3.9.10

असीम पुण्य की प्राप्ति

(परम पूज्य आसाराम बापूजी के सत्संग से )

एक जीवन्मुक्त महात्मा को स्वप्न आया। स्वप्न में सब तीर्थ मिलकर चर्चा कर रहे
थे कि कुंभ के मेले में किसको अधिक से अधिक पुण्य मिला होगा। प्रयागराज ने कहा
किः "अधिक से अधिक पुण्य तो उस रामू मोची को मिला है।"

गंगाजी,देव, रूद्र प्रयाग ने कहाः "रामू मोची तो मुझमें स्नान करने नहीं आया
था।"

सब तीर्थों ने एक स्वर से पूछाः "यह रामू मोची कहाँ रहता है और क्या करता है
?"......प्रयागराज ने कहाः "रामू मोची जूता सीता है और केरल प्रदेश में दीवा
गाँव में रहता है।"

महात्मा नींद से जाग उठे। सोचने लगे कि यह भ्रांति है या सत्य है ! प्रभातकालीन
स्वप्न प्रायः सच्चे पड़ते हैं। इसकी खोजबीन करनी चाहिए।

संत पुरूष निश्चय के पक्के होते हैं। चल पड़े केरल प्रदेश की ओर। घूमते-घामते
पूछते-पूछते स्वप्न में निर्दिष्ट दीवा गाँव में पहुँच गये। तालाश की तो सचमुच
रामू मोची मिल गया। स्वप्न की बात सच निकली। जीवन्मुक्त महापुरूष रामू मोची से
मिले। रामू मोची भावविभोर हो गयाः

"महाराज ! आप मेरे द्वार पर ? मैं तो जाति से चमार हूँ। चमड़े का
धन्धा करता हूँ। वर्ण से शूद्र हूँ। उम्र में लाचार हूँ। विद्या से अनपढ़ हूँ
और आप मेरे यहाँ ?"

"हाँ....." महात्मा बोले। "मैं तुमसे यह पूछने आया हूँ कि तुम कुंभ में गंगा
स्नान करने गये थे ? इतना सारा पुण्य तुमने कमाया है ?"

रामू बोलता हैः "नहीं बाबा जी ! कुंभ के मेले में जाने की बहुत इच्छा थी इसलिए
हररोज टका-टका करके बचत करता था। (एक टका माने आज के तीन पैसे।) इस प्रकार
महीने में करीब एक रूपया इकट्ठा होता था। बारह महीने के बारह रूपये हो गये।
मुझे कुंभ के मेले में गंगा स्नान करने अवश्य जाना ही था, लेकिन हुआ ऐसा कि
मेरी पत्नी माँ बनने वाली थी। कुछ समय पहले की बात है। एक दिन उसे पड़ोसे के घर
से मेथी की सब्जी की सुगन्ध आयी। उसे वह सब्जी खाने की इच्छा हुई। शास्त्रों
में सुना था कि गर्भवती स्त्री की इच्छा पूरी करनी चाहिए। अपने घर में वह
गुंजाइश नहीं थी तो मैं पड़ोसी के घर सब्जी लेने गया। उनसे कहाः

"बहन जी ! थोड़ी-से सब्जी देने की कृपा करें। मेरी पत्नी को दिन रहे हैं। उसे
सब्जी खाने की इच्छा हो आई है तो आप.....।""हाँ भैया ! हमने सब्जी तो बनाई
है...." वह माई हिचकिचाने लगी। आखिर कह ही दियाः ".....यह सब्जी आपको देने जैसी
नहीं है।" ……………"क्यों माता जी ?"

"हम लोगों ने तीन दिन से कुछ खाया नहीं था। भोजन की व्यवस्था नहीं हो पाई। आपके
भैया काफी परेशान थे। कोई उपाय नहीं था। घूमते-घामते स्मशान की ओर वे गये थे।
वहाँ किसी ने अपने पितरों के निमित्त ये पदार्थ रख दिये थे। आपके भाई वह
छिप-छिपाकर यहाँ लाये। आपको ऐसा अशुद्ध भोजन कैसे दें ?"

