है कि संसार एक नाटक है।

कबीर जी हँसने लगे, बोलेः "पंडित ! पानी इसके घड़े में आने से अशुद्ध हो गया ! लेकिन कुएँ के अंदर क्या-क्या होता है ? उसमें जो मछलियाँ रहती हैं उनका मलमूत्र आदि उसी में होता है। कछुए आदि और भी जीव-जंतु रहते हैं, उनका पसीना, लार, थूक, मैला, उनके जन्म और मृत्यु के वक्त की सारी क्रियाएँ सब पानी में ही होती है। घड़ा जिस मिट्टी से बना है उसमें भी कई मुर्दों की मिट्टी मिली होती है, कई जीव-जंतु मरते हैं तो उसी मिट्टी में मिल जाते हैं। उसी मिट्टी से घड़े बनते हैं, फिर चाहे वह घड़ा ब्राह्मण के घर पहुँच जाय, चाहे बुनकर के घर। पृथ्वी पर अनंत बार जीव आये और मरे। ऐसी कौन सी मिट्टी होगी, ऐसा कौन सा एक कण होगा जिसमे मुर्दे का अंश न हो। पंडित ! कुआँ तो गाँव का है, उसमें से तो सभी लोग पानी भरते है, कई बुनकरों के घड़े, मटके, सुराहियाँ उसमें पड़ती होंगी। बुनकर के हाथ की रस्सियाँ भी पड़ती होंगी, उसी कुएँ से गाँव के सभी ब्राह्मण पानी भरते हैं और तुम पवित्रता-अपवित्रता कि विचार करते हो, तो अपवित्र विचार यही है कि यह बुनकर है। शूद्र वह है जो हाड़-मांस की देह को 'मैं' मानता है और ब्राह्मण वह है जो ब्रह्म को जानता है अथवा जानने के रास्ते चलता है।"

कबीर जी की युक्तियुक्त बात से पंडित बड़ा प्रभावित हुआ। कबीर जी के दिल में सततस्वरूप का अनुसंधान था। वे घृणा, अहंकार से नहीं, नीचा दिखाने के लिए नहीं बल्कि उसका अज्ञान, अशांति मिटाकर उसको शांति का दान देने के लिए बोल रहे थे। पंडित का गुस्सा शांत हुआ। कमाली को पंडित ने साधुवाद दिया और कहाः "हे देवी ! मैं कृतार्थ हो गया। आज मेरी विद्या सफल हुई कि मैं ऐसे ब्रह्मवेत्ता के चरणों में पहुँचा। तुम्हारे पवित्र हाथों से पानी पीकर मेरा अहंकार भी शांत हो गया, मेरी बेवकूफी भी दूर हो गयी। अब मैं भी आप लोगों के रास्ते चलूँगा।"

जो देह को में मानते हैं वे भगवान के मंदिर में रहते हुए भी भगवान से दूर हैं और जो भगवान के स्वरूप का चिंतन करते है व बाजार में रहते हुए भी मंदिर में हैं। इसलिए सतत चिंतन किया जाय कि जहाँ से मन फुरता है, बुद्धि को सत्ता मिलती है, चित्त को चेतना मिलती है, जहाँ से मन भूख-प्यास का पता लगाता है और मन को पता लगाने का जहाँ से सामर्थ्य मिलता है, उस चैतन्य आत्मा की स्मृति ही परमात्मा की सतत् स्मृति है। उस चैतन्य को 'मैं' मानना समझो सारे दुःख, क्लेश, पाप से परे हो जाना है और उस चैतन्य की विस्मृति, करके देह को 'मैं' मानना मानो सारे दुःख, क्लेश और पापों को आमेंत्रित करना है।

ऋषि प्रसाद, जून 2010, पृष्ठ संख्या 25,26,27 अंक 210

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