21.5.11

अपनी डफली अपना राग



(परम पूज्य आशाराम  बापूजी के सत्संग प्रवचन से)
आत्मा के प्रमाद से जीव दुःख पाते हैं। आकाश में वन नहीं होता और चन्द्रमा के मंडल में ताप नहीं होता, वैसे ही आत्मा में देह या इन्द्रियाँ कभी नहीं हैं। सब जीव आत्मरूप हैं। वृक्ष में बीज का अस्तित्व छुपा हुआ है, ऐसे ही जीव में ईश्वर का और ईश्वर में जीव का अस्तित्व है फिर भी जीव दुःखी है, कारण की जानता नहीं है। चित्त में आत्मा का अस्तित्व है और आत्मा में चित्त का, जैसे बीज में वृक्ष-वृक्ष में बीज। जैसे बालू  से तेल नहीं निकल सकता, वन्ध्या स्त्री का बेटा संतति पैदा नहीं कर सकता, आकाश को कोई बगल में बाँध नहीं सकता, ऐसे ही आत्मा के ज्ञान के सिवाय सारे बंधनों से कोई नहीं छूट सकता। आत्मा का ज्ञान हो जाय, उसमें टिक जाय तो फिर व्यवहार करे चाहे समाधि में रहे, उपदेश करे चाहे मौन रहे, अपने आत्मा में वह मरत है। फिर राज्य भी कर सकते हैं और विश्रांति भी कर सकते हैं।
रात्रि को एक हॉल में दस आदमी सो रहे हैं। जिसको जैसा-जैसा सपना आता है उसको उस वक्त वैसा-वैसा ही सच्चा लगता है। जाग्रत में भी जैसी जिसकी कल्पना होती है उसको वैसा ही सच्चा लगता है।
कुछ लोग जंगल में घूमने गये। तीतर पक्षी बोल रहा था। जो सब्जी मंडी में धंधा करता था, उससे पूछा कि "तीतर क्या बोलता है?"
वह बोलाः "धड़ाधड़-धड़ाधड़-धड़ाधड़...."
पहलवान बोलाः "नहीं-नहीं, यह बोलता है – दंड बैठक, दंड-बैठक, दंड-बैठक...."
तीसरा जो भक्त था, बोलाः "यह बोलता है – सीताराम-सीताराम, राधेश्याम..."
चौथा जो तत्वज्ञ था, बोलाः "अरे नहीं, यह बोलता है – एक में सब, सब में एक। तू ही तू, तू ही तू...."
जैसी अपनी-अपनी कल्पना थोप दी, वैसा दिखने लगा। ऐसे ही इस जगत में अपने-अपने फुरने पैदा होते हैं, वैसे-वैसे विचारों में जीव घटीयंत्र (अरहट) की नाईं भटकता रहता है। इस फुरने को मोड़कर जहाँ से फुरना उठता है उस परमात्मा में शांति पा ले अथवा फुरने को फुरना समझ कर उसका साक्षी हो जाय तो मंगल हो जाय, कल्याण हो जाये।
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कर्मफल अवश्य ही भोगना पड़ता है


कर्मफल अवश्य ही भोगना पड़ता है
देवर्षि नारद जी ने श्री सनकजी से कहाः "भगवन् ! मेरे मन में एक संदेह पैदा हो गया है। आपने कहा है कि जो लोग पुण्यकर्म करते हैं, उन्हें कोटि सहस्र कल्पों तक उनका महान भोग प्राप्त होता रहता है। दूसरी ओर यह भी आपने बताया है कि प्राकृत प्रलय में सम्पूर्ण लोकों का नाश हो जाता है और एकमात्र भगवान विष्णु ही शेष रह जाते हैं। अतः मुझे यह संशय हुआ है कि क्या प्रलयकाल तक जीव के पुण्य और पापभोग की समाप्ति नहीं होती? आप इस संदेह का निवारण करने योग्य है।"
