8.9.10

उसके लिये क्या असम्भव है !


महर्षि आयोद धौम्य के तीन प्रमुख शिष्यों में से एक थे वेद। वे विद्याध्ययन समाप्त कर घर गये और वहाँ गृहस्थ-धर्म का पालन करते हुए रहने लगे। उनके भी तीन शिष्य हुए जिनमें सबसे प्यारे उत्तंक थे।

उत्तंक का अध्ययन समाप्त हो गया। वे घर जाने लगे। विद्याध्ययन की समाप्ति पर गुरुदक्षिणा अवश्य देनी चाहिए' – ऐसा सोचकर उन्होंने गुरुजी से विनती कीः "गुरुदेव ! मैं आपको क्या दक्षिणा दूँ ? मैं आपका कौन-सा प्रिय कार्य करूँ ?"

गुरु ने बहुत समझाया कि 'तुमने पूरे मन से मेरी सेवा की है, यही सबसे बड़ी गुरुदक्षिणा है।' किंतु उत्तंक बार-बार गुरुदक्षिणा के लिए आग्रह करने लगे, तब गुरु ने कहाः "अच्छा, भीतर जाकर गुरु पत्नी से पूछ आओ। उसे जो प्रिय हो, वही तुम कर दो, यह तुम्हारी गुरुदक्षिणा है।'' यह सुनकर उत्तंक भीतर गये और गुरुपत्नी से प्रार्थना की, तब गुरुपत्नी ने कहाः "राजा पौष्य (जिनके राजगुरु थे वेदमुनि) की रानी जो कुण्डल पहने हुए है, वे मुझे आज से चौथे दिन पुण्यक नामक व्रत (वह व्रत जो स्त्रियाँ पति तथा पुत्र के कल्याण की कामना से रखती हैं) के अवसर पर अवश्य लाकर दो। उस दिन मैं उन कुण्डलों को पहनकर ब्राह्मणों को भोजन कराना चाहती हूँ।"

यह सुनकर उत्तंक गुरु और गुरुपत्नी को प्रणाम करके पौष्य राजा की राजधानी को चल दिये।

रास्ते में उन्हें धर्मरूपी बैल पर चढ़े हुए इन्द्र मिले। इन्द्र ने कहाः "उत्तंक तुम इस बैल का गोबर खा लो। भय मत करो।'' उनकी आज्ञा पाकर बैल का पवित्र गोबर और मूत्र उन्होंने ग्रहण किया। जल्दी में साधारण आचमन करके वे पौष्य राजा के यहाँ पहुँचे। पौष्य ने ऋषि के आगमन का कारण पूछा। तब उत्तंक ने कहाः "गुरुदक्षिणा में गुरुपत्नी को देने के लिए मैं आपकी रानी के कुण्डलों की याचना करने आया हूँ।"

राजा ने कहाः "आप स्नातक ब्रह्मचारी हैं। स्वयं ही जाकर रानी से कुण्डल माँग लाइये।" यह सुनकर उत्तंक राजमहल में गये। वहाँ उन्हें रानी नहीं दिखीं, तब राजा के पास आकर बोलेः "महाराज ! क्या आप मुझसे हँसी करते हैं ? रानी तो भीतर नहीं हैं।"

राजा ने कहाः "ब्राह्मण ! रानी भीतर ही हैं। जरूर आपका मुख उच्छिष्ट है। सती स्त्रियाँ उच्छिष्ट मुख पुरुष को दिखाई नहीं देतीं।"

उत्तंक को अपनी गलती मालूम हुई। उन्होंने हाथ पैर धोकर, प्राणायाम करके तीन आचमन किया, तब वे भीतर गये। वहाँ जाते ही रानी दिखायी दीं। उत्तंक का उन्होंने सत्कार किया और आने का कारण पूछा।

उत्तंक ने कहाः "गुरुपत्नी के लिए मैं आपके कुण्डलों की याचना करने आया हूँ।"

उसे स्नातक ब्रह्मचारी और सत्पात्र समझकर रानी ने अपने कुण्डल उतारकर दे दिये और यह भी कहा कि "बड़ी सावधानी से इन्हें ले जाना। सर्पों का राजा तक्षक इन कुण्डलों की तलाश में सदा घूमा करता है।" उत्तंक रानी को आशीर्वाद देकर कुण्डलों को लेकर चल दिये।

