8.4.10

निर्दोष सुख


6अप्रैल 2010;

हरिद्वार एकांत सत्संग समाचार

बापू जी का सान्निध्य गंगा के पावन प्रवाह जैसा है..आज गंगा अगर फिर से साकार दिख रही है तो वे बापू जी के विचार व वाणी में दिख रही है।ऐसे प्रेमावतार सदगुरुदेव जी भगवान के पास पंछी भी कितनी निर्भयता से आते है… हम सभी महा भाग्यशाली है जो ऐसे परम दयालु कृपानिधि ब्रम्हज्ञानी सदगुरुदेव जी भगवान के एकांत की बड़ी दुर्लभ , भक्तो का बेड़ा सहज में पार करानेवाली महा पुण्यदायी अमृत वाणी का पान कर रहे है…। हे परम देव – तुम चलो तो चले धरती, चले अंबर, चले दुनिया…
ऐसे महापुरुष चलते हैं तो उनके लिए सूर्य, चंद्र, तारे, ग्रह, नक्षत्र आदि सब अनुकूल हो जाते हैं।

…सुख दुःख बिमारी ये सब अवस्था आने जाने वाली है… बिमारी आयी ये भी शुध्द चैत्यन्य से दिखता है… शुध्द चैत्यन्य से जो दिखता वो बद्लता है, शुध्द चैत्यन्य नहीं बदलता… बचपन मर गया तो किशोर अवस्था आयी ..किशोर अवस्था मर गयी तो अब यौवन दिख रहा..यौवन मर गया तो बुढापा आया…तो इस आने जाने वाले को देखने वाला चेतन तो था… अपनी मौत किसी ने नहीं देखी … अपनी मौत होती ही नहीं है…मौत होती तो साधन की होती…
जैसे समुद्र में तरंग पैदा हुए..बुलबुले पैदा हुए तो है तो पानी ही..ऐसी अवस्थाये आयी गयी..साधन आये गए.. मेरा चैत्यन्य ज्यों का त्यों है… चैत्यन्य निराकार निर्गुण है.. ..गुणों के संग में जुड़ते तो वैसा जन्म होता… ‘मैं शरीरी है’ तो शरीर का जन्म हुआ.. ‘मैं स्री हूँ’ तो स्री का जन्म हुआ….. ‘मैं दुखी है’ तो दुःख का जन्म हुआ… ‘मैं सुखी’ तो सुख का जन्म हुआ..जैसा अपने को मानोगे वैसा ही कर्म होंगे…
‘सब बदलाहट को देखनेवाला मैं हूँ’ ऐसा जो जानता तो वो जन्म कर्म से दिव्य होगा… जो बिच में होते तो विलक्षण दिखते..जिन की बुध्दी लौकिक और तात्विक में भी ना घटे तो विलक्षण बुध्दी होती…विलक्षण लक्षण दिखाई देंगे…भगवान बोलते, जो ‘जन्म करमच में दिव्यं’ .. ऐसा मुझे जान लेता वो शरीर छोड़ने के बाद मुझे ही प्राप्त होते है..

भगवान के जन्म कर्म दिव्य है..भगवान हर अवस्था में सम है तो हम भी सम रहे… कर्म में कर्तुत्व नहीं माने… फल की इच्छा ना रखे… तो जन्म कर्म दिव्य होंगे…आत्मा की सत्ता से शरीर चलता.. ऐसे व्यापक सत्ता से संसार चलता है ..

सुख दुःख को अपना मानते तो छोटे होते… अपने को नित्य मानते तो नित्य के बल से ही तो अ-नित्य दिखता है… दुःख आया तो सोचो की मैं दुःख को जानता हूँ, दुःख मेरे को नहीं जानता… सुख आया…सुख चला गया… मैं तो नहीं गया, मैं तो रहा ना… बचपन चला गया तुम गए क्या? मैं काली भुत जैसी हूँ, रात को दिखे ही नहीं… काली भुत जैसी भी है, लेकिन गयी क्या? …लेकिन भुत जैसे दिखते ये भी मन की कल्पना ही है..जैसे है तैसे है लेकिन ‘जिस परमात्म सत्ता से दिखते वो देखने वाली सत्ता ‘मैं हूँ’ ऐसा जाने तो जन्म कर्म दिव्य हो गया…! चिंता के भाव में चिंता-मय जन्म होता… दुःख के भाव में आये तो दुःख-मय जन्म होता… ये बहोत ऊँची बात है..

अपने शांत स्वभाव में स्थित बैठे तो बड़ा रस आता है… ब्रम्हज्ञानी के आत्मा के सुख के आगे इन्द्र का सुख भी कुछ नहीं…इंद्र जिस चीज को चाहे, वो आगे आ जाए .. ये सुख की पराकाष्ठा है.. लेकिन आत्म सुख के आगे ये सुख पाने की कला सौ वी कला (१/१००) है.. इंद्र जो चीज चाहेगा वो भोगने के लिए सुख पाने के लिए शरीर की शक्ति खर्चेगा.. आत्मशक्ति वाला शक्ति खर्चेगा ही नहीं, वो तो ऐसे ही सुख में है..!
कोई इच्छा नहीं.. सुख स्वरुप आत्मा चमचम लहेरा रहा है…खुद भी सुख में और जहां नजर डाले उन को भी सुख दिलाये…!!.. ये निर्दोष सुख है..ये अन्तरंग सुख है…!!!

अवतरण दिवस का वंदन हैं ….



हरिद्वार एकांत सत्संग समाचार

4 अप्रैल 2010;

पूज्य बापूजी एकांत में है…फिर भी भक्त गण अवतरण दिवस के अवसर पर दर्शन के लिए अभिलाषी है..उन का प्यार और स्नेह बापूजी को एकांत से थोड़ी देर के लिए ही सही बाहर खिंच के लाया है…जनम दिवस को मनाना बापूजी को अच्छा नहीं लगता..बापूजी कहेते है : “गरीबो को आर्थिक मदद,बिमारो को फल, गरीबो को कपडे बाटना .. कीर्तन भजन यात्रा करना…सत्संग का साहित्य बाटना.. इस प्रकार अध्यात्मिक सेवा करना ऐसा जनम दिवस मना ले तो चले.. मैं तो कहेता हूँ , खाली सेवा दिवस नहीं साधना दिवस मनाओ…खाली सेवा और साधना नहीं सत्संग दिवस भी मनाओ..सत्संग सुनो, औरो को सुनाओ ..मैं तो इतने से भी राजी नहीं, इस से आगे बोलूंगा.. इस दिवस को आत्म-विश्रांति दिवस बना लो..जो भी करते जिस की सत्ता से कर रहे उस में विश्रांति पाओ…इस दिवस को अध्यात्मिक सेवा,साधना, सत्संग और आत्म विश्रांति दिवस मनाये….”

