हरिद्वार एकांत सत्संग समाचार
बापू जी का सान्निध्य गंगा के पावन प्रवाह जैसा है..आज गंगा अगर फिर से साकार दिख रही है तो वे बापू जी के विचार व वाणी में दिख रही है।ऐसे प्रेमावतार सदगुरुदेव जी भगवान के पास पंछी भी कितनी निर्भयता से आते है… हम सभी महा भाग्यशाली है जो ऐसे परम दयालु कृपानिधि ब्रम्हज्ञानी सदगुरुदेव जी भगवान के एकांत की बड़ी दुर्लभ , भक्तो का बेड़ा सहज में पार करानेवाली महा पुण्यदायी अमृत वाणी का पान कर रहे है…। हे परम देव – तुम चलो तो चले धरती, चले अंबर, चले दुनिया…
ऐसे महापुरुष चलते हैं तो उनके लिए सूर्य, चंद्र, तारे, ग्रह, नक्षत्र आदि सब अनुकूल हो जाते हैं।
…सुख दुःख बिमारी ये सब अवस्था आने जाने वाली है… बिमारी आयी ये भी शुध्द चैत्यन्य से दिखता है… शुध्द चैत्यन्य से जो दिखता वो बद्लता है, शुध्द चैत्यन्य नहीं बदलता… बचपन मर गया तो किशोर अवस्था आयी ..किशोर अवस्था मर गयी तो अब यौवन दिख रहा..यौवन मर गया तो बुढापा आया…तो इस आने जाने वाले को देखने वाला चेतन तो था… अपनी मौत किसी ने नहीं देखी … अपनी मौत होती ही नहीं है…मौत होती तो साधन की होती…
जैसे समुद्र में तरंग पैदा हुए..बुलबुले पैदा हुए तो है तो पानी ही..ऐसी अवस्थाये आयी गयी..साधन आये गए.. मेरा चैत्यन्य ज्यों का त्यों है… चैत्यन्य निराकार निर्गुण है.. ..गुणों के संग में जुड़ते तो वैसा जन्म होता… ‘मैं शरीरी है’ तो शरीर का जन्म हुआ.. ‘मैं स्री हूँ’ तो स्री का जन्म हुआ….. ‘मैं दुखी है’ तो दुःख का जन्म हुआ… ‘मैं सुखी’ तो सुख का जन्म हुआ..जैसा अपने को मानोगे वैसा ही कर्म होंगे…
‘सब बदलाहट को देखनेवाला मैं हूँ’ ऐसा जो जानता तो वो जन्म कर्म से दिव्य होगा… जो बिच में होते तो विलक्षण दिखते..जिन की बुध्दी लौकिक और तात्विक में भी ना घटे तो विलक्षण बुध्दी होती…विलक्षण लक्षण दिखाई देंगे…भगवान बोलते, जो ‘जन्म करमच में दिव्यं’ .. ऐसा मुझे जान लेता वो शरीर छोड़ने के बाद मुझे ही प्राप्त होते है..
भगवान के जन्म कर्म दिव्य है..भगवान हर अवस्था में सम है तो हम भी सम रहे… कर्म में कर्तुत्व नहीं माने… फल की इच्छा ना रखे… तो जन्म कर्म दिव्य होंगे…आत्मा की सत्ता से शरीर चलता.. ऐसे व्यापक सत्ता से संसार चलता है ..
सुख दुःख को अपना मानते तो छोटे होते… अपने को नित्य मानते तो नित्य के बल से ही तो अ-नित्य दिखता है… दुःख आया तो सोचो की मैं दुःख को जानता हूँ, दुःख मेरे को नहीं जानता… सुख आया…सुख चला गया… मैं तो नहीं गया, मैं तो रहा ना… बचपन चला गया तुम गए क्या? मैं काली भुत जैसी हूँ, रात को दिखे ही नहीं… काली भुत जैसी भी है, लेकिन गयी क्या? …लेकिन भुत जैसे दिखते ये भी मन की कल्पना ही है..जैसे है तैसे है लेकिन ‘जिस परमात्म सत्ता से दिखते वो देखने वाली सत्ता ‘मैं हूँ’ ऐसा जाने तो जन्म कर्म दिव्य हो गया…! चिंता के भाव में चिंता-मय जन्म होता… दुःख के भाव में आये तो दुःख-मय जन्म होता… ये बहोत ऊँची बात है..
अपने शांत स्वभाव में स्थित बैठे तो बड़ा रस आता है… ब्रम्हज्ञानी के आत्मा के सुख के आगे इन्द्र का सुख भी कुछ नहीं…इंद्र जिस चीज को चाहे, वो आगे आ जाए .. ये सुख की पराकाष्ठा है.. लेकिन आत्म सुख के आगे ये सुख पाने की कला सौ वी कला (१/१००) है.. इंद्र जो चीज चाहेगा वो भोगने के लिए सुख पाने के लिए शरीर की शक्ति खर्चेगा.. आत्मशक्ति वाला शक्ति खर्चेगा ही नहीं, वो तो ऐसे ही सुख में है..!
कोई इच्छा नहीं.. सुख स्वरुप आत्मा चमचम लहेरा रहा है…खुद भी सुख में और जहां नजर डाले उन को भी सुख दिलाये…!!.. ये निर्दोष सुख है..ये अन्तरंग सुख है…!!!