यह सुनकर मुझे बहुत दुःख हुआ कि अरे ! मैं ही गरीब नहीं हूँ। अच्छे कपड़ों में
दिखने वाले लोग अपनी मुसीबत कह भी नहीं सकते, किसी से माँग भी नहीं सकते और
तीन-तीन दिन तक भूखे रह लेते हैं ! मेरे पड़ोस में ऐसे लोग हैं और मैं टका-टका
बचाकर गंगा स्नान करने जाता हूँ ? मेरा गंगा-स्ना तो यहीं है। मैंने जो बारह
रूपये इकट्ठे किये थे वे निकाल लाया। सीधा सामान लेकर उनके घर छोड़ आया। मेरा
हृदय बड़ा सन्तुष्ट हुआ। रात्रि को मुझे स्वप्न आया और सब तीर्थ मुझसे कहने
लगेः "बेटा ! तूने सब तीर्थों में स्नान कर लिया। तेरा पुण्य असीम है।"

बाबाजी ! तबसे मेरे हृदय में शान्ति और आनन्द हिलोरें ले रहे हैं।".....बाबाजी
बोलेः "मैंने भी स्वप्न देखा था और उसमें सब तीर्थ मिलकर तुम्हारी प्रशंसा कर
रहे थे।"

वैष्णव जन तो तेने रे कहीए जे पीड़ पराई जाणे रे।
पर दुःखे उपकार करे तोये मन अभिमान न आणे रे।।

(सच्चा सुख)

ॐ शांती
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गौरांग शिष्य हरिदास


(परम पूज्य आसाराम बापूजी के सत्संग से )
सात वर्षीय गौर वर्ण के गौरांग बड़े-बड़े विद्वान पंडितों से ऐसे-ऐसे प्रश्न
करते थे कि वे दंग रह जाते थे। इसका कारण था गौरांग की हरिभक्ति। बड़े होकर
उन्होंने लाखों लोगों को हरिभक्ति में रंग दिया।

जो हरिभक्त होता, हरि का भजन करता उसकी बुद्धि अच्छे मार्ग पर ही जाती है। लोभी
व्यक्ति पैसों के लिए हंसता-रोता है, पद एवं कुर्सी के तो कितने ही लोग हँसते
रोते हैं, परिवार के लिए तो कितने ही मोही हँसते रोते हैं किन्तु धन्य हैं वे,
जो भगवान के लिए रोते हँसते हैं। भगवान के विरह में जिसे रोना आया है, भगवान के
लिए जिसका हृदय पिघलता है ऐसे लोगों का जीवन सार्थक हो जाता है। भागवत में
भगवान श्रीकृष्ण उद्धव से कहते हैं-

*वाग गदगदा द्रवते यस्य चित्तं***

*रूदत्यभीक्ष्णं हसति क्वचिच्च।***

*विलज्ज उदगायति नृत्यते च***

*मदभक्तियुक्तो भुवनं पुनाति।।***

'जिसकी वाणी गदगद हो जाती है, जिसका चित्त द्रवित हो जाता है, जो बार-बार रोने
लगता है, कभी लज्जा छोड़कर उच्च स्वर से गाने लगता है, कभी नाचने लगता है ऐसा
मेरा भक्त समग्र संसार को पवित्र करता है।' (श्रीमदभागवतः 11.14.24)

धन्य है वह मुसलमान बालक जो गौरांग के कीर्तन में आता है और जिसने गौरांग से
मंत्रदीक्षा ली है।

उस मुसलमान बालक का नाम 'हरिदास' रखा गया। मुसलमान लोगों ने उस हरिभक्त हरिदास
को फुसलाने की बहुत चेष्टा की, बहुत डराया कि, 'तू गौरांग के पास जाना छोड़े दे
नहीं तो हम यह करेंगे, वह करेंगे।' किन्तु हरिदास बहका नहीं। उसका भय नष्ट हो
गया था, दुर्मति दूर हो चुकी थी। उसकी सदबुद्धि और निष्ठा भगवान के ध्यान में
लग गयी थी। '*भयनाशन दुर्मति हरण, कलि में हरि को नाम*' यह नानक जी का वचन मानो
उसके जीवन में साकार हो उठा था।