….जन्मदिवस असल में सेवा दिवस, साधना दिवस, सत्संग दिवस, आत्म -विश्रांति दिवस के रूप में मनाये…

जो जनम दिवस के दिन सोचते की , ‘अगले साल इतना कमाउंगा .. ऐसा वैसा..अभी इतना पढ़ा हूँ ऐसा बन के दिखाना है..आदि आदि..’ .. बोलते वो ये समझ ले की अपने को कर्म के दल-दल में ना फेंके.. श्रीकृष्ण के नजरिये को अपनाए…कर्म में धन लोलुपता, फल आकांक्षा ना रखे तो तुम्हारे ज्ञान स्वभाव की ना मृत्यु होगी ना जन्म..

शरीर के तो करोडो करोडो बार जन्म हुए, मृत्यु हुयी… केवल ये ना-समझी है की , ‘मैं ’ दुखी हूँ.. ‘मैं ’ बच्चा हूँ.. ‘मैं ’ फलानी जाती का हूँ.. ये सभी व्यवहार की रमणा है..अपना व्यवहार चलाने के लिए बाहर से चले लेकिन अन्दर से जाने की “सोऽहं.. सोऽहं” मैं वो ही हूँ!..सत -चित-आनंद स्वरुप!….जो पहेले था, बाद में भी रहेगा वो ही मैं अब भी हूँ…


अगर सत्संग समझ में आया तो निर्लेप नारायण में प्राप्त हो सकता है.. जो नहीं है उस को नहीं मानो और जो है उस को मानो बस!… बचपन,जवानी, बुढापा कुछ भी रहेने वाला नहीं, उस को जानने वाला सदा रहेगा… ‘इदं’ बोलते वो सच्चा नहीं लेकिन ‘इदं’ जिस से प्रकाशित होता वो सच्चा है…


बोले, ‘बाबा मेरा बेटा ठीक नहीं’ ..दुनिया में कई बे-ठीक है..मेरा कुत्ता ठीक नहीं ..तो दुनिया में कई कुत्ते है..

जितना बे-ठीक है उस को जाने दो… जो ठीक है उस में ही आप बैठ जाओ..

तो अवतार भगवान के होते है… स्फूर्ति अवतार होता…. प्रवेश अवतार भी होता है.. अवतारो को जान लो…

अवतरिती इति अवतार |

ऐसे वास्तविक में आप का भी अवतार ही है..ये ज्ञान भी केवल मनुष्य जनम में ही आयेगा… अब समझो की इस मनुष्य देह से विशेष सम्बन्ध नहीं …जैसे और देह छुट गया ऐसे ये भी छुट जाएगा…जहां जाना है वहाँ पहुँचने के लिए जैसे बस से जाते तो पहुँचने पर बस छोड़ देते ऐसे इस शरीर को छोड़ देंगे..ऐसे शरीर सबंध को छोड़ देंगे…इन को साथ नहीं रख सकते…आप तो असल में चैत्यन्य है लेकिन जुड़ते संबंधो से…मनुष्य देह में आये.. ये सदा साथ नहीं रहेता… ऐसे शरीर के संबंधो को सदा साथ में नहीं रख सकते.. जो सदा साथ है, उस को कभी छोड़ नही सकते, तो जिस को छोड़ नहीं सकते उस को ‘मैं ’ मानने में क्या आपत्ति है? उस को अपना ‘मैं ’ मानो… जिस को नहीं रख सकते उस की आसक्ति छोड़ दीजिये…

आप अपने ज्ञान स्वभाव को छोड़ सकते है क्या? ‘ये भगवान है’ ये समझने के लिए भी ज्ञान स्वभाव चाहिए…

अपना ज्ञान स्वभाव नित्य अवतरित होता रहेता है.. परिस्थितियाँ बदल जाती परमात्म सत्ता ज्यों की त्यों रहेती है.. अपना ज्ञान स्वभाव नित्य अवतरित होता रहेता सभी परिस्थितियों में… उस से ही परिस्थितियों का पता चलता है.. परिस्थितियाँ बदल जाती लेकिन परमात्मा ज्यों का त्यों रहेता है..


तो भगवान के अवतार होते रहेते है…ऐसे परशुराम जी का आवेश अवतार तब तक था जब राम जी अवतार लेकर आये …राम जी आये तो फिर वो अवतार उन में समा गया… राम जी और कृष्ण जी का अवतार भी सदा के लिए नहीं, रावण और कंस के लिए नैमित्तिक अवतार था..

ऐसे ही भगवान के ज्ञान स्वभाव, चैत्यन्य स्वभाव का, लोक मांगल्य स्वभाव का अवतरण संतो के रूप में होता है.. इस को नित्य अवतरण बोलते है ..संतो के रूप में जो भगवान का अवतरण होता इस को नित्य अवतरण बोलते है..


भगवान का अर्चना अवतार भी होता है.. एक भक्त ने हनुमानजी की उपासना की…भक्त हनुमानजी के सामने अर्चना में ध्यान मग्न बैठा है..उस का वैरी आया की पीछे से रामपुरी आर-पार कर दूँ तो सदा के लिए मिट जाएगा….उस को भक्त के पीठ में छुरा भोकना है.. तो हनुमान जी के मूर्ति के २ टुकड़े हुए और हनुमान जी प्रगट हो कर उस को सीधा यमपुरी पहुंचा दिया…तो यहाँ हनुमान जी कही से भाग के आये ऐसी बात नहीं..या उन को भक्त ने बोला ऐसी भी बात नहीं….लेकिन कण कण में जो ज्ञान सत्ता , चैत्यन्य सत्ता व्याप रही है वो आवेश अवतार के निमित्त रक्षा करने के लिए प्रगट भी हो जाती है…. …ऐसा ही प्रल्हाद की रक्षा के लिए आवेश अवतार नरसिंह अवतार हुआ, द्रोपदी की रक्षा के लिए साड़ीयों में प्रवेश अवतार हुआ..

पवन तनय


पवन तनय

30 मार्च 2010 ;

हरिद्वार सत्संग..हनुमान जयंती.

