8.4.10

अवतरण दिवस का वंदन हैं ….



हरिद्वार एकांत सत्संग समाचार

4 अप्रैल 2010;

पूज्य बापूजी एकांत में है…फिर भी भक्त गण अवतरण दिवस के अवसर पर दर्शन के लिए अभिलाषी है..उन का प्यार और स्नेह बापूजी को एकांत से थोड़ी देर के लिए ही सही बाहर खिंच के लाया है…जनम दिवस को मनाना बापूजी को अच्छा नहीं लगता..बापूजी कहेते है : “गरीबो को आर्थिक मदद,बिमारो को फल, गरीबो को कपडे बाटना .. कीर्तन भजन यात्रा करना…सत्संग का साहित्य बाटना.. इस प्रकार अध्यात्मिक सेवा करना ऐसा जनम दिवस मना ले तो चले.. मैं तो कहेता हूँ , खाली सेवा दिवस नहीं साधना दिवस मनाओ…खाली सेवा और साधना नहीं सत्संग दिवस भी मनाओ..सत्संग सुनो, औरो को सुनाओ ..मैं तो इतने से भी राजी नहीं, इस से आगे बोलूंगा.. इस दिवस को आत्म-विश्रांति दिवस बना लो..जो भी करते जिस की सत्ता से कर रहे उस में विश्रांति पाओ…इस दिवस को अध्यात्मिक सेवा,साधना, सत्संग और आत्म विश्रांति दिवस मनाये….”

….जन्मदिवस असल में सेवा दिवस, साधना दिवस, सत्संग दिवस, आत्म -विश्रांति दिवस के रूप में मनाये…

जो जनम दिवस के दिन सोचते की , ‘अगले साल इतना कमाउंगा .. ऐसा वैसा..अभी इतना पढ़ा हूँ ऐसा बन के दिखाना है..आदि आदि..’ .. बोलते वो ये समझ ले की अपने को कर्म के दल-दल में ना फेंके.. श्रीकृष्ण के नजरिये को अपनाए…कर्म में धन लोलुपता, फल आकांक्षा ना रखे तो तुम्हारे ज्ञान स्वभाव की ना मृत्यु होगी ना जन्म..

शरीर के तो करोडो करोडो बार जन्म हुए, मृत्यु हुयी… केवल ये ना-समझी है की , ‘मैं ’ दुखी हूँ.. ‘मैं ’ बच्चा हूँ.. ‘मैं ’ फलानी जाती का हूँ.. ये सभी व्यवहार की रमणा है..अपना व्यवहार चलाने के लिए बाहर से चले लेकिन अन्दर से जाने की “सोऽहं.. सोऽहं” मैं वो ही हूँ!..सत -चित-आनंद स्वरुप!….जो पहेले था, बाद में भी रहेगा वो ही मैं अब भी हूँ…


अगर सत्संग समझ में आया तो निर्लेप नारायण में प्राप्त हो सकता है.. जो नहीं है उस को नहीं मानो और जो है उस को मानो बस!… बचपन,जवानी, बुढापा कुछ भी रहेने वाला नहीं, उस को जानने वाला सदा रहेगा… ‘इदं’ बोलते वो सच्चा नहीं लेकिन ‘इदं’ जिस से प्रकाशित होता वो सच्चा है…


बोले, ‘बाबा मेरा बेटा ठीक नहीं’ ..दुनिया में कई बे-ठीक है..मेरा कुत्ता ठीक नहीं ..तो दुनिया में कई कुत्ते है..

जितना बे-ठीक है उस को जाने दो… जो ठीक है उस में ही आप बैठ जाओ..

तो अवतार भगवान के होते है… स्फूर्ति अवतार होता…. प्रवेश अवतार भी होता है.. अवतारो को जान लो…

अवतरिती इति अवतार |

ऐसे वास्तविक में आप का भी अवतार ही है..ये ज्ञान भी केवल मनुष्य जनम में ही आयेगा… अब समझो की इस मनुष्य देह से विशेष सम्बन्ध नहीं …जैसे और देह छुट गया ऐसे ये भी छुट जाएगा…जहां जाना है वहाँ पहुँचने के लिए जैसे बस से जाते तो पहुँचने पर बस छोड़ देते ऐसे इस शरीर को छोड़ देंगे..ऐसे शरीर सबंध को छोड़ देंगे…इन को साथ नहीं रख सकते…आप तो असल में चैत्यन्य है लेकिन जुड़ते संबंधो से…मनुष्य देह में आये.. ये सदा साथ नहीं रहेता… ऐसे शरीर के संबंधो को सदा साथ में नहीं रख सकते.. जो सदा साथ है, उस को कभी छोड़ नही सकते, तो जिस को छोड़ नहीं सकते उस को ‘मैं ’ मानने में क्या आपत्ति है? उस को अपना ‘मैं ’ मानो… जिस को नहीं रख सकते उस की आसक्ति छोड़ दीजिये…