श्रीसनक जी बोलेः "महाप्राज्ञ ! भगवान नारायण अविनाशी, अनंत, परम प्रकाशस्वरूप और सनातन पुरुष हैं। वे विशुद्ध, निर्गुण, नित्य और माया-मोह से रहित हैं। परमानंदस्वरूप श्रीहरि निर्गुण होते हुए भी सगुण से प्रतीत होते हैं। ब्रह्मा, विष्णु और शिव आदि रूपों में व्यक्त होकर भेदभाव से दिखायी देते हैं। वे ही माया के संयोग से सम्पूर्ण जगत का कार्य करते हैं। ये ही माया के संयोग से सम्पूर्ण जगत का कार्य करते हैं। ये ही श्री हरि ब्रह्माजी के रूप से सृष्टि तथा विष्णुरूप से जगत का पालन करते हैं और अंत में भगवान रूद्र के रूप से ही सबको अपना ग्रास बनाते हैं। यह निश्चित सत्य है। प्रलय काल व्यतीत होने पर भगवान जनार्दन ने शेषशय्या से उठकर ब्रह्माजी के रूप से सम्पूर्ण चराचर विश्व की पूर्वकल्पों में जो-जो स्थावर-जंगम जीव जहाँ-जहाँ स्थित थे, नूतन कल्प में ब्रह्माजी उस सम्पूर्ण जगत की पूर्ववत् सृष्टि कर देते हैं। अतः साधुशिरोमणे ! किये हुए पापों और पुण्यों का अक्षय फल अवश्य भोगना पड़ता है (प्रलय हो जाने पर जीव के जिन कर्मों का फल शेष रह जाता है, दूसरे कल्प में नयी सृष्टि होने पर वह जीव पुनः अपने पुरातन कर्मों का भोग भोगता है।) कोई भी कर्म सौ करोड़ कल्पों में भी बिना भोगे नष्ट नहीं होता। अपने किये हुए शुभ और अशुभ कर्मों का फल अवश्य ही भोगना पड़ता है।"
नाभुक्तं क्षीयते कर्म कल्पकोटिशतैरपि।
अवश्यमेव भोक्तव्यं कृतं कर्म शुभाशुभम्।।
(नारद पुराणः पूर्व भागः 31.69-70)
पूज्य बापू कहते हैः
चाहे कोई देखे या न देखे फिर भी कोई है जो हर समय देख रहा है, जिसके पास हमारे पाप-पुण्य सभी देख रहा है, जिसके पास हमारे पाप-पुण्य सभी कर्मों का लेखा-जोखा है। इस दुनिया की सरकार से शायद कोई बच भी जाय पर उस सरकार से आज तक न कोई बचा है और न बच पायेगा। किसी प्रकार की सिफारिश अथवा रिश्वत वहाँ काम नहीं आयेगी। उससे बचने का कोई मार्ग नहीं है। कर्म करने में तो मानव स्वतंत्र है किंतु फल में भोगने में कदापि नहीं, इसले हमेशा अशुभ कर्मों का त्याग करके शुभ कर्म करने चाहिए।
जो कर्म स्वयं को और दूसरा को भी सुख-शांति दें तथा देर-सवेर भगवान तक पहुँचा दें, वे शुभ कर्म हैं और जो क्षण भर के लिए ही (अस्थायी) सुख दे तथा भविष्य में अपने को व दूसरों को भगवान से दूर कर दें, नरकों में पहुँचा दें उन्हें अशुभ कर्म कहते हैं।
किये हुए शुभ या अशुभ कर्म कई जन्मों तक मनुष्य का पीछा नहीं छोडते। पूर्वजन्मों के कर्मों के जैसे संस्कार होते हैं, वैसा फल भोगना पड़ता है।
गहना कर्मणो गतिः।
'कर्मों की गति बड़ी गहन होती है।' (गीताः4.17)
कर्म का फल तो भोगना ही पड़ता है, चाहे कोई इसी जन्म में भोगे, चाहे दो जन्मों के बाद भोग, चाहे हजार जन्मों के बाद भोगे।
हजारों वर्षों तक नरकों में पड़ने के बजाय थोड़ा सा ही पवित्र जीवन बिताना कितना हितकारी है !