काज़ी ने षडयंत्र करके उस पर केस किया और फरमान जारी किया कि 'हरिदास को बेंत
मारते-मारते बीच बाजार से ले जाकर यमुना में डाल दिया जाये।'

निर्भीक हरिदास ने बेंत की मार खाना स्वीकार किया किन्तु हरिभक्ति छोड़ना
स्वीकार न किया। निश्चित दिन हरिदास को बेंत मारते हुए ले जाया जाने लगा।
सिपाही बेंत मारता है तो हरिदास बोलता हैः "हरि बोल...।"

"हमको हरि बोल बुलवाता है? ये ले हरि बोल, हरि बोल।" (सटाक...सटाक)

सिपाही बोलते हैः "हम तुझे बेंत मारते हैं तो क्या तुझे पीड़ा नहीं होती? तू
हमसे भी 'हरि बोल... हरि बोल' करवाना चाहता है?"

हरिदासः "पीड़ा तो शरीर को होती है। मैं तो आत्मा हूँ। मुझे तो पीड़ा नहीं
होती। तुम भी प्यार से एक बार 'हरि बोल' कहो।"

सिपाहीः हें! हम भी 'हरि बोल' कहें? हमसे 'हरि बोल' बुलवाता है? ले ये हरि बोल।
" (सटाक)

हरिदास सोचता है कि बेंत मारते हुए भी तो ये लोग 'हरि बोल' कह रहे हैं। चलो,
इनका कल्याण होगा। सिपाही बेंत मारते जाते हैं सटाक... सटाक... और हरिदास 'हरि
बोल' बोलता भी जाता है, बुलवाता भी जाता है। हरिदास को कई बेंत पड़ने पर भी
उसके चेहरे पर दुःख की रेखा तक नहीं खिंचती।

हवालदार पूछता हैः "हरिदास! तुझे बेंत पड़ने के बावजूद भी तेरी आँखों में चमक
है, चेहरे पर धैर्य, शांति और प्रसन्नता झलक रही है। क्या बात है?"

हरिदासः "मैं बोलता हूँ 'हरि बोल' तब सिपाही क्रुद्ध होकर भी कहते हैः
हें?हमसे भी बुलवाता है हरि बोल... हरि बोल... हरि बोल.... तो ले।
' इस बहाने भी उनके मुँह से हरिनाम निकलता है। देर सवेर उनका भी कल्याण होगा।
इसी से मेरे चित्त में प्रसन्नता है।"

धन्य है हरिदास की हरिभक्ति! क्रूर काज़ी के आदेश का पालन करते हुए सिपाही उसे
हरिभक्ति से हिन्दू धर्म की दीक्षा से च्युत करने के लिए बेंत मारते हैं फिर भी
वह निडर हरिभक्ति नहीं छोड़ता। 'हरि बोल' बोलना बंद नहीं करता।

वे मुसलमान सिपाही हरिदास को हिन्दू धर्म की दीक्षा के प्रभाव से, गौरां के
प्रभाव से दूर हटाना चाहते थे लेकिन वह दूर नहीं हटा, बेंत सहता रहा किन्तु 'हरि
बोल' बोलना न छोड़ा। आखिरकार उन क्रूर सिपाहीयों ने हरिदास को उठाकर नदी में
बहा दिया।

नदी में तो बहा दिया लेकिन देखो हरिनाम का प्रभाव! मानो यमुनाजी ने उसको गोद
में ले लिया। डेढ़ मील तक हरिदास पानी में बहता रहा। वह शांतचित्त होकर, मानो
उस पानी में नहीं, हरि की कृपा में बहता हुआ दूर किसी गाँव के किनारे निकला।
दूसरे दिन गौरांग की प्रभातफेरी में शामिल हो गया। लोग आश्चर्यचकित हो गये कि
चमत्कार कैसे हुआ?

धन्य है वह मुसलमान युवक हरिदास जो हरि के ध्यान में, हरि के गान में, हरि के
कीर्तन में गौरांग क साथ रहा।

ॐ शांती

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