आप अपने ज्ञान स्वभाव को छोड़ सकते है क्या? ‘ये भगवान है’ ये समझने के लिए भी ज्ञान स्वभाव चाहिए…

अपना ज्ञान स्वभाव नित्य अवतरित होता रहेता है.. परिस्थितियाँ बदल जाती परमात्म सत्ता ज्यों की त्यों रहेती है.. अपना ज्ञान स्वभाव नित्य अवतरित होता रहेता सभी परिस्थितियों में… उस से ही परिस्थितियों का पता चलता है.. परिस्थितियाँ बदल जाती लेकिन परमात्मा ज्यों का त्यों रहेता है..


तो भगवान के अवतार होते रहेते है…ऐसे परशुराम जी का आवेश अवतार तब तक था जब राम जी अवतार लेकर आये …राम जी आये तो फिर वो अवतार उन में समा गया… राम जी और कृष्ण जी का अवतार भी सदा के लिए नहीं, रावण और कंस के लिए नैमित्तिक अवतार था..

ऐसे ही भगवान के ज्ञान स्वभाव, चैत्यन्य स्वभाव का, लोक मांगल्य स्वभाव का अवतरण संतो के रूप में होता है.. इस को नित्य अवतरण बोलते है ..संतो के रूप में जो भगवान का अवतरण होता इस को नित्य अवतरण बोलते है..


भगवान का अर्चना अवतार भी होता है.. एक भक्त ने हनुमानजी की उपासना की…भक्त हनुमानजी के सामने अर्चना में ध्यान मग्न बैठा है..उस का वैरी आया की पीछे से रामपुरी आर-पार कर दूँ तो सदा के लिए मिट जाएगा….उस को भक्त के पीठ में छुरा भोकना है.. तो हनुमान जी के मूर्ति के २ टुकड़े हुए और हनुमान जी प्रगट हो कर उस को सीधा यमपुरी पहुंचा दिया…तो यहाँ हनुमान जी कही से भाग के आये ऐसी बात नहीं..या उन को भक्त ने बोला ऐसी भी बात नहीं….लेकिन कण कण में जो ज्ञान सत्ता , चैत्यन्य सत्ता व्याप रही है वो आवेश अवतार के निमित्त रक्षा करने के लिए प्रगट भी हो जाती है…. …ऐसा ही प्रल्हाद की रक्षा के लिए आवेश अवतार नरसिंह अवतार हुआ, द्रोपदी की रक्षा के लिए साड़ीयों में प्रवेश अवतार हुआ..

ऐसे आप के ह्रदय में भी वो सत्ता अवतरित होती..पूजा, पाठ, जप, ध्यान से विवेक जागता तो अन्तर्यामी को संकेत मिलते रहेते…

कोई बस से जा रहा था..लोगो ने कहा की कोई खतरा नहीं..लेकिन ह्रदय से आवाज आई की नहीं अभी उतर जा..वो आदमी अन्दर की आवाज सुन के उतर जाता और बाद में पता चला की ‘अरे बाप रे बाप!प्रेरणा नहीं मानता , उस बस की यात्रा करता तो मर जाता!’ .. बस का एक्सिडेंट हो कर इतने इतने लोग मरे है..

भोपाल के गैस काण्ड में कितनो को प्रेरणा हुयी थी तो बच गए थे…तो कभी कभी ऐसे समय में अंतरयामी ईश्वर का प्रेरणा अवतरण होता है..

एक भक्त रेलवे स्टेशन में सोया था..उस को प्रेरणा हुयी की बाहर जाओ..उठ कर बाहर चला गया और देखा की थोड़ी देर में रेलवे स्टेशन में गोली बरसाई जा रही थी…जप, ध्यान, साधना नियम से करता था तो अन्तर्यामी भगवान ने प्रेरणा से अवतरित हो के बचा दिया..

पूजा, पाठ, जप, ध्यान से विवेक जागता तो अन्तर्यामी को संकेत मिलते रहेते…

लेकिन जिस में वासना हो वो संकेत अन्तर्यामी के नहीं होते… एक भक्त को गुरु ने बोला की नर्मदा किनारे अनुष्टान करो..

तपस्या नर्मदा के तट पर फलती है..ध्यान विष्णु जी के रूपों का किया जाता है..

कुछ ही दिन हुए भक्त वापस आ गया…गुरु ने पूछा क्या हुआ? अनुष्टान छोड़ के आ गया?

बोले, ‘भगवान प्रेरणा किये की फलानी लड़की अच्छी है…उस से शादी कर लो..दोनों मिल के भजन करना तो मैं राजी हो जाउंगा..’

