14.10.10

सेवा की महिमा

विक्रमादित्य की निजी सेवा करने वाले
कुछ किशोर थे। उनमें एक लड़का था जिसका नाम भी किशोर था। महाराज विक्रमादित्य जब
सोते तब किशोर पहरा देता, चौकी
करता। एक बार मध्य रात्रि के समय कोई दीन-दुःखी महिला आक्रन्द कर रही हो ऐसी आवाज
आयी। बुद्धिमान् विक्रमादित्य चौंककर जाग उठे।

"अरे ! कोई रूदन कर रहा है ! जा
किशोर ! तलाश कर। पास वाले मंदिर की ओर से यह आवाज आ रही है। क्या बात है जाँच
करके आ।"

वह हिम्मतवान किशोर गया। देखा तो मंदिर
में एक स्त्री रो रही है। किशोर ने पूछाः "तू कौन है ?"

वह कुलीन स्त्री बोलीः "मैं
नगरलक्ष्मी हूँ, नगरश्री
हूँ। इस नगर का राजा विक्रमादित्य बहुत दयालु इन्सान है। दीन-दुःखी लोगों के दुःख
हरने वाला है। किशोर बच्चों को स्नेह करने वाला है। प्राणिमात्र की सेवा में तत्पर
रहने वाला है। ऐसे दयालु, पराक्रमी, उदार और प्रजा का स्नेह से
लालन-पालन करने वाले राजा के प्राण कल सुबह सूर्योदय के समय चले जायेंगे। मैं
राज्यलक्ष्मी किसी पापी के हाथ लगूँगी। मेरी क्या दशा होगी ! अतः मैं रो रही
हूँ।"

विक्रमादित्य का निजी सेवक, अंगरक्षक किशोर कहता हैः

"हे राज्यलक्ष्मी ! मेरे राजा साहब
कल स्वर्गवासी होंगे ?"

"हाँ।"

"नहीं..... मेरे राजा साहब को मैं
जाने नहीं दूँगा।"

"संभव नहीं है बेटा ! यह तो काल
है। कुछ भी निमित्त से वह सबको ले जाता है।"

"इसका कोई उपाय ?"

"बेटे ! उपाय तो है। राजा
विक्रमादित्य के बदले में कोई किशोर वय का बालक अपना सिर दे तो उसकी आयु राजा को
मिले और राजा दीर्घायु बन जायें।"

म्यान से छोटी सी तलवार निकालकर अपना
बलिदान देने के लिए तत्पर बना हुआ किशोर कहने लगाः

"हजारों के आँसू पोंछने वाले, हजारों दिलों में शांति देने
वाले और लाखों नगरजनों के जीवन को पोसने वाले राजा की आयु दीर्घ बने और उसके लिए
मेरे सिर का बलिदान देना पड़े तो हे राज्यलक्ष्मी ! ले यह बलिदान।"

तलवार के एक ही प्रहार से किशोर ने अपना
सिर अर्पण कर दिया।

राजा विक्रमादित्य का स्वभाव था कि किसी
आदमी को किसी काम के लिए भेजकर 'वह
क्या करता है' यह जाँचने के लिए स्वयं भी
छुपकर उसके पीछे जाते थे। आज भी किशोर के पीछे-पीछे छुपकर चल पड़े थे और किशोर
क्या कर रहा था यह छुपकर देख रहे थे। उन्होंने किशोर का बलिदान देखाः "अरे !
किशोर ने मेरे लिए अपने प्राण भी दे दिये !" वे प्रकट होकर राज्यलक्ष्मी से
बोलेः

"हे राज्यलक्ष्मी ! हे देवी ! मेरे
लिए प्राण देने वाले इस बालक को आप जीवित करो। मुझे इस मासूम बच्चे के प्राण लेकर
लम्बी आयु नहीं भोगनी है। मेरी आयु भले शांत हो जाय लेकिन इस बालक के प्राण नहीं
जाने चाहिए। हे देवी ! आप मेरा सिर ले लो और इस बच्चे को जिन्दा कर दो।" राजा
ने अपने म्यान से तलवार निकाली तो राज्यलक्ष्मी आद्या देवी ने कहाः "हाँ हाँ
राजा विक्रम ! ठहरो। आप आराम करो। सब ठीक हो जायगा।"

विक्रमादित्य देवी को प्रणाम करके अपने
महल में गये। देवी ने प्रसन्न होकर अपने संकल्प बल से किशोर को जिन्दा करके वापस
भेज दिया। किशोर पहुँचा तो राजा अनजान होकर बिछौने पर बैठ गये। उन्होंने पूछाः

"क्यों किशोर ! क्या बात थी ? इतनी देर, क्यों लगी ?"