मनुष्य-जन्म एक चौराहे के समान है। यहाँ से सारे रास्ते निकलते हैं। आप सत्कर्म करके देवत्व लाओ और स्वर्ग के अधिकारी बनो अथवा तो ऐसा कर्म करो कि यक्ष, किन्नर, गंधर्व बन जाओ, आपके हाथ की बात है। जप, ध्यान, भजन, संतों का संग आदि करके ब्रह्म का ज्ञान पाकर मुक्त हो जाओ, यह भी आपके ही हाथ की बात है। फिर कोई कर्मबंधन आपको बाँध नहीं सकेगा।
(पूज्य बापूजी के सत्संग से निर्मित पुस्तक 'कर्म का अकाट्य सिद्धान्त' से)
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सुखमय जीवन के सोपान


जहाँ कुमति तहँ बिपति निदाना
(पूज्य बापूजी के सत्संग-प्रवचन से)
हजारो-हजारों के जीवन में मैंने देखा कि जिन्होंने संतों का कुप्रचार किया, उन्हें सताया या संत के दैवी कार्य में बाधा डाली, उनको फिर खूब-खूब दुःख सहना पड़ा, मुसीबतें झेलनी पड़ीं। जो संत के दैवी कार्य में लगे उनको खूब सहयोग मिला और उन्होंने बिगड़ी बाजियाँ जीत लीं। उनके बुझे दीये जल गये, सूखे बाग लहराने लगे। ऐसे तो हजारों-लाखों लोग होंगे।
'गुरुवाणी' में जो आया है, बिल्कुल सच्ची बात हैः
संत का निंदकु महा हतिआरा।।
संत का निंदकु परमेसुरि मारा।।
संत का दोखी बिगड़ रूप हो जाइ।।
संत के दोखी कउ दरगह मिलै सजाइ।
संत के दोखी की पुजै न आसा।
संत के दोखी उठी चलै निरासा।।
संत के दोखी कउ अबरू न राखन हारू।
नानक संत भावै ता लए उवारि।
अगर वह सुधर जाता है और संत की शरण आता है तो फिर संत उसका अपनी कृपा से उद्धार भी कर देते हैं।
किसी का सत्यानाश करना हो तो उसे संत की निंदा सुना दो, अपने-आप सत्यानाश हो जायेगा और किसी का बेड़ा पार करना हो तो संत के सत्संग में तथा संत के दैवी कार्य में लगा दो, अपने आप उसका भविष्य उज्जवल हो जायेगा।
यह बात रामायणकार की दृष्टि से भी मिलती हैः
जहाँ सुमति तहँ संपत्ति नाना।
आप भगवन्नाम-सुमिरन करते हो, दुष्ट प्रवृत्ति से बचते हो तो आपकी मति सुमति हो जाती है, अनेक प्रकार की दैवी सम्पदा आपकी सुरक्षा करती है। आपके पास वालों को भी फायदा हो जाता है। इस प्रकार जहाँ सुमति है वहाँ उस परमात्मदेव की सम्पदा रक्षा करती है।
जहाँ कुमति तहँ बिपत्ति निदाना।।
जो कुकर्म करते हैं, दूसरों की श्रद्धा तोड़ते हैं अथवा और कुछ गहरा कुकर्म करते हैं उन्हें महादुःख भोगना पड़ता है और यह जरूरी नहीं है कि किसी ने आज श्रद्धा तोड़ी तो उसको आज ही फल मिले। आज मिले, महीने के बाद मिले, दस साल के बाद मिले... अरे ! कर्म के विधान में तो ऐसा है कि 50 साल के बाद  भी फल मिल सकता है या बाद के किसी जन्म में भी मिल सकता है।श्रद्धा से प्रेमरस बढ़ता है, श्रद्धा से सत्य की प्राप्ति होती है। कोई हमारा हाथ तोड़ दे तो इतना पापी नहीं है, किसी ने हमारा पैर तोड़ दिया तो वह इतना पापी नहीं है, किसी ने हमारा सिर फोड़ दिया तो वह इतना पापी नहीं है जितना वह पापी है जो हमारी श्रद्धा को तोड़ता है।