कलियुग में श्री राम

संतश्री आसाराम ll

सुरेशानन्द है स्वामी के

भक्त श्री हनुमान ll

हनुमानजी चिरंजीवी है…
भक्त कही भी रहे उन की कृपा का अनुभव कर सकते है ..
जब हनुमान जी समुन्दर पार जा रहे थे तब मैनाक परबत ने रास्ता रोका… ‘आओ वीर हनुमान..चारो ओर समुद्र है, मीठा पानी कही नहीं…मेरे यहाँ मीठा पानी पि यो , फल खाओ’ ….लेकिन हनुमान जी ने ना फल खाए, ना मीठा पानी पीया…बोले, ‘मुझे पहेले राम काज पूरा करना है’ …हम भी भक्ति के रास्ते में , ब्रम्ह विद्या प्राप्त करने के लिए चले तो भटक ना जाए…कही अटक ना जाए अपनी साधना की यात्रा चालु रखे..

प्रवृत्ति रूपी लंका में प्रवेश करो तो नर हरी का गुरु का..गुरु तो नर के रूप में नारायण है…सदगुरुदेव का स्मरण कर के आगे चले तो सफलता मिलेगी… हनुमान जी ने कैसे नाम, प्रतिष्ठा की इच्छा नहीं राखी… सेवा और सुमिरन तो बहोत किया…राम काज करने को आतुर रहेते…
हनुमान जी को इच्छा है तो किस बात की…


विद्यावान गुणी अति चातुर
राम काज करने को आतुर
प्रभु
चरित सुनने को रसिया
राम लखन सीता मन बसिया..

आज कल लोग बोलेंगे मेरी अमुक बूट पहेन ने की इच्छा है.. आइस – क्रीम खाने की इच्छा है… अमुक ड्रेस पहेन ने की इच्छा है… अमुक फिल्म देखने की इच्छा है..लेकिन हनुमानजी?

…हनुमान जी भगवान राम से पहिली बार मिलते तो ब्राम्हण का रूप लेकर जाते.. भगवान से बात-चित होती…
भगवान राम जी ने पूछा , ‘आप कौन है ब्राम्हण?’
तो हनुमानजी अपना परिचय कैसे देते है?… उन की नम्रता देखिये!


एक मैं मंद मोह वश कुटिल ह्रदय अज्ञान
पुनि प्रभु मोहे बिसारियो कृपा सिन्धु भगवान’


एक तो मैं मंद हूँ, कुटिल ह्रदय… अज्ञान हूँ… और आप ने मुझे भुला दिया है..ऐसा परिचय देते है..

तुलसीदास जी क्या कहेते… ‘पवन तनय संकट हरण , मंगल मूर्ति रूप. राम लखन सीता सहित, ह्रदय बसहु सुर भूप’ कहेते है….

भगवान राम हनुमान जी को कहेते की, ‘हनुमान मैंने तो तुम्हारा एक ही गुण कहा… वायु के ३ गुण होते… शीतल, मंद बहेती, सुरभित होती है….’
हनुमान जी हँसे…
बोले, “प्रभु हवा गरम भी तो होती है गर्मियों में!..आप गुण बताते लेकिन मैं सच्चाई बता रहा हूँ..हवा मंद बहेती लेकिन तेज तर्रार भी तो बहेती है…सुरभित तो होती है जब सुगंध को साथ ले आती है..लेकिन जब गन्दी जगह से गुजरे तो अपने साथ बदबू भी तो लाती है… प्रभु आप की कृपा हो तो सब बढ़िया हो सकता है! आप का नाम का सहारा है तो सब अच्छा होता है !!”
…राम जी खुश हुए उन की नम्रता देख कर….भगवान ने हनुमान जी को ह्रदय से लगाया…भगवान राम जी के आँखों में आंसू आ गए..!
भक्त सेवक को स्वामी गले लगा रहा है और स्वामी के आँखों में आंसू आये..एक या दो नहीं… आसुओ की धारा बहे चली…हनुमान जी बोलते…स्वामी हवा बहोत गरम चल रही हो और बारिश हो जाती तो कैसे हो जाता है ऐसे हमारी उष्णता को आप दूर कर देते… शीतलता देते हो ….


‘तब रघुपति निज लोचन सींच आसू!’


राम जी के आँखों में आंसू आते है…. भक्त तो सदा ही गद गद है, लेकिन आज राम जी गद गद हो गए!!



…हनुमानजी ने प्रेरणा दी है की हम ऐसे भक्त बने….
अपने दोषों को याद ना करे…स्वामी के गुणों को याद करे बस..उन का चिंतन करने से हमारे में वो गुण आ जायेंगे …जैसे पवन सुगंध शीतलता ये दुसरे के गुणों का प्रचार करते ऐसे हनुमान जी जहा भी जाते अपने स्वामी का गुण गान करते..कभी अपना बखान नहीं करते…

पूनम दर्शन सत्संग समाचार


पूनम दर्शन सत्संग समाचार

30 मार्च 2010 ; हरिद्वार

भक्तो के तारण हार, परम कृपालु पूज्य बापूजी आज पूनम निमित्त ३ जगह अवतरित हो रहे है…सुबह हरिद्वार , दोपहर रजोकारी आश्रम देल्ही , और शाम को अहमदाबाद आश्रम में…धन्य हो परम दयालु जी की…भक्तो का समय, शक्ति और पैसे बचे और भगवत भक्ति में लगे इसलिए कितनी दौड़ भाग करते है….!
आज के हरिद्वार के शाही स्नान पर्वणी, श्री हनुमान जयंती और पूनम के इस परम पुण्यदायी सत्संग अमृत वाणी में प्यारे बापूजी ने अपने प्यारो को जग के व्यवहार में कैसे चले इस का मार्गदर्शन किया है..

हे दाता तेरा सत्संग बड़ा अच्छा लगता है

तेरा दीदार और दरबार अच्छा लगता है

तेरा मंद मंद मुस्कुराना बड़ा अच्छा लगता है

तेरा प्यार से डांटना भी बड़ा अच्छा लगता है

तेरा झूमना और झुमाना अच्छा लगता है

तेरा दीदार पाना बड़ा अच्छा लगता है

निर्मल है ये गंगा मैय्या पाप सभी के धोती

जोगी के सत्संग में आकर मति पावन हो जाती

जो गी रे क्या जादू है तेरे प्यार में…

कुम्भ पुण्य का योग है आया हरिद्वार में आया

तन मन उस का पावन जिस ने मन जोगी में लगाया

जोगी रे…

गंगा की धारा में नहा के तन निर्मल हो जाए

जोगी का सत्संग सुनो तो जनम मरण मिट जाए

जोगी रे…

तेरे कई अवतार है जोगी नाम है कितने तेरे

तेरे सुमिरन से कट जाते जनम मरण के फेरे

जोगी रे…

भक्त जनो के लिए जोगी ने कैसा रूप बनाया

कभी राम और शाम कभी बापू बन के आया

जोगी रे ….