"तब वह किशोर कहता हैः "राजा
साहब ! उस महिला को जरा समझाना पड़ा।"

"कौन थी वह महिला ?"

"कोई महिला थी, महाराज ! उसकी सास ने उसे
डाँटकर घर से निकाल दिया था। मैं उसको सास के घर ले गया और समझाया कि इस प्रकार
अपनी बहू को परेशान करोगी तो मैं महाराज साहब से शिकायत कर दूँगा। सास-बहू दोनों
के बीच समझौता कराके आया, इसमें
थोड़ी देर हो गयी और कुछ नहीं था। आप आराम महाराज !"

राजा विक्रमादित्य छलाँग मारकर खड़े हो
गये और किशोर को गले लगा लिया। बोलेः

"अरे बेटा ! तू धन्य है ! इतना
शौर्य..... इतना साहस.....! मेरे लिये प्राण कुर्बान कर दिये और वापस नवजीवन
प्राप्त किया ! इस बात का भी गर्व न करके मुझसे छिपा रहा है ! किशोर.....
किशोर.... तू धन्य है ! तूने मेरी उत्कृष्ट सेवा की, फिर भी सेवा करने का अभिमान
नहीं है। बेटा ! तू धन्य है।"

सेवा करना लेकिन दिखावे के लिए नहीं अपितु भगवान को रिझाने के लिए करना। ध्यान करना लेकिन भगवान को प्रसन्न करने के लिए, कीर्तन करना लेकिन प्रभु को राजी करने के लिए। भोजन करें तो भी 'अंतर्यामी परमात्मा मेरे हृदय में विराजमान हैं उनको मैं भोजन करा रहा हूँ..... उनको भोग लगा रहा हूँ....' इस भाव से भोजन करें। ऐसा भोजन भी प्रभु की पूजा बन जाता है।

बच्चों में शक्ति होती है। इन बच्चों में से ही कोई विवेकानन्द बन सकता है, कोई गाँधी बन सकता है, कोई सरदार वल्लभभाई बन सकता है कोई रामतीर्थ बन सकता है और कोई आसाराम बन सकता है। कोई अन्य महान योगी, संत भी बन सकता है।

आप में ईश्वर की असीम शक्ति है। बीज के रूप में वह शक्ति सबके भीतर निहित है। कोई बच्ची गार्गी बन सकती है, कोई मदालसा बन सकती है।

मनुष्य का मन और मनुष्य की आत्मा इतनी महान है कि यह शरीर उसके आगे अति छोटा है। शरीर की मृत्यु तो होगी ही, कुछ भी करो। शरीर की मृत्यु तो होगी ही, कुछ भी करो। शरीर की मृत्यु हो जाय उसके पहले अमर आत्मा के अनुभव के लिए प्राणिमात्र की यथायोग्य सेवा कर लेना यह ईश्वर को प्रसन्न करने का मार्ग है।

आँख को गल्त जगह न जाने देना यह आँख की सेवा है। जिह्वा से गलत शब्द न निकलना यह जिह्वा की सेवा है। कानों से गन्दी बातें न सुनना यह कान की सेवा है। मन से गलत विचार न करना यह मन की सेवा है। बुद्धि से
हलके निर्णय न लेना यह बुद्धि की सेवा है। शरीर से हल्के कृत्य न करना यह शरीर की सेवा है। जैसे अपने शरीर की सेवा करते हैं ऐसे दूसरों को भी गलत मार्ग से बचाना, उन्हें सन्मार्ग की ओर मोड़ना उनकी सेवा है।

ऐसा कोई नियम ले लो कि सप्ताह में एक दिन नहीं तो दो घण्टे सही, लेकिन
सेवा अवश्य करेंगे। अड़ोस-पड़ोस के इर्द-गिर्द कहीं कचरा होगा तो इकट्ठा करके जला
देंगे, कीचड़ होगा तो मिट्टी डालकर सुखा देंगे। अपने इर्द-गिर्द का वातावरण स्वच्छ बनायेंगे।

ऐसा भी नियम ले लो कि सप्ताह में चार लोगों को 'हरि ॐ...... ॐ......
गायेजा.....' ऐसा सिखायेंगे। सप्ताह में एक दो साधकों को,
भक्तों को भगवान के लाडले बनायेंगे, बनायेंगे और बनायेंगे ही।

यह नियम या ऐसा अन्य कोई भी पवित्र नियम
ले लो। क्यों, लोगे न ?