कबीरा निंदक निंदक न मिलो पापी मिलो हजार।
एक निंदक के माथे पर लाख पापिन को भार।।
जो भगवान की, हमारी साधना की अथवा गुरु की निंदा करके हमारी श्रद्धा तोड़ता है वह भयंकर पातकी माना जाता है। उसकी बातों में नहीं आना चाहिए।
रविदासजी, दादू दीनदयालजी आदि संतों के लिए अफवाहें और कहानियाँ बनाकर निंदा करने वाले लोग थे। स्वामी रामसुखदासजी के लिए निंदा करने वाले लोग थे। 60 साल की उम्र में उस महासंत के बारे में कई प्रकार के हथकंडे अपनाकर ऐसा कुप्रचार किया गया, जिसको झेलने में हमारी वाणी अपवित्र होगी और सुनने से आपके कान अपवित्र होंगे। ऐसी गंदी-गंदी बातों का प्रचार किया कि उस महान संत को अन्न और जल छोड़ देना पड़ा।
निंदा करके लोगों की श्रद्धा तोड़नेवाले लोगों को तो जब कष्ट होगा तब होगा लेकिन जिसकी श्रद्धा टूटी उसका तो सर्वनाश हुआ। बेचारे की शांति गयी, प्रेमरस गया, सत्य का प्रकाश गया। गुरु से नाता जुड़ा और फिर पापी ने तोड़ दिया।
आजकल हिन्दू धर्म को नीचा दिखाने का षडयंत्र हिन्दुस्तान में चल रहा है। हम क्यों अपने धर्म पर से श्रद्धा टूटने देंगे? जिस धर्म में भगवान श्रीकृष्ण अवतरित हुए, श्रीराम अवतरित हुए, शिवजी प्रगट हुए, जिस धर्म में मीराबाई, संत कबीरजी, गुरु नानकजी जैसे महापुरुष प्रकट होते रहे, जिस धर्म में गंगाजी को प्रकट करने वाले राजा भगीरथ हुए ऐसा धर्म हम क्यों छोड़ेंगे?
गुरु तेगबहादुर बोलिया।
सुनो सिखो बड़भागियाँ।।
धड़ दीजिये धर्म न छोड़िये।।

सिर दीज सदगुरु मिले
तो भी सस्ता जान।
सिर देकर भी हिन्दू धर्म का सच्चा ब्रह्मज्ञानी सतगुरु मिले तो भी सौदा सस्ता है !
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वे पाप जो प्रायश्चितरहित हैं



धर्मराज (मृत्यु के अधिष्ठाता देव) राजा भगीरथ से कहते हैं- "भूपाल ! जो स्नान अथवा पूजन के लिए जाते हुए लोगों के कार्य में विघ्न डालता है, उसे ब्रह्मघाती कहते हैं। जो परायी निंदा और अपनी प्रशंसा में लगा रहता है तथा जो असत्य भाषण में रत रहता है, वह ब्रह्महत्यारा कहा गया है।
जो अधर्म का अनुमोदन करता है उसे ब्रह्मघात का पाप लगता है। जो दूसरों को उद्वेग में डालता है, चुगली करता है और दिखावे में तत्पर रहता है, उसे ब्रह्महत्यारा कहते हैं।
भूपते ! जो पाप प्रायश्चितरहित हैं, उनका वर्णन सुनो। वे पाप समस्त पापों से बड़े तथा भारी नरक देने वाले हैं। ब्रह्महत्या आदि पापों के निवारण का उपाय तो किसी प्रकार हो सकता है परंतु जो ब्राह्मण अर्थात् जिसने ब्रह्म को जान लिया है ऐसे महापुरुष से द्वेष करता है, उसका पाप से कभी भी निस्तार नहीं होता।
नरेश्वर ! जो विश्वासघाती तथा कृतघ्न हैं उनका उद्धार कभी नहीं होता। जिनका चित्त वेदों की निंदा में ही रत है और जो भगत्कथावार्ता आदि की निंदा करते हैं, उनका इहलोक तथा परलोक में कहीं भी उद्धार नहीं होता।