हिन्दू मुस्लिम सिख इसाई सब को दर्शन भाये

एक बार जो दर्शन पाए इन के ही हो जाए

जोगी रे….

रंग बिरंगी दुनिया के ये सारे रंग है झूठे

मेरा जोगी ऐसा रंग दे कभी ना फिर वो छूटे

जोगी रे….

बैजू बावरा


28 मार्च 2010;

हरिद्वार सत्संग समाचार


पूज्य बापूजी इस गाय माता से बहोत राजी है….. दर्शक जहां से भी देखे उस को लगता है की ये गो माता उस को ही देख रही है!!!!!!

गीता के ४थे अध्याय का १७ वा श्लोक है :-

कर्मणो ह्यपि बोध्दव्यं बोध्दव्यं च विकर्मणा: l
अकर्मणश्च बोध्दव्यं गहना कर्मणो गति: ll

भगवान कहेते कर्म, वि-कर्म और अ-कर्म क्या है ये जान लेना चाहिए…क्यों की कर्मो की गति गहन है..किसी कर्म को करने में मनुष्य
अपना हीत समझता है, लेकिन हो जाता है अ-हीत…वह लाभ के लिए करता है , लेकिन हो जाता है नुक्सान, वो सुख के लिए करता
है लेकिन हो जाता है दुःख!इसलिए मनुष्य को कर्म योग क्या है ये जान लेना चाहिए.. विकर्म का योग भी जानना चहिये, अ-कर्म का योग
भी जानना चाहिए… कर्म की गति बड़ी गहन है…

मंगल मन्त्र


24 मार्च 2010; हरिद्वार सत्संग
श्री सुरेशमहाराज की गुरुभाक्तिमय अमृत वाणी


४ गुप्तियाँ है,साधना में आगे बढ़ने के लिए..
एक है “अर्थ गुप्ती” …जो सत्संग में जो ज्ञान सूना उस का सही अर्थ समझना बहोत जरुरी है.. जिस में काली मिर्च, बादाम, इलायची डाली और उस को ठंडाई बोलते ऐसी ना- समझियाँ पाल रखी है..काली मिर्च, बादाम और इलायची की तासीर कितनी गर्म है,तो इन चीजो से बनी चीज ठंडाई कैसे ठंडी हो सकती है?..जो ऐसा मानते, भगवान बचाए उन को…
तो वचनों का सही अर्थ जाने.. गुरु क्या कहेना चाहते वो जान कर, उस वचन का सही अर्थ जानकर फिर मानो तो कल्याण होता है..

दूसरी , “वचन गुप्ती” है.. वचन गुप्ती माना मन की शक्ति को जाने..मन के फैलाव को रोके.. तो मन के फैलाव को कैसे रोके? दीर्घ प्रणव करे ओमकार का…
सुबह धुप कर के धीमी आवाज में ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ… निरंतर तेल धार-वत … खाली श्वास लेने के लिए रुके… फिर बोलते
रहे..फालतू बाते सोचे नहीं… शांत रहे…

तीसरी है, “वाणी गुप्ती” ..वाणी ऐसा सेतु है जिसके द्वारा हम दुसरे तक पहुंचते है..
बोलते रहे तो औरो तक हम पहुंचते ; ऐसे मौन रहे तो वो भी सेतु है , मौन से ईश्वर तक हम पहुंचते..!
एक बुजुर्ग संत से किसी ने पूछा, ‘अपने देश में इतनी भाषाए है, देश विदेशो में अलग भाषायें है..भगवान कौन सी भाषा
समझते? इतनी सारी भाषायें है’
संत ने कहा, ‘भगवान मौन की भाषा समझते..’
मंदिर में जाओ तो गिड़गिडाते ही नहीं रहे, चुप भी बैठे..

चौथी है, “क्षुद्र-काय गुप्ती” ….शरीर के अध्यास को गलाते जाए..
काया की मुख्य अवस्था भुलकर दिखावटी में व्यर्थ्य का समय गवाते..
संत का समय शक्ति खर्च कर देते..
मैंने आश्रम में रहेने वाले गुरुभाईयों से कभी फालतू प्रश्न नहीं पूछे ..बस गुरुदेव का सत्संग मन लगाकर सुनता.. मन नहीं
लगता, कैसे करे? किसी से नहीं पूछा…ये तो मुझे सुन सुन कर पता चला की ‘मन नहीं लगता’ ये भी बात है… फालतू
परिस्थिति को महत्त्व देते, गुरु के वचनों को, गुरुदेव से मिले हुए भगवान के नाम को, जप को महत्त्व दे तो परिस्थति घुटने टेकते
जायेगी.. अ-लभ्य कुछ नहीं रहेगा..कोई उपलब्धि अ-लभ्य नहीं रहेगी..

मन में ४ भाव आये तो उत्साह बना रहेगा, भाव जगत में रूपांतरण हो… संशुध्दी हो भाव में… मन सम्बन्धी तप सब से उत्तम तप
है..ये ४ भाव जीवन में हो तो ह्रदय के भाव शुद्ध होते…और इन ४ भावो के विपरीत तत्व जीवन में हो तो ह्रदय के भाव अशुद्ध होते..
१) मैत्री
२) करूणा
३) प्रमोदिता और
४) कृतज्ञता
ये ४ भाव ह्रदय की शुध्दी करते ..ये भाव मन में आये तो ह्रदय की संशुध्दी सदा बनी रहेगी..फिर आप की सदा तपस्या हो रही
है.. गंगा नहाने जा रहे पैदल तो भी तपस्या जारी है..
ये ४ भावो के विपरीत तत्व कौन से है?
मैत्री के विपरीत है घ्रूणा
करूणा के विपरीत है हिंसा.
प्रमोदिता के विपरीत है विषाद, चिंता.
कृतज्ञता के विपरीत है गद्दारी.