गुरु डांट दिए, ‘ये तेरा मन ही प्रेरणा दे रहा!’

मन की बदमाशी को या पुराने संस्कारों की वासनाओ को प्रेरणा नहीं समझना …

ईश्वर की प्रेरणा में, सत्ता में अपने भी संस्कार ही काम करते ..

शराबी को अंतरयामी प्रेरणा देगा तो क्या देगा?..दिवाली मनाओ!ये बोतलों को बातो और पियो!’ :) तो जैसे संस्कार से मन बना है ऐसा अंतरयामी बन जाएगा!..

भक्त को प्रेरणा होगी तो कैसे होगी?भक्त का अन्तर्यामी तो ये ही कहेगा की ध्यान में गोता मारो..!!


…जिस के जन्म और कर्म दिव्य होते उस के चित्त में स्फुरणा होती तो वो सच्ची, अन्तर्यामी की स्फुरणा होती है..क्यों की वो तटस्थ होता है..


ऐसी ही एक भगतडी थी…बोली, ‘मैं तो बड़े में बड़े भगवान को मानूंगी…गुरु को नहीं मानेगी…’

गुरु बोले, ‘ठीक है.. लेकिन किस को मानेगी ये तो बताओ.. कौन सब से बड़ा है?’

तो बोली, ‘मैं तो अपने अंतरयामी को मानूंगी!’

अब अन्तर्यामी शब्द तो गुरु ने ही बताया है! :)

गुरु बोले, ‘अरे तेरा अन्तर्यामी तो तुझे लवर के पास ले जाएगा …फिर क्या करेगी?’ … बाद में लाइन पे आना पडा!..



ऐसा ही एक भगतडा जा रहा था…गुरु की आधी अधूरी बात समझा था… की सब में भगवान है…सामने से पागल हाथी आ रहा है ..महावत बोला, ‘अरे हट जाओ..हाथी पागल है’

..लेकिन नहीं माना…

बोले, ‘मैं जानता हूँ..सब भगवान का मंगलमय विधान है ..सब में भगवान है!’

हाथी आया.. धडाक से सुण्ड मारा.. खोपड़ी टूटी …जब ठीक हुआ तो सब पूछे की क्या हुआ?…

बोले, ‘हाथी में भगवान है..मैंने सूना था लेकिन ऐसा कैसे हुआ?’

.. तो सामने वाले बोले की , ‘हाथी में ही तुझे भगवान देखना था?..महावत में भगवान चिल्ला चिला कर बोल रहा था वो क्यों नहीं सूना?’

ऐसा आधा कच्चा ज्ञान बड़ा खतरा देता है…

इसलिए भगवान को किसी भी रूप में मानो..ये समझ लो की, भगवत सत्ता हमारे मंगल-मय उन्नति के लिए, विकास के लिए है…

तो शास्त्र नुसार जन्म दिवस आदि मनाये तो हरकत नहीं..


७० दिए जल रहे है… ७१ वा बड़ा दिया जल रहा है…तो ७१ वा साल और भी ज्यादा वैराग्य की ऊँचाई में रहेंगे!..खुद को एकांत में रखेंगे!!.. ऊँचे में ज्यादा रहेंगे.. अगले साल कुछ कटौती की… जल्दी जल्दी प्रोग्राम हुए.. लेकिन अब ज्यादा एकांत में रहेंगे..’

अभी कुछ सालो से आप लोगो ने देखा होगा की , कार्य तो ज्यादा होते, लेकिन हम एकांत के लिए भी ज्यादा समय दे रहे.. तो काम भी बढ़िया हो रहा और हमारा भी फायदा हो रहा है..!! :)

७१ वा वर्ष चालु हो रहा तो भगवान में विशेष रहे..कही प्रोग्राम दे दिया तो दे दिया नहीं तो बंद!…ये मिलना- जुलना, ‘ये चीज लो, ये भेट लो’ बंद !..

कल रात से ऐसा विचार आया है..

७१ वा वर्ष का ये रखेंगे की मिलना-जुलना कम करे…..लेना देना बंद करे.. जिस की सत्ता से लिया दिया जाता उस में स्वयं रहो, औरो को भी रखो.. आप से स्नेह है.. आप मेरे विचार में साथ देंगे तो आप का भी मंगल होगा…लेकिन ये मेरा आग्रह नहीं है…ईश्वर का मंगल-मय विधान जैसा है, भगवान जैसा चाहता है वैसा होगा..

नारायण हरि..