रास्ते में एक नदी पर वे नित्यकर्म कर रहे थे कि इतने में ही तक्षक मनुष्य का वेश बनाकर कुण्डलों को लेकर भागा। उत्तंक ने उसका पीछा किया किंतु वह अपना असली रूप धारण कर पाताल में चला गया। इन्द्र की सहायता से उत्तंक पाताल में चला गया। इन्द्र को अपनी स्तुति से प्रसन्न करके नागों को जीतकर तक्षक से उन कुण्डलों को ले आये। इन्द्र की ही सहायता से वे अपने निश्चित समय से पहले गुरुपत्नी के पास पहुँच गये। गुरुपत्नी उन्हें देखकर बहुत प्रसन्न हुई और बोलीं- "मैं तुम्हें आशीर्वाद देती हूँ, तुम्हें सब सिद्धियाँ प्राप्त हों।"

गुरुपत्नी को कुण्डल देकर उत्तंक गुरु के पास गये। समाचार सुनकर गुरु ने कहाः "इन्द्र मेरे मित्र हैं। वह गोबर अमृत था, उसी के कारण तुम पाताल में जा सके। मैं तुम्हारे साहस से बहुत प्रसन्न हूँ। अब तुम प्रसन्नता से घर जाओ।" इस प्रकार गुरु और गुरुपत्नी का आशीर्वाद पाकर उत्तंक अपने घर गये।

परमात्मस्वरूप श्री सदगुरुदेव के श्रीचरणों में जिसकी अनन्य श्रद्धा हो, गुरुवचनों पर पूर्ण विश्वास हो एवं गुरु-आज्ञापालन में दृढ़ता हो उसके लिए जीवन में कौन सा कार्य असम्भव है ! आगे चलकर उत्तंक बड़े ही तपस्वी, ज्ञानी ऋषि हुए। भगवान श्रीकृष्ण ने महाभारत युद्ध के अनंतर द्वारका लौटते समय इन्हें अपने महिमामय विराट स्वरूप का दर्शन कराया था।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, अगस्त 2010, पृष्ठ संख्या 11, 25 अंक 212

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भगवन्नाम जप महिमा

जिसने गाय के शुद्ध दूध की खीर खाकर तृप्ति पायी है उसके लिए नाली का पानी
तुच्छ है। ऐसे ही जिसने आत्मरस का पान किया है, उसके लिए नाकरूपी नाली से लिया
गया इत्र का सुख, कान की नाली से लिया गया वाहवाही का सुख या इन्द्रिय की नाली
से लिया गया कामविकार का सुख क्या मायना रखता है? ये तो नालियों के सुख हैं।

*नाम रतनु जिनि गुरमुखि पाइआ।। तिसु किछु अवरु नाही द्रिसटाइआ।।*

*नाम धनु नामो रूपु रंगु।। नामो सुखु हरि नाम का संगु।।*

जिस साधक ने गुरु के द्वारा मंत्र पाया है, उस गुरुमुख के लिए नाम ही धन, नाम
ही रूप है। जिस इष्ट का मंत्र है, उसी के गुण और स्वभाव को वह अपने चित्त में
सहज में भरता जाता है। उसका मन नाम के रंग से रँगा होता है।

*नाम रसि जो जन त्रिपताने।। मन नामहि नामि समाने।।*

*ऊठत बैठत सोवत नाम।। कहु नानक जन के सद काम।।*

जिसको उस नाम के रस में प्रवेश पाना आ गया है, उसका उठना-बैठना, चलना-फिरना सब
सत्कार्य हैं।

भगवन्नाम से सराबोर हुए ऐसे ही एक महात्मा का नाम था हरिदास। वे प्रतिदिन वैखरी
वाणी से एक लाख भगवन्नाम-जप करते थे। वे कभी-कभी सप्तग्राम में आकर पंडित बलराम
आचार्य के यहाँ रहते थे, जो वहाँ के दो धनिक जमींदार भाइयों-हिरण्य और गोवर्धन
मजूमदार के कुलपुरोहित थे। एक दिन आचार्य हरिदासजी को मजूमदार की सभा में ले
आये। वहाँ बहुत-से पंडित बैठे हुए थे। जमींदार ने उन दोनों का स्वागत-सत्कार
किया।