किन बातो से भाव प्रभावित है इस का महत्त्व है..बोले, उस ने ऐसा किया तो क्रोध तो आयेगा ना..क्रोध में शक्ति खर्च होती है..
मैत्री में शक्ति विकसित होगी.
मैत्री माना फ्रेंडशिप- दोस्ती नहीं, मित्र भाव..गुजराथी में एक भजन है :
मैत्र का झरनों मुझ हैय्या में बहा करे..
शुभ थाऊ आ सकल विश्व नु…
मेरे दिल से मित्र भाव का ..पवित्र भाव का झरना सदा बहेता रहे..
महापुरुषो ने मैत्री की शक्ति की बुनियाद रखी है.. महापुरुषो ने हमेशा इसी की नीव राखी है.. शत्रुता से मानवता का बहोत
नुकसान होता है….प्रेम के झरने भीतर है, शुभ थाऊ आ सकल विश्व नु..सारे विश्व का कल्याण हो ऐसा पवित्र मैत्र भाव का
झरना मेरे अंतर में सदा बहेता रहे..
अ-शुध्द भाव बाहर से प्रभावित होते..अन्दर के भाव से जुड़े भाव शुध्द होते है…साधक के ह्रदय के भाव सामनेवाले को भक्ति
से भर दे, ऐसे भाव होने चाहिए…कोई हम से भिड़ने की कोशिश करे तो भी हम किसी से लडे नहीं..अपना समय शक्ति खर्च करे
नहीं व्यर्थ्य में…
शत्रुता बाहर है , मैत्री भीतर है..
सरोवर में कैसे भी बाल्टी डालो पानी तो आयेगा ही..हम कही भी जा रहे हो, कोई हम को गाली दे दे, और हम को क्रोध आया तो समझो
बाहर में भाव बहे रहे..आज कल लोगो का दिमाग तो जैसे इको पॉइंट की तरह काम करता है.. किसी ने कुछ सुनाया तो तुरंत उलटा
सूना देते..
एक सोसाइटी में गधा मर गया तो बदबू आ रही थी.. तो सोसाइटी वाले ने म्युनिसिपलिटी के ऑफिस में फ़ोन किया..तो वहा के आदमी ने
सुनाया की, ‘आप भी तो पंडित है, सब जानते है, तो आप ही उस गधे की अंतिम क्रिया संस्कार वही कर दो’
इसने भी तड़ाक से सूना दिया, ‘मैं तो कर दूँ, लेकिन सोचा उस के रिश्तेदारों को फ़ोन तो कर दूँ!’
‘उस ने ऐसा किया तो मैं भी ऐसा जबाब दूँ’ ऐसे प्रतिक्रया में नहीं जिए..
हम दूसरो को ठीक नहीं कर सकते, हम अपने को ठीक कर के चले..

राम नवमी सत्संग समाचार


24 मार्च 2010; हरिद्वार राम नवमी सत्संग समाचार

लोक लाडले परम पूज्य संतश्री आसाराम बापूजी को वेद, वेदान्त, गीता, रामायण, भागवत, योगवाशिष्ठ-महारामायण, योगशास्त्र, महाभारत, स्मृतियाँ, पुराण, आयुर्वेद आदि अन्यान्य धर्मग्रन्थों का मात्र अध्ययन ही नहीं, आप इनके ज्ञाता होने के साथ अनुभवनिष्ठ आत्मवेत्ता संत भी हैं | हरिद्वार में लाखो लोग पूज्यश्री के सान्निध्य में ईश्वरीय आनंद, सुख, माधुर्य,ज्ञान और ध्यान में शान्ति का अनुभव कर रहे है…. सच ही कहा गया है की स्वयं गंगाजी भी बापूजी जैसे संतो के आगमन से ही स्वयं को पवित्र होने का अनुभव करती है……

भगवान सर्व व्यापक है तो अवतरित होने पर लाचारी की स्थिति दिखाने की क्या जरुरत थी..सोचो..

ह ssssssssssरी..ओ ssssssssssssssssssssम्म्म्म्म्म्म्म्म्म्….
हरि ॐ के लम्बे उच्चारण से बुध्दी में शान्ति और बल आता है..

भगवान सर्व व्यापक है, सर्व समर्थ है तो उन को गोबर उठाना, गाय चराना या ‘हाय सीता’ करना, ये सब दिखाने की क्या दरकार पड़ी थी? ज़रा सोचो ऐसा क्यों हुआ?
भगवान कृष्ण रात को १२ बजे आये और भगवान राम दिन के १२ बजे आये… बोले दीन दयाला.. दीनो पे दया कर के आये.. अ-प्रगट प्रगट हो के आये ….अ-व्यक्त व्यक्त हो के आये … निराकार सगुण साकार बन के क्यों आये?
क्यों की भगवान निर्गुण निराकार , सर्व व्यापक , सर्व समर्थ है तो उन के भक्त में भी ये ताकद है..

तुलसी मस्तक तब नमे धनुष्य बाण लियो हाथ
कित मुरली कित चन्द्रिका कित गोपियन का साथ?

बांके बिहारी ने तुलसी दास जी के कहेने पर धनुष्य-बाण हाथ में लिया! तुलसीदास के संकल्प में इतना बल है…
ये क्या भगवान की लीला है ? बुध्दी को लगाए तो बुध्दी के दोषों का परिमार्जन हो जाता है… बुध्दी शुध्द हो जाती है…तुलसीदास जी ये जानते थे कृष्ण ही राम जी है..कृष्ण जी और राम जी एक ही भगवान है तो एक वृन्दावन वाला , एक अयोध्या वाला भगवान ऐसा कैसा होगा बोले ?..जानते थे.. मानवीय संकल्प से ईश्वरीय सत्ता का निर्गुण निराकार, सर्व व्यापक, सर्व समर्थ रूप प्रगट हो जाता है..
भगवान बोलते की मैं निष्काम हूँ , मुझे ना किसी से द्वेष है ना मुझे कोई प्रिय है..ऐसे भगवान को कैसे किसी का प्रिय किसी का द्वेषी बना दिया? अ-व्यक्त को व्यक्त, अखंड को खंड के रूप में कैसे प्रगट कर दिया?
तो ये मानवीय चेतना की महिमा है..
आज सच्चिदानंद पर धामा
व्यापक ते ही धरी देह चरी नाना

धरोहर


२१ मार्च २०१० ; इंदौर सत्संग समाचार पार्ट-१

पूज्य संतश्री आसाराम बापूजी के आश्रम में चलने वाले आयुर्वेदिक औषधियों से अब तक लाखों लोग लाभान्वित हो चुके हैं | संतश्री के मार्गदर्शन में आयुर्वेद के निष्णात वेदों द्वारा रोगियों का कुशल उपचार किया जाता हैं | अनेक बार तो प्रख्यात चिकित्सायलों में गहन चिकित्सा प्रणाली से गुजरने के बाद भी अस्वस्थता यथावत् बनी रहने के कारण रोगी को घर के लिए रवाना कर दिया जाता हैं | वे ही रोगी मरणासन्न स्थिति में भी आश्रम के उपचार एवं संतश्री के आशीर्वाद से स्वस्थ व तंदुरूस्त होकर घर लौटते हैं | साधकों द्वारा जड़ी-बूटियों की खोज करके सूरत आश्रम में विविध आयुर्वेदिक औषधियों का निर्माण किया जाता हैं |

  • एक ऐसा आविष्कार हाथ आया है की उस दवा को २० दिन रोज 0.25(कार्टर= १/४ = एक चौथाई)ग्राम खाना है..कार्टर ग्राम माने ग्राम का चौथा हिस्सा…एक पाकेट में 20 दिन का खुराक है..20 पुड़ियाँ है…रोज कार्टर ग्राम चुसो.. ५ ग्राम का पाकेट मिलेगा…सभी रोग बीमारियों से बचोगे…स्वास्थ्य बढ़िया रहेगा..
  • ऐसा नेत्र बिंदु आया है की चश्मा उतर जाए अढाई महीने में ऐसा ड्रॉप डालो.. चश्मा नहीं उतरा तो मैं शिमला हारा!(विनोद में!) :)

मोहब्बत जोर पकडती तो शरारत का रूप धारण करती है! :)

एक शिष्य ने पूछा की ब्रम्हस्वरूप गुरु ने शिष्य को अपना मान लिया ये कैसे पता चलेगा? बोले जैसे अपने बेटे को हाथ पैर मारते, मार पिट करे, गलती हुयी तो डांट देने में देर ना करे तो समझ लेना गुरु ने चेले को अपना मान लिया! :)

धरोहर नाम के सिन्धी ग्रन्थ का विमोचन हो रहा है…बिखरे फूल एक माला में आये इसलिए ये ग्रन्थ बनाया है..इंदौर चेटीचंड समिति को शाबास है की ९ दिन का उत्सव मनाया, ग्रन्थ छापा, लेकिन सब से बड़ा काम ये है की ब्रम्हज्ञान का 3 दिवसीय सत्संग दिलाया सभी को….कानपूर में नारायण (गुरुपुत्र श्री श्री नारायण साईं जी ) सत्संग कर रहा , वहा भी लोग सुन रहे, दुबई, अबुधाबी,कुवैत, कनाडा , अमेरिका,स्पेन, साउथ कोरिया, जर्मनी ,जापान, हांगकांग आदि १५६ देशो में ये सत्संग जा रहा है..और वि. सी. डी. के माध्यम से कितने कितने लोगो तक पहुंचेगा.. धरोहर सिन्धी ब्रम्ह ग्रन्थ का विमोचन ब्रम्ह कर रहे :) …. इंदौर में परम दिव्य साफल्य ये है की आखरी 3 दिन आरोग्य, शांति और आत्म ज्ञान का अमृत के रस पिलानेवाला सत्संग आयोजन किया है.. इस ग्रन्थ का विमोचन भारत के साथ 156 देश के लोग देख रहे ….हम गाँठ खोलते और विमोचन हो जाता है…. हम कभी रिबन काटते नहीं… :) गाँठ खोलते!

इंदौर समिति ने एक सुन्दर काम और भी किया क़ी देशभर सिन्धी बोली में भजन गाया जाएगा “जोगी रे..” झुलेलाल समिति की ये बड़ी भारी उपलब्धि है.. इस उत्सव की ख़ुशी में धरोहर का विमोचन और इस भजन की शुरुवात यही से होगी..इंदौर सत्संग की क्यासेटे, विसीडी इंटरनैशनल हो गयी..

इस धरोहर नाम के पुस्तक का विमोचन तो मैंने कर दिया… लेकिन तुम्हारे ‘धरोहर’ का विमोचन मैं नहीं कर सकता ! वो तो तुम्हे ही करना होगा…वो धरोहर कही दूर नहीं, तुम्हारे अन्दर है! आत्मा परमात्मा की धरोहर है…जैसे कायी पानी को ढकती ऐसे अज्ञान से आप की आत्मा रूपी धरोहर ढक गयी है.. कल्पना के संस्कार की कायी मिटाकर उस आत्म-धरोहर का सुख, माधुरी, नित्य नए रस के अमृत के सागर का उदघाटन तुम्हे ही करना है…

सभी भगवान की अमर संतान है… शरीर मैं हूँ, कुछ खा कर, कुछ बनकर, कुछ पाकर,कुछ छोड़कर ही सुख मिलेगा, मजा आयेगा ये भरम ने तुम्हारे धरोहर को ढक दिया है….

भगवान का मुंह कहाँ है ?


श्री सुरेश महाराज की गुरुभक्तिमय अमृतवाणी

२१ मार्च २०१० ; इंदौर सत्संग समाचार


सत्संग से अनगिनत लाभ और कई यज्ञ करने के पुण्य होते है..

लेकिन अभी हम सत्संग पंडाल में बैठे है तो अभी भी हमें यहाँ बैठने मात्र से ५ लाभ हो रहे है…सत्संग पंडाल में ५ दोष लगने के अवसर निकल जाते…

पहेला लाभ तो ये है की यहाँ बैठे है तो दंभ करने का अवसर निकल जाएगा…घर में होते या कही ओर होते तो अब तक कितनी बार आईना देखते या और कुछ करते की मैं ऐसा, मैं वैसा…ये दंभ है..यहाँ बैठे है तो भगवत प्रीति में..गुरुदेव की पावन याद में..