शाबाश वीर ! शाबाश ! हिम्मत रखो, साहस रखो। बार-बार प्रयत्न करो।
अवश्य सफल होगे..... धन्य बनोगे।

प्रतिभावान बालक रमण

महाराष्ट्र में एक लड़का था। उसकी माँ
बड़ी कुशल और सत्संगी थी। वह बच्चे को थोड़ा बहुत ध्यान सिखाती थी। लड़का जब 14-15
साल का हुआ, तब तक
उसकी बुद्धि विलक्षण बन गयी।

चार डकैत थे। उन्होंने कहीं डाका डाला
तो हीरे-जवाहरात का बक्सा मिल गया। उसे सुरक्षित रखने के लिए चारों एक ईमानदार
बुढ़िया के पास गये। बक्सा देते हुए बुढ़िया से बोलेः

"माता जी ! हम चारो मित्र
व्यापार-धंधा करने के लिए निकले हैं। हमारे पास कुछ पूँजी है। यहाँ कोई जान-पहचान
नहीं है। इस जोखिम को कहाँ साथ लेकर घूमें ? आप
इसे रखें और जब हम चारों मिलकर एक साथ लेने के लिए आयें, तब लौटा देना।"

बुढ़िया ने कहाः "ठीक है।"

बक्सा देकर चोर रवाना हुए, आगे गये तो एक चरवाहा दूध लेकर
बेचने जा रहा था। इन लोगों को दूध पीने की इच्छा हुई। पास में कोई बर्तन तो था
नहीं। तीन डकैतों ने अपने चौथे साथी को कहाः "जाओ, वह बुढ़िय़ा का घर दिख रहा है, वहाँ से बर्तन ले आओ। हम लोग
यहाँ इंतजार करते हैं।"

डकैत बर्तन लेने चला गया। रास्ते में
उसकी नीयत बिगड़ गयी। वह बुढ़िया के पास आकर बोलाः "माता जी ! हम लोगों ने
विचार बदल दिया है। यहाँ नहीं रूकेंगे। आज ही दूसरे नगर में चले जायेंगे। अतः
हमारा बक्सा लौटा दो। मेरे तीन दोस्त सामने खड़े हैं। मुझे बक्सा लेने भेजा
है।"

बुढ़िया को जरा सन्देह हुआ। बाहर आकर
उसके साथियों की तरफ देखा तो तीनों खड़े थे। बुढ़िया ने बात पक्की करने के लिए
उनको इशारे से पूछाः "इसको दे दूँ ?"

डकैतों को लगा कि माई पूछ रही है, इसको बर्तन दूँ ? तीनों ने दूर से ही कह दियाः "हाँ, हाँ उसको दे दो।"

बुढ़िया घर में गयी। पिटारे से बक्सा
निकालकर उसे दे दिया। वह चौथा डकैत लेकर दूसरे रास्ते से पलायन हो गया।

तीनों साथी काफी इंतजार करने के बाद
बुढ़िया के पास पहुँचे। उन्हें पता चला कि चौथा साथी बक्सा ले भागा है। अब तो वे
बुढ़िया पर ही बिगड़ेः "तुमने एक आदम को बक्सा दिया ही क्यों ? चारों को साथ में देने की शर्त की
थी।"

झगड़ा हो गया। बात पहुँची राजदरबार में।
डकैतों ने पूरी हकीकत राजा को बतायी। राजा ने माई से पूछाः

"क्यों जी ! इन लोगों ने बक्सा
दिया था ?"

"जी महाराज !"

"ऐसा कहा था कि जब चारों मिलकर आवे
तब लौटाना ?"

