कहीं देर न हो जाए.....
मगध नरेश अपनी अश्वशाला और वृषभशाला का बहुत अधिक ध्यान रखता था। वह अपने बलिष्ठ घोड़ों और पुष्ट बैलों को देखने जाता, उनको सहलाता। उसकी वृषभशाला में एक अत्यन्त सुंदर बैल था। उसका सफेद रंग, लम्बे सींग और ऊँचा कंधा किसी का भी ध्यान खींच लेता था। मगध नरेश भी उसे बहुत पसंद करता था।
एक बार नरेश राज्य विस्तार करने दूर देश में चला गया। जब वापस आया तो अपने प्यारे वृषभ को देखने वृषभशाला में गया। उसे देखा तो नरेश दंग रह गया। उसने वृषभशाला सँभालनेवाले वयोवृद्ध सेवक से पूछाः "जिसका सुगठित शरीर, उज्जवल वर्ण, ऊँचा कंधा था, उसी वृषभ का कंधा झूल रहा है, वर्ण निस्तेज हो गया है, जवानी लुढ़क गयी है। आकर्षण का केन्द्र वृषभ इतना दीन-हीन तुच्छ क्यों हुआ ?
सेवक बोलाः "राजा साहब ! इसकी जवानी चली गयी। बुढ़ापे में प्रायः सभी प्राणियों की यह दशा होती है और फिर मौत घेर लेती है। यही दृश्यमान जगत की नश्वरता और तुच्छता समझकर आप सरीखे विचारवान, बुद्धिमान राजा सत्संग का सहारा लेकर सत्यस्वरूप में, शाश्वत स्वरूप में जगे हुए महापुरुषों की शरण में आत्मस्वरूप में जगने के लिए जाते हैं।"
मगध नरेश रात भर इन्हीं विचारों में खोया रहा। मानो राजा के सोये हुए वैराग्य को जगा दिया वृषभ के बुढ़ापे ने और वृषभशाला के अनुभवी सेवक के आप्तवचनों ने। राजा सोचने लगा, 'हाय जगत ! तेरी नश्वरता, परिवर्तनशीलता ! तुझे अपना-अपना मानने वाले सब मर-मिटे। तूने किसी का साथ नहीं निभाया। तू स्वयं नाशवान है। तुझे पाकर जो अपने को भाग्यशाली मानते हैं, वे मूढ़मति स्वप्न के सिंहासन पर शाश्वत अधिकार और शाश्वत सुख की कल्पना में खोये रहते हैं और मृत्यु आकर सबको मिटाती जाती है। मैं भी उसी भ्रम की परिस्थिति में अपना अमूल्य जीवन खो रहा हूँ।
मिली हुई चीज़ छूट जायेगी यह सत्संग में सुना था लेकिन मुझ अधम की राज्य विस्तार की वासना के कारण मैं भटकता रहा। विस्तार-विस्तार में आयु नष्ट हो रही है। यह सुंदर, सुहावना प्यारा वृषभ बुढ़ापे की चपेट में आ गया। राज्य, वस्तुएँ और सत्ता के विस्तार में लगे मुझ जैसे अधमों को धिक्कार है !
हाय मेरी वासना ! जो पूर्ण विस्तृत है उस व्यापक परमेश्वर के पूर्ण विस्तार में जो पूर्ण हो जाते हैं, धन्य हैं वे महापुरूष ! हम प्रकृति की चीजों के विस्तार-विस्तार में नीच योनियों में भटकने के रास्ते जा रहे हैं, जैसे राजा अज, राजा नृग ऐसी वासना में लगकर नीच योनियों में भटके। मैंने भी नासमझी की, नीच योनियों में भटकने का रास्ता पकड़ा।
नहीं.....! अभी नहीं तो कभी नहीं !! बाह्य विस्तार विनाश की ओर ले जाता है, आत्मवस्तु में चित्तवृत्ति का विस्तार स्वतः सिद्ध, विस्तृत ब्रह्म में विश्रान्ति दिलाता है। ऐसे दिन कब आयेंगे कि मैं स्वतः सिद्ध, विस्तृत ब्रह्म में विश्रान्ति पाऊँगा ?
हाय ! मुझे अनित्य शरीर, अनित्य संसार को जानने वाले अपने नित्य नारायणस्वरूप 'मैं' को, जो नर-नारी का अयन है उस आत्मा को जानना चाहिए, पाना चाहिए। देर हो गयी देर ! बुढ़ापा तो इस शरीर भी उतर रहा है। बुढ़ापे की लाचारी, मोहताजी और मौत से पहले ही मुझे परमात्मपद को पाना चाहिए।'
बुद्धिमान मगध नरेश मौत के पहले अमर आत्मा का अनुभव करने वाले सत्पुरुषों के रास्ते चल पड़ा। राजपाट सज्जनों के हवाले करके एकांत अरण्य में सदगुरू की सीख के अनुसार अपने सत्-चित्-आनन्दस्वरूप को पाने में तत्परता से लग गया। धन्य है वह घड़ी जब बूढ़े बैल को बुढ़ापा और मौत की याद आयी और राजा अपने अनामय स्वरूप को, अपने अमर आत्मा को पाने में लग गया। निःस्वार्थी, प्रभुपरायण सम्राट ने राजा जनक की नाईं जीते-जी आत्मसाक्षात्कार कर लिया।
ब्राह्मी स्थिति प्राप्त कर, कार्य रहे न शेष।
मोह कभी न ठग सके, इच्छा नहीं लवलेश।।
"मैं शरीर हूँ और संसार की चीजों से सुख मिलेगा, और चाहिए-और चाहिए...' इस प्रकार की मोहजनित मान्यताओं से पार होकर-
पूर्ण गुरूकृपा मिली, पूर्ण गुरू का ज्ञान।
स्वस्वरूप में जागकर, राजा हुए आत्माराम।।
क्या तुम भी किसी बूढ़े बैल या बूढ़े व्यक्ति को देखकर अपने बुढ़ापे की कल्पना नहीं कर सकते ! मगध नरेश की तरह तुम भी जगना चाहो तो जग सकते हो। अपने आत्मस्वरूप में लगना चाहो तो लग सकते हो। जगना चाहो और लगना चाहो तो अपने आत्मस्वरूप से प्रीति करो। करो हिम्मत ! ॐ ॐ ॐ.... हे जगत तेरी अनित्यता ! हाय मनुष्य, तेरी वासना और अंधी दौड़ !! आखिर कब तक !!!
ॐॐॐ श्री परमात्मने नमः। ॐॐ विवेकादाताय नमः। ॐॐ वैराग्यदाताय नमः। ॐॐ स्वस्वरूपदाताय नमः। श्रीहरि... श्री हरि...
मगध नरेश की नाईं लग पड़ो। पहुँच जाओ अपने परम स्वभाव में।
संकर सहज सरूपु सम्हारा।
लागि समाधि अखंड अपारा।।
(श्री रामचरित. बा.कां. 57.4)
ऐसे ही आप भी अपने स्वरूप को सँभालो। जहाँ न राग, न द्वेष, न भय, न शोक, न अहं, न अज्ञान है, उस स्वस्वरूप को जानने में लग जाओ। वह दूर नहीं, देर नहीं, दुर्लभ नहीं !....
ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ
स्रोतः ऋषि प्रसाद, फरवरी 2010, अंक 206, पृष्ठ संख्या 2,3
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