दूसरा लाभ ये है की हमारा शरीर ठीक रहेता…

एक साधक महाराष्ट्र से आया था, हरिद्वार के सत्संग में..उस को थोडा सिरदर्द हो रहा था..सोचा की ठीक हो जाएगा..बापूजी व्यासपीठ पर पधारे..सत्संग शुरू हुआ..और इस भाई का सिरदर्द भी जोर से शुरू हुआ..ऐसा की उस से बैठा ही न जाए..सोच रहा था कि, बापूजी व्यासपीठ पर है, सत्संग के बिच उठ जाना भी ठीक नहीं…क्या करे?..लेकिन उस से बैठा ही न जाए ..ऐसा सिरदर्द होने लगा..तो उस ने मन बना लिया की अब धीरे से झुक कर निकल जाता हूँ…उस ने ऐसा मन में सोचा और बापूजी बोले, जिन को सिरदर्द है वे अंगूठे के नोक पर दूसरी उंगली दबा के और जीभ दांत के बिच में लगा के बैठे तो सिरदर्द मिट जाएगा..वो भाई ने ऐसे किया तो २-५ मिनट में ही उस का सिरदर्द रुक गया और ऐसे रुका की आज तक कभी वापस नहीं आया सिरदर्द!

ऐसे अनुभव कईयों को होते है..

तीसरा लाभ ये है की जब तक यहाँ बैठे है अ-सत्य से बचे रहेंगे… जितना समय सत्संग में बैठे रहेंगे..शांति से भगवत विचार में बैठे है..भक्ति योग, ज्ञान योग में…किसी से झूठ बोलने का सवाल ही नहीं..

चौथा लाभ ये है की, अभिमान नहीं रहेगा..यहाँ बैठे है तो सभी एक जैसे…किसी को श्रेष्ठ और किसी को कनिष्ठ दिखाना नहीं..तो सत्संग में बैठने मात्र से आप अभिमान रहीत हो गए..

और पांचवा लाभ ये है की आप भगवान के हो गए! …बोलो भाई आप के मन में ये विचार है क्या की मैं फलाने जात का हूँ , वो फलानी जाती का है..नहीं… यहाँ सब भगवान के है…

तुलसीदास जी ने देखा की हनुमान जी रघुवंश के सदस्य हो गए !..हनुमान जी को सीता मैय्या ‘बेटा’ कहेती, श्री राम जी ‘सखा’ कहेते, माँ कौशल्या ‘बेटा’ मानती..लखनजी ‘भाई’ कहेते तो हनुमानजी तो रघुकुल के सदस्य ही हो गए ना…दीक्षा से इतनी भक्ति, इतना प्रेम, इतना समर्पण होता है की भक्त भगवान का हो जाता है…फिर जाती, वर्ण की संकीर्णता नहीं रहेती… भक्त भगवान का हो जाता… भगवान सब के है..


गुरु से दीक्षा में भगवान का नाम पाना बहोत हितकारी है..

गुरु की दीक्षा साधक के जीवन को दिशा देती है..दीक्षा नहीं तो, उस व्यक्ति की दशा बिगड़ जाती है..

यहाँ इंदौर के गुरुकुल में हॉस्टल सुविधा है, इंग्लिश माध्यम है और सी . बी . एस. सी. का अभ्यासक्रम है…

…भारत में और विदेशो में कई बालसंस्कार चलते जिस में बच्चो को सुर्य नमस्कार , योगासन सिखाये जाते… माँ बाप का आदर कैसे करना, अच्छी आदते सिखाई जाती, पढाई में, याद शक्ति में आगे कैसे बढे ये सब निशुल्क सिखाया जाता है..देश विदेशो में भी कई बाल संस्कार केंद्र चलते.. बाल संस्कार से बच्चो को तेजस्विता प्राप्त होती है ….केनडा में भी चलते है…एक कन्या पंजाबी परिवार में जन्मी है..बापूजी का सत्संग सुनते सुनते हिंदी सिख गयी.. ‘कोमल’ नाम है उस का..उस ने केनडा में बालसंस्कार केंद्र शुरू किया..बच्चो को हिंदी भी सिखाने लगी…बालसंस्कार केंद्र का कार्यक्रम संपन्न होने पर आरती होती है..छोटे छोटे बच्चे भी आरती हाथ में लेकर ‘ज्योत से ज्योत जगाओ’ बोलते.. बहोत अच्छे संस्कार मिल रहे है….बहेरिन, ओमान, मस्कट में भी बालसंस्कार केंद्र चलते है..आप भी अपने क्षेत्र में बाल संस्कार केंद्र चलाये..

भगवान की भक्ति ये दैवी संपदा है.. भगवान के भजन से दैवी गुण अपने आप आ जाते है..निगुरे लोग सांसारिक पदार्थो को अपना मानते, सदा रहेने वाले ईश्वर को अपना नहीं मानते..

स्व तरिति….लोकां तारिती


20 मार्च 2010 – भाग – 2;इंदौर चेटीचंड सत्संग समाचार

आज के अशांत युग में ईश्वर का नाम, उनका सुमिरन, भजन, कीर्तन व सत्संग ही तो एकमात्र ऐसा साधन है जो मानवता को जिन्दा रखे बैठा है और यदि आत्मा-परमात्मा को छूकर आती हुई वाणी में सत्संग मिले तो सोने पे सुहागा ही मानना चाहिये | संतश्री के सुप्रवचनों का आयोजन कर लाखों की संख्या में आने वाले श्रोताओं को आत्मरस का पान करवाती हैं |

इंदौर के चेटीचंड उत्सव समिति ने एक नया इतिहास रच दिया ये सत्संग आयोजन कर के.. मनोरंजन ही भगवान के अवतरण का उद्देश नहीं, मनुष्य जीवन में भगवत सत्ता का अवतरण हो ये मुख्य उद्देश है..
ये कार्यक्रम असीम लोगो को मिला है.. सिर्फ इंदौर के पंडाल में बैठे सत्संगियों को ही नही, बल्कि सम्पूर्ण भारत और देश विदेशो के कई भागवत प्रेमी इस सत्संग अमृत का पान कर रहे है. … यह अमृत असीमेश्वर ईश्वर को मिलानेवाला है..


शांति मन्त्र का उच्चारण हो रहा है..

दुर्जनों सज्जनों बुर्ह्यात..

