जिसने गाय के शुद्ध दूध की खीर खाकर तृप्ति पायी है उसके लिए नाली का पानी
तुच्छ है। ऐसे ही जिसने आत्मरस का पान किया है, उसके लिए नाकरूपी नाली से लिया
गया इत्र का सुख, कान की नाली से लिया गया वाहवाही का सुख या इन्द्रिय की नाली
से लिया गया कामविकार का सुख क्या मायना रखता है? ये तो नालियों के सुख हैं।
*नाम रतनु जिनि गुरमुखि पाइआ।। तिसु किछु अवरु नाही द्रिसटाइआ।।*
*नाम धनु नामो रूपु रंगु।। नामो सुखु हरि नाम का संगु।।*
जिस साधक ने गुरु के द्वारा मंत्र पाया है, उस गुरुमुख के लिए नाम ही धन, नाम
ही रूप है। जिस इष्ट का मंत्र है, उसी के गुण और स्वभाव को वह अपने चित्त में
सहज में भरता जाता है। उसका मन नाम के रंग से रँगा होता है।
*नाम रसि जो जन त्रिपताने।। मन नामहि नामि समाने।।*
*ऊठत बैठत सोवत नाम।। कहु नानक जन के सद काम।।*
जिसको उस नाम के रस में प्रवेश पाना आ गया है, उसका उठना-बैठना, चलना-फिरना सब
सत्कार्य हैं।
भगवन्नाम से सराबोर हुए ऐसे ही एक महात्मा का नाम था हरिदास। वे प्रतिदिन वैखरी
वाणी से एक लाख भगवन्नाम-जप करते थे। वे कभी-कभी सप्तग्राम में आकर पंडित बलराम
आचार्य के यहाँ रहते थे, जो वहाँ के दो धनिक जमींदार भाइयों-हिरण्य और गोवर्धन
मजूमदार के कुलपुरोहित थे। एक दिन आचार्य हरिदासजी को मजूमदार की सभा में ले
आये। वहाँ बहुत-से पंडित बैठे हुए थे। जमींदार ने उन दोनों का स्वागत-सत्कार
किया।
भगवन्नाम-जप के फल के बारे में पंडितों द्वारा पूछे जाने पर हरिदासजी ने
कहाः "इसके जप से हृदय में एक प्रकार की अपूर्व प्रसन्नता प्रकट होती है। इस प्रसन्नता सुख का आस्वादन करते रहना ही भगवन्नाम का सर्वश्रेष्ठ और सर्वोत्तम फल है।
भगवन्नाम भोग देता है, दोष निवृत्त करता है, इतना ही नहीं, वह मुक्तिप्रदायक भी
है। किंतु सच्चा साधक उससे किसी फल की इच्छा नहीं रखता।"
बिल्कुल सच्ची बात है। और कुछ आये या न आये केवल भगवन्नाम अर्थसहित जपता जाय तो
नाम ही जापक को तार देता है।
हरिदास महाराज के सत्संग को सुनकर हिरण्य मजूमदार के एक कर्मचारी गोपालचंद
चक्रवर्ती ने कहाः "महाराज ! ये सब बातें श्रद्धालुओं को फुसलाने के लिए हैं।
जो पढ़-लिख नहीं सकते, वे ही इस प्रकार जोरों से नाम लेते फिरते हैं। यथार्थ
ज्ञान तो शास्त्रों के अध्ययन से ही होता है। ऐसा थोड़े ही है कि भगवान के नाम
से दुःखों का नाश हो जाय। शास्त्रों में जो कहीं-कहीं भगवन्नाम की इतनी प्रशंसा
मिलती है, वह केवल अर्थवाद है।"
हरिदास जी ने कुछ जोर देते हुए कहाः "भगवन्नाम में जो अर्थवाद का अध्यारोप करते
हैं, वे शुष्क तार्किक हैं। वे भगवन्नाम के माहात्म्य को समझ ही नहीं सकते।
भगवन्नाम में अर्थवाद हो ही नहीं सकता। इसे अर्थवाद कहने वाले स्वयं अनर्थवादी
हैं, उनसे मैं कुछ नहीं कह सकता।"
जोश में आकर गोपालचंद चक्रवर्ती ने कहाः "यदि भगवन्नाम-स्मरण से मनुष्य की
नीचता नष्ट होती हो तो मैं अपनी नाक कटवा लूँगा।"
महात्मा हरिदास ने कहाः "भैया ! अगर भगवान के नाम से नीचताओं का जड़-मूल से नाश
न हो जाये तो मैं अपने नाक-कान, दोनों कटाने के लिए तैयार हूँ। अब
तुम्हारा-हमारा फैसला भगवान ही करेंगे।"
बाद में गोपालचंद्र चक्रवर्ती की नाक कट गयी। कुछ समय पश्चात दूसरे एक
नामनिन्दक-हरिनदी ग्राम के अहंकारी ब्राह्मण का हरिदासजी के साथ शास्त्रार्थ
हुआ। समय पाकर उसकी नाक में रोग लग गया और जैसे कोढ़ियों की उँगलियाँ गलती हैं,
वैसे देखते ही देखते उसकी नाक गल गयी।
उसके बाद हरिदास के इलाके में किसी ने भगवन्नाम की निन्दा नहीं की, फिर भले कोई
यवन ही क्यों न हो। कैसी महिमा है भगवन्नाम की !
भगवज्जनों के भावों की भगवान कैसे पुष्टि कर देते हैं ! भगवान ही जानते हैं
भगवन्नाम की महिमा। "हे भगवान ! तुम्हारी जय हो.... हे कृपानिधे ! हे
दयानिधे !हे हरि!......... ॐ..... ॐ.......' ऐसा करके जो भगवद् भाव में डूबते हैं वे धनभागी
हैं।
भगवन्नाम में ऐसी शक्ति है कि उससे शांति मिलती है, पाप-ताप नष्ट होते हैं,
रक्त के कण पवित्र होते हैं, विकारों पर विजय पाने की कला विकसित होती है,
व्यक्तिगत जीवन का विकास होता है, सामाजिक जीवन में सम्मान मिलता है, इतना ही
नहीं, मुक्ति भी मिल जाती है।
-भगवन्नाम जप महिमा पुस्तिका से
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