भगवन्नाम-जप के फल के बारे में पंडितों द्वारा पूछे जाने पर हरिदासजी ने
कहाः "इसके जप से हृदय में एक प्रकार की अपूर्व प्रसन्नता प्रकट होती है। इस प्रसन्नता सुख का आस्वादन करते रहना ही भगवन्नाम का सर्वश्रेष्ठ और सर्वोत्तम फल है।
भगवन्नाम भोग देता है, दोष निवृत्त करता है, इतना ही नहीं, वह मुक्तिप्रदायक भी
है। किंतु सच्चा साधक उससे किसी फल की इच्छा नहीं रखता।"

बिल्कुल सच्ची बात है। और कुछ आये या न आये केवल भगवन्नाम अर्थसहित जपता जाय तो
नाम ही जापक को तार देता है।

हरिदास महाराज के सत्संग को सुनकर हिरण्य मजूमदार के एक कर्मचारी गोपालचंद
चक्रवर्ती ने कहाः "महाराज ! ये सब बातें श्रद्धालुओं को फुसलाने के लिए हैं।
जो पढ़-लिख नहीं सकते, वे ही इस प्रकार जोरों से नाम लेते फिरते हैं। यथार्थ
ज्ञान तो शास्त्रों के अध्ययन से ही होता है। ऐसा थोड़े ही है कि भगवान के नाम
से दुःखों का नाश हो जाय। शास्त्रों में जो कहीं-कहीं भगवन्नाम की इतनी प्रशंसा
मिलती है, वह केवल अर्थवाद है।"

हरिदास जी ने कुछ जोर देते हुए कहाः "भगवन्नाम में जो अर्थवाद का अध्यारोप करते
हैं, वे शुष्क तार्किक हैं। वे भगवन्नाम के माहात्म्य को समझ ही नहीं सकते।
भगवन्नाम में अर्थवाद हो ही नहीं सकता। इसे अर्थवाद कहने वाले स्वयं अनर्थवादी
हैं, उनसे मैं कुछ नहीं कह सकता।"

जोश में आकर गोपालचंद चक्रवर्ती ने कहाः "यदि भगवन्नाम-स्मरण से मनुष्य की
नीचता नष्ट होती हो तो मैं अपनी नाक कटवा लूँगा।"

महात्मा हरिदास ने कहाः "भैया ! अगर भगवान के नाम से नीचताओं का जड़-मूल से नाश
न हो जाये तो मैं अपने नाक-कान, दोनों कटाने के लिए तैयार हूँ। अब
तुम्हारा-हमारा फैसला भगवान ही करेंगे।"

बाद में गोपालचंद्र चक्रवर्ती की नाक कट गयी। कुछ समय पश्चात दूसरे एक
नामनिन्दक-हरिनदी ग्राम के अहंकारी ब्राह्मण का हरिदासजी के साथ शास्त्रार्थ
हुआ। समय पाकर उसकी नाक में रोग लग गया और जैसे कोढ़ियों की उँगलियाँ गलती हैं,
वैसे देखते ही देखते उसकी नाक गल गयी।

उसके बाद हरिदास के इलाके में किसी ने भगवन्नाम की निन्दा नहीं की, फिर भले कोई
यवन ही क्यों न हो। कैसी महिमा है भगवन्नाम की !

भगवज्जनों के भावों की भगवान कैसे पुष्टि कर देते हैं ! भगवान ही जानते हैं
भगवन्नाम की महिमा। "हे भगवान ! तुम्हारी जय हो.... हे कृपानिधे ! हे
दयानिधे !हे हरि!......... ॐ..... ॐ.......' ऐसा करके जो भगवद् भाव में डूबते हैं वे धनभागी
हैं।
भगवन्नाम में ऐसी शक्ति है कि उससे शांति मिलती है, पाप-ताप नष्ट होते हैं,
रक्त के कण पवित्र होते हैं, विकारों पर विजय पाने की कला विकसित होती है,
व्यक्तिगत जीवन का विकास होता है, सामाजिक जीवन में सम्मान मिलता है, इतना ही
नहीं, मुक्ति भी मिल जाती है।

-भगवन्नाम जप महिमा पुस्तिका से