हरि ॐ हरि ॐ हरि ॐ हरि

मैं अपना जनम दिवस नहीं मनाता… तुम सभी को साधुवाद देता हूँ…की आप विश्व की सेवा करते… अस्पतालों में फल बाटते… गरीबो में कपडे आदि बाटते… ये विश्व-स्वरुप की सेवा है…धन देना ये तो बहोत क्षुद्र सेवा है… अपने सेवक धन का उपयोग करते.. मरीजो के प्रति सदभाव देते.. सेवा शुभ संकल्प से करते…विद्यार्थी तेजस्वी हो इसलिए सत-साहित्य देते तो तेजस की सेवा करते…कई जगह कीर्तन यात्रा होती.. ये सेवाएं १२६० समितियाँ तो करती है .. बाकी के भी करते…बाल संस्कारों में भी कुछ ना कुछ होता है ….देश विदेश में भी कीर्तन यात्रा आदि सेवाएं हो रही है..

अन्न-दान आदि ये स्थूल सेवा होती..

कीर्तन भजन ये मानसिक सेवा है..

सत्संग करने कराने से, या लोगो तक पहुंचाने से बौध्दिक सेवा होती…

भगवान अपने है अपने नाई आत्म-वत दूसरो को देखने का प्रयत्न करना ये तात्विक सेवा है..

इन तीनो सेवा करने की जहा से सत्ता आती है उस परमात्मा में विश्रांति पाना ये चौथी सेवा है..जो ये चतुर्मुखी सेवा करते उन को शाबास है!

आप जपे , औरो ने जपावे

सो सेवक सहज में परम पद पावे..

पानीपत, हैदराबाद, डेल्ही, मुंबई, अब कहा कहा के नाम ले..कई शहेरो में कीर्तन यात्रा चल रही है..मैं मना नहीं करता… ‘हैप्पी बर्थडे’ केक काटना , मोमबत्ती फुकना ऐसा ‘मंकी दिवस’ हम नहीं मनाते…जिस से सभी के जन्म कर्म दिव्य हो जाते ऐसे दिवस मनाते..

यहाँ मैं जन्म दिवस के निमित्त नहीं आया हूँ… एकांत में रहेने को आया था…लेकिन एकांत जगह छुपी रहे, इसलिए यहाँ आना पडा.. १२ से १८ अप्रैल हरिद्वार में पक्का है…..२४ से २८ पक्का है..

बिच में ४ दिन मौज के है …

ॐ नमो भगवते वासुदेवाय..आनंद देवाय…माधुर्य देवाय..शांति देवाय…गुरु देवाय :) शिष्य देवाय… :)

आत्मा का सहज आनंद स्वभाव में अपने गुणों को जोड़ देते …गुणों से गड़बड़ हो जाती… अपने को शरीर मानते..तो पत्नी ऐसा बोलती, पति ऐसा बोलता ये याद कर के सुखी दुखी होते..

जैसा सुख तैसी बिस्काठी

जैसा माना तैसा अपमाना

हर्ष शोक जाके नहीं

कहे नानक सुन रे मना

मुक्त ताहि के जान

नानक जी तो ६० साल में रिटायर हो गए थे..मुझे भी कोई बन्दा भेज दे बाबा… हम भी अब चाहते है फक्कड़ शाही!

आप को ऐसा नहीं लगता? बापूजी का दिने दिने नवं नवं… आनंद नया! नयी मस्ती! नया यौवन! ऐसा नहीं लगता? :)

ये हॉल सजाया …… आप ने किया आप ही मजा लो..मेरे पास अपने आप का मजा है…मेरे दरवाजे पे सिंगार कर के गए मैंने कहा, मेरा अपना सिंगार काफी है, ये निकाल दो..’

गरीबो को आर्थिक मदद,बिमारो को फल, गरीबो को कपडे बाटना .. कीर्तन भजन यात्रा करना…सत्संग का साहित्य बाटना.. इस प्रकार अध्यात्मिक सेवा करना ऐसा जनम दिवस मना ले तो चले..

मैं तो कहेता हूँ , खाली सेवा दिवस नहीं साधना दिवस मनाओ…

खाली सेवा और साधना नहीं सत्संग दिवस भी मनाओ..सत्संग सुनो, औरो को सुनाओ ..

मैं तो इतने से भी राजी नहीं, इस से आगे बोलूंगा.. इस दिवस को आत्म-विश्रांति दिवस बना लो..जो भी करते जिस की सत्ता से कर रहे उस में विश्रांति पाओ…

इस दिवस को अध्यात्मिक सेवा,साधना, सत्संग और आत्म विश्रांति दिवस मनाये….

ब्राम्ही स्थिति प्राप्त कर कार्य रहे ना शेष

मोह कभी ना ठग सके इच्छा नहीं लवलेश..

ॐ शांति.

सदगुरुदेव जी भगवान की जय हो!!!!!

गलतियों के लिए प्रभुजी क्षमा करे…

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