"जी महाराज"

"तुमने एक ही आदमी को बक्सा दे
दिया, अब इन
तीनों को भी अपना अपना हिस्सा मिलना चाहिए। तेरी माल-मिल्कियत, जमीन जायदाद, जो कुछ भी हो उसे बेचकर इन
लोगों का हिस्सा चुकाना पड़ेगा। यह हमारा फरमान है।" राजा ने बुढ़िया को आदेश
दिया।

बुढ़िया रोने लगी। वह विधवा थी। घर में
छोटे-छोटे बच्चे थे। कमाने वाला कोई था नहीं। संपत्ति नीलाम हो जायेगी तो गुजारा
कैसे होगा। वह अपने भाग्य को कोसती हुई, रोती पीटती रास्ते से गुजर रही
थी। 15 साल के रमण ने उसे देखा तो पूछने लगाः

"माता जी ! क्या हुआ ? क्यों रो रही हो ?"

बुढ़िया ने सारा किस्सा कह सुनाया। आखिर
में बोलीः

"क्या करूँ बेटा ! मेरी तकदीर ही
फूटी है, वरना
मैं उनका बक्सा लेती ही क्यों ?"

रमण ने कहाः "माता जी ! आपकी तकदीर
का कसूर नहीं है, कसूर
तो राजा की खोपड़ी का है।"

संयोगवश राजा गुप्तवेश में वहीं से गुजर
रहा था। उसने सुन लिया और पास आकर पूछने लगाः

"क्या बात है ?"

"बात यह है कि नगर के राजा को
न्याय करना नहीं आता। इस माता जी के मामले में गलत निर्णय दिया है।" रमण ने
निर्भयता से बोल गया।

राजाः "अगर तू न्यायाधीश होता तो
कैसा न्याय देता ?" किशोर रमण की बात सुनकर राजा
की उत्सुकता बढ़ रही थी।

रमणः "राजा को न्याय करवाने की गरज
होगी तो मुझे दरबार में बुलायेंगे। फिर मैं न्याय दूँगा।"

दूसरे दिन राजा ने रमण को राजदरबार में
बुलाया। पूरी सभा लोगों से खचाखच भरी थी। वह बुढ़िया माई और तीन मित्र भी बुलाये
गये थे। राजा ने पूरा मामला रमण को सौंप दिया।

रमण ने बुजुर्ग न्यायाधीश की अदा से
मुकद्दमा चलाते हुए पहले बुढ़िया से पूछाः

"क्यों माता जी ? चार सज्जनों ने आपको बक्सा सँभालने के
लिए दिया था।"

बुढ़ियाः "हाँ।"

रमणः "चारों सज्जन मिलकर एक साथ
बक्सा लेने आयें तभी बक्सा लौटाने के लिए कहा था ?"

"हाँ।"

रमण ने अब तीनों डकैतों से कहाः
"अरे, अब तो
झगड़े की कोई बात ही नहीं है। सदगृहस्थो ! आपने ऐसा ही कहा था न कि हम चार मिलकर
आयें तब हमें बक्सा लौटा देना ?"

डकैतः "हाँ, ठीक बात है। हमने इस माइ से ऐसा
ही तय किया था।"

रमणः "ये माता जी तो अभी भी आपका
बक्सा लौटाने को तैयार हैं, मगर आप
ही अपनी शर्त भंग कर रहे हैं।"

"कैसे ?"

"आप चारों साथी मिलकर आओ तो अभी
आपकी अमानत दिलवा देता हूँ। आप तो तीन ही हैं। चौथा कहाँ है ?"

"साहब ! वह तो..... वह
तो....."

"उसे बुलाकर लाओ। जब चारों साथ में
आओगे, तभी
आपको बक्सा मिलेगा। नाहक में इन बेचारी माता जी को परेशान कर रहे हो ?"

तीनों व्यक्ति मुँह लटकाये रवाना हो
गये। सारी सभा दंग रह गयी। सच्चा न्याय करने वाले प्रतिभासंपन्न बालक की
युक्तियुक्त चतुराई देखकर राजा भी बड़ा प्रभावित हुआ।

प्रतिभा विकसित करने की कुंजी सीख लो।
जरा-सी बात में खिन्न न होना, मन को स्वस्थ व शांत रखना। ऐसी पुस्तकें
पढ़ना जो संयम और सदाचार बढ़ायें, परमात्मा का ध्यान करना और सत्पुरूषों
का सत्संग करना – ये ऐसी
कुंजियाँ हैं, जिनसे
तुम भी प्रतिभावान बन सकते हो। वही बालक रमण आगे चलकर महाराष्ट्र में मुख्य
न्यायाधीश बना और मरियाड़ा रमण के नाम से सुविख्यात हुआ।

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