भूपते ! जो महापुरुषों की निंदा को आदरपूर्वक सुनते हैं, ऐसे लोगों के कानों में तपाये हुए लोहे की बहुत सी कीलें ठोक दी जाती है। तत्पश्चात कानों के उन छिद्रों में अत्यंत गरम किया हुआ तेल भर दिया जाता है। फिर ये कुंभीपाक नरक में पड़ते हैं।
जो दूसरों के दोष बताते या चुगली करते हैं, उन्हें एक सहस्र युग तक तपाये हुए लोहे का पिण्ड भक्षण करना पड़ता है। अत्यंत भयानक सँडसो से उनकी जीभ को पीड़ा दी जाती है और वे अत्यंत घोर निरुच्छवास नामक नरक में आधे कल्प तक निवास करते हैं।
श्रद्धा का त्याग, धर्म कार्य का लोप, इन्द्रियसंयमी पुरुषों की और शास्त्र की निंदा करना महापातक बताया गया है।
जो परायी निंदा में तत्पर, कटुभाषी और दान में विघ्न डालने वाले होते हैं वे महापातकी बताये गये हैं। ऐसे महापातकी लोग प्रत्येक नरक में एक-एक युग रहते हैं और अंत में इस पृथ्वी पर आकर वे सात जन्मों तक गधा होते हैं। तदनंतर वे पापी दस जन्मों तक घाव से भरे शरीर वाले कुत्ते होते हैं, फिर सौ वर्षों तक उन्हें विष्ठा का कीड़ा होना पड़ता है। तदनंतर बारह जन्मों तक वे सर्प होते हैं। राजन ! इसके बाद एक हजार जन्मों तक वे मृग आदि पशु होते हैं। फिर सौ वर्षों तक स्थावर (वृक्ष) आदि योनियों में जन्म लेते हैं। तत्पश्चात् उन्हें गोधा (गोह) का शरीर प्राप्त होता है। फिर सात जन्मों तक वे पापाचारी चाण्डाल होते हैं। इसके बाद सोलह जन्मों तक उनकी दुर्गति होती है। फिर दो जन्मों तक वे दरिद्र, रोगपीड़ित तथा सदा प्रतिग्रह लेने वाले होते हैं। इससे उन्हें फिर नरकगामी होना पड़ता है।
राजन् ! जो झूठी गवाही देता है, उसके पाप का फल सुनो। वह जब तक चौदह इंद्रों का राज्य समाप्त होता है, तब तक सम्पूर्ण यातनाओं को भोगता रहता है। इस लोक में उसके पुत्र-पौत्र भी नष्ट हो जाते हैं और परलोक में वह रौरव तथा अन्य नरकों को क्रमश भोगता है।"
(नारद पुराणः पूर्व भाग-प्रथम पादः अध्याय 15)
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सन् 1593 की एक घटित घटना


नर को बस करिबौ कहाँ नारायण बस होय
(पूज्य बापूजी के सत्संग प्रवचन से)
अब्दुल रहीम खानखाना अकबर के नवरत्नों में से एक थे। एक प्रकार से वे अपनी रियासत के राजा ही थे परंतु हृदय के रहीम (दयालु) थे। वे मुसलिम थे फिर भी भगवान श्रीकृष्ण को अपना इष्टदेव मानते थे।
सन् 1593 की एक घटित घटना है। अकबर ने उन्हें दक्षिण भारत में राज्य-विस्तार के लिए भेजा। रहीम की शूरवीरता देखकर शत्रु राजा ने उनको संदेशा भेजा कि आप मेरे यहाँ पधारो न भोजन करने ! हम मित्रता करें।
जिसका हृदय भक्ति, स्नेह से सम्पन्न हुआ हो, उसे अहंकार बढ़ाकर सत्ता बढ़े ऐसा नहीं लगता। रहीम के जीवन में श्रीकृष्ण की भक्ति थी इसलिए उन्होंने आपसी स्नेह बढ़ाने का न्यौता स्वीकार कर लिया। एक अंगरक्षक को साथ लेकर रहीम उस राजा के यहाँ भोजन करने गये। किले के फाटक के आगे एक बालक खड़ा था, वह बोलाः "ठहरो-ठहरो ! तुम कहाँ जा रहे हो?"