सज्जनों शान्ति माप्नुयात
शान्तोत मुस्च्येत बन्ध्येभ्यो
मुक्तास्च आत्म्यात ब्रुहेत….
हरी……… ओम्म्म्म्म्म्म्म्………..
…. ‘स्व तरति..लोकां तारिती’ … आप भी अपनी मान्यताओ से, संकीर्णता से बाहर आये… तर जाए….
हम सर्वत्र भगवान की सत्ता का स्वीकार करे..
हम सभी को सत बुध्दी प्राप्त हो..सब एक दुसरे को सहयोग करे ..अध्यात्मिक उन्नति में, परमात्मा के रास्ते में सहयोग करे…

दुर्जन को ‘दुर्जन’ मानकर नफरत कर के स्वयं दुर्जन ना बनो…
दुर्जन सज्जन हो जाए…लेकिन सज्जनता बनी रहे ऐसा आग्रह ना करो ..सज्जन को भी शांति हो जाए… शान्तात्मा भी आत्मा-परमात्मा की विश्रांति पाकर मुक्त हो इसलिए समझे की अन्तकरण बदलता, शरीर बदलता, मन बदलता, बुध्दी बदलती है, उस बदल को जाननेवाले आत्मा तुम हो इस प्रकार अ-बदल आत्मा में ज्ञानवान हो जाए…

आप ध्यान से सुन रहे इसलिए उंचा तात्विक सत्संग अपने को मिल रहा है ..

ईश्वर को पूछो की आप ने कृपा की भगवान …भगवान बोलेंगे , ‘ये तुम्हारा पुरुषार्थ और भाव है’ , भगवान बोलेंगे ‘मैं कृपालु हूँ’ तो अहंता आएगी…. भगवान भी कृपालु-पने का भाव अपने में नहीं थोपते….. ऐसा करेगा तो कर्ता-पन उस का भी नहीं मिटता…. साधक पुरुषार्थ करता और गुरु की कृपा मानता… भक्त ऐसा बोले तो गुरूजी तुरंत बोलते, ‘भगवान की कृपा है’…. साधन का बल का अहंकार साधक में ना रहे तो हो जाती है विश्रांति योग….. बुध्दी जितना परमात्मा में विश्रांति पाएगी उतनी बुध्दी शुध्द होगी और आत्मा का सामर्थ्य पाएगी…

एक होता है ऐहिक सुख – देखने का, सुनने का, चखने का मजा ये है संसारी सुख ….संसारी सुख – माने जो सरकता जाए…ऐसे सुख जो भोगनेवाले का आयु, बल, बुध्दी, तेज क्षीण करता जाए उस को बोलते…दूसरा सुख है भगवत भाव का सुख और तीसरा सुख है ईश्वर का स्वभाव – ईश्वर तत्व सुख….
भोजन करना मना नहीं , लेकिन स्वाद के लिए खा लिया तो संसारी सुख हो गया..बालक को जन्म दिया , अच्छा किया लेकिन पति – पत्नी शरीर को नोचने के चक्कर में अ-काल मृत्यु के खायी में जा गिरते…
गुरु दीक्षा, शास्रो का ज्ञान का आदर करते, गुरु वचन और साधन ध्यान नियम करते तो मन बुध्दी के पक्ष में काम करता है, इन्द्रियों के पक्ष में नहीं… मन अगर इन्द्रियों के पक्ष में काम करता तो पतन का मार्ग है….बुध्दी को दीक्षा शिक्षा ज्ञान के अनुसार चलने में मन का साथ ना हो तो मन को मोड़े, इन्द्रियों को मोड़े…. उन्नति होगी….

.. स्वाद इन्द्रिया कहेती है पकोड़े खाए.. इन्द्रिया अनुगामी मन है तो सोचेगा फलानी दूकान के अच्छे होते, वहा से गुजर भी रहे.. इन्द्रिया अनुगामी मन नहीं, तो सोचेंगे की बाद में देखेंगे… बुध्दी कहेती, अभी दूध पीया है, नमक वाला कुछ नहीं खाना चाहिए….बुध्दी अनुगामी मन है तो मान लेगा…लेकिन मन इन्द्रिया के अनुसार चलेगा तो कहेता अभी हो गए २ घंटे, चलता है…खा लिए पकोड़े..बुध्दी दब गयी… इन्द्रियों की इच्छा अनुगामी मन, मन अनुगामी बुध्दी हो गयी…. ज्ञान का, समझ का अनादर होता जाएगा…. बुध्दी दुर्बल होती जायेगी…इन्द्रिया मन बुध्दी पर हावी होता जाएगा…

भूख लगी है, रोटी के बदले पकोड़े है.. आवश्यकता भी है तो ले लो… बुध्दी , मन सहेमत है तो हरकत नहीं… लेकिन आवश्यकता नहीं, केवल इन्द्रियों का लालच है..खाम -खा आकर्षण हुआ तो इन्द्रियों के आकर्षण में ज्ञान कमजोर हो गया…. बुध्दी शुद्ध ज्ञान में परमात्मा के पक्ष में रहे तो बुध्दी में ८ शक्तियां आती है….और बुध्दी विपरीत गयी तो ८ अवगुण आते है…

बुध्दी मन के कहेने में चली तो भ्रष्ट हो जाती.. फिर विषयो का चिंतन मन करेगा …विषयो के चिंतन का संग किया तो कामना होगी..कामना से पाप कर्म होगा…अधिक कामना से अधिक मजा का लोभ होगा और मजा का विघ्न किया तो क्रोध आयेगा, मजा के अनुकूल हुआ तो सम्मोह आयेगा, सम्मोह से बुध्दी भ्रम होता और जीव का विनाश हो जाता…..

मरने के बाद नृग किरकिट हो गए… रावण की योग्यता थी लेकिन अभी ज़रा नाच देख ले सुंदरी का ऐसी नीच ईच्छाओ से ज्ञान स्वभाव के तरफ मुंह मोड़ा तो बुराई में ऐसे गिरे की मरते समय लक्ष्मण को कहेते, ‘अच्छे विचार में तुरंत लग जाना चाहिए… जहां उदास होना था वहा देर की, इस से मैं सब कुछ जीता हुआ दुनिया से हार के जा रहा हूँ….’

अच्छे में अच्छा है परमात्म शांति, परमात्म ज्ञान, परमात्मा की प्रीति ….उधर समय नहीं दिया तो निंदा, चुगली, इर्षा में जीवन खराब हो जाएगा….

ईश्वर की चीजो का महत्त्व बुध्दी में हो तो बाकी की कई चीजे आप के लिए हाजिर हो जाती…. सभी भोग योग में सफल हो जाते…. भगवत सत्ता, भगवत प्रीति का और मिली हुयी जानकारी का आदर करो… ज़रा सिगारेट पिए, ज़रा सा पति-पत्नी का व्यवहार, पनीर तो सभी खाते अपन भी थोड़ा खा ले..क्या होता है…क्या होता है तो मर गया… ये ही हाल है…..इसलिए मिली हुयी जानकारी का आदर करो तो महापुरुष हो जाओगे!