"राजा के यहाँ भोजन करने।"
"नहीं करना भोजन। वापस चले जाओ।"
"ऐ रहीम खानखाना को वापस करने वाले बच्चे ! अभी अक्ल के कच्चे हो। मैंने मित्र को वचन दिया है।"
"फिर भी नहीं जाओ"
"अरे, तुम बोलते हो तो क्या है? कोई रास्ते चलने वाला बच्चा बोल दे- 'ऐसा नहीं करो' तो क्या मैं मानने वाला हूँ? मैं अपने सलाहकारों की भी बात इतनी जल्दी नहीं मानता हूँ तो रास्ते जानेवाले बच्चे की मानूँगा?"
बच्चा समझाता गया और रहीम सुनकर आश्चर्य करते गये। बोलेः "तुम इतना आग्रह क्यों कर रहे हो कि मैं भोजन करने न जाऊँ? राजा ने मैत्री के लिए हाथ बढ़ाया है तो हम तो मैत्री में मानते हैं।"
"भले किसी मैत्री-वैत्री में मानो लेकिन मैं बोलता हूँ भोजन करने मत जाओ। राजा ने  भोजन में विष मिला दिया है।"
"क्या?"
"हाँ।"
"मैंने वचन दिया है कि मैं भोजन करने आऊँगा। बच्चों की बातें मानकर मैं दिया हुआ वचन तोड़ दूँ और झूठा पडूँ?"
"झूठे पड़ो तो लेकिन भोजन करने मत जाओ। काहे को जा रहे हो मरने?"
रहीम ने दोहा उच्चाराः
अमीं पियाबत मान बिनु, रहिमन हमें न सुहाय।
मान सहित मरिबौ भलौ, जो विष देय पिलाय।।
"यदि कोई बिना मान के अर्थात् बेमन से बुलाकर अमृत पिलाय तो इस प्रकार अपमानित होना हमें नहीं भाता। इसके विपरीत यदि कोई शत्रु आदररहित, प्रेमसहित विष भी पिला दे तो उसे पीकर मरना ज्यादा ठीक समझते हैं।
राजा ने प्रेमपूर्वक मित्रता का हाथ बढ़ाया है तो अब चाहे विष भी दे दे, कोई बात नहीं। मैं तो जाऊँगा।"
"अरे ! क्या जाऊँगा-जाऊँगा? जब मैं बोलता हूँ मत जाओ।"
"ऐ बालक ! इतना अधिकारपूर्वक कैसे बोलता है? मैं तेरी आज्ञा मानने वाला नहीं हूँ।"
"मेरी आज्ञा क्यों नहीं मानोगे? माननी पड़ेगी।"
"रास्ते जानेवाला बच्चा और रहीम से आज्ञा मनवा ले ! बालक ! तू मेरा क्या लगता है कि मैं तेरा आदेश मानूँ? बालक ! तू मेरा क्या लगता है मैं तेरा आदेश मानूँ? क्या तू मेरा इष्टदेव भगवान श्रीकृष्ण है, जो दिया हुआ वचन मैं तोड़ूँ और तेरी बात मानूँ?"
"अगर मैं श्रीकृष्ण ही होऊँ तो?"
"फिर तुम्हारी बात मानूँगा।"
"तो मैं श्री कृष्ण हूँ, बात मान लो।"
"नहीं, बालक रूप में हम विश्वास नहीं करते, प्रकट होकर दिखाओ।"
रास्ता रोकने वाला नन्हा-मुन्ना बालक अपने असली रूप से प्रकट हुआ। भगवान श्रीकृष्ण का दिव्य विग्रह देखकर रहीम घोड़े पर से उतर कर भगवान के चरणों में गिरे तो श्रीकृष्ण अंतर्ध्यान हो गये।
भगवान भक्त के लिए कितना वात्सल्य छलकाते हैं। क्या प़ड़ी थी? नहीं मानता था तो मुआ जाय। पर नहीं। आखिर नहीं जाने दिया तो नहीं जाने दिया।
रहीम ने किले पर चढ़ाई कर दी और देखते-ही-देखते उस धोखेबाज राजा को बंदी बना कर अपने सामने बुलाया। रहीम बोलेः "क्यों ! दोस्ती का हाथ बढ़ाते-बढ़ाते मुझे जहर देकर मारने की साजिश !"
राजा चकित हो गया।
रहीमः "आपने मित्रता की बात कही थी तो मैं आपको मृत्युदंड तो नहीं दूँगा लेकिन धोखा !"
राजाः "मेरा तो अपराध है लेकिन यह आपको पता कैसे चला? मैंने अपने विश्वासू रसोईये से खाना बनवाया और जहर देने की बात उसको भी पता न चले ऐसी मैंने व्यवस्था की थी। आपको किसने बताया?"
"छोड़ो इस बात को।"
"नहीं। भले ही आप मुझे मृत्युदंड दे दो लेकिन यह बात तो मुझे कहो।"
रहीम बोलेः "जो सर्वेश्वर है, परमेश्वर है, प्राणिमात्र का अंतरात्मा है उसको मैं कृष्णरूप में नवाजता हूँ, उसी का मैं सिजदा करता हूँ। वही बालक होकर आया क्योंकि अंदर की आवाज तो मैं मानने को तैयार नहीं था। मैंने बालक रूप में उसकी बात नहीं मानी, तब श्रीकृष्ण ने प्रकट रूप में आदेश दिया तो हमें उसकी बात माननी पड़ी। कैसे हैं इष्टदेव !"
"रहीम ! आपने श्रीकृष्ण की भक्ति का मर्म जाना है। अब चाहे आप मुझे मृत्युदंड दो या जीवनदान दो लेकिन अब यह जीवन श्रीकृष्ण के लिए है।"
"आपका जीवन श्रीकृष्ण के लिए है तो मैं आपके लिए और आप मेरे लिए।" रहीम ने राजा को गले लगा लिया और दोनों उस दिन से सच्चे मित्र बन गये।
रहीम बड़े उच्चकोटि के भक्तकवि थे। उन्होंने भगवदभक्ति, नीति आदि अनेक विषयों पर सागर्भित दोहे रचे जो समाज में आज भी लोकप्रिय हैं। रहीम कहते हैं-
रहिमन मन ही लगाय के, देखि लऊकिन कोय।
नर को बस करीबौ कहाँ, नारायण बस होय।।
रहिमन रोइबो कौन विधि, हँसिबो कौन विचार।
गये सो आवन को नहीं, रहे सो जावनहार।।
इस संसार के लिए हँसना रोना क्या?
प्रीतम छवि नैनन बसी, पर छवि कहाँ समाय।
भरी सराय रहीम लखि, पथिक आप फिरि जाय।।
एक बार इन आँखों में प्रियतम बस गया तो वहाँ किसी और के लिए कोई स्थान नहीं रहता। सराय में स्थान नहीं होता तो लोग स्वतः ही लौट जाते हैं।
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अपने घर में देख !



सूफी फकीर लोग कहानी सुनाया करते हैं कि प्रभात को कोई अपने खेत की रक्षा करने के लिए जा रहा था। रास्ते में उसे एक गठरी मिली। देखा कि इसमें कंकड़-पत्थर हैं। उसने गठरी ली और खेत में पहुँचा। खेत के पास ही एक नदी थी। वह एक-एक कंकड़-पत्थर गिलोल में डाल-डाल के फेंकने लगा। इतने  कोई जौहरी वहाँ स्नान करने आया। उसने स्नान किया तो देखा चमकीला पत्थर.... उठाया तो हीरा ! वह उस व्यक्ति के पास गया जो हीरों को पत्थर समझ के गिलोल में डाल-डाल के फेंक रहा था। उसके पास एक नग बाकी बचा था।
जौहरी ने कहाः 'पागल ! यह तू क्या कर रहा है? हीरा गिलोल में डालकर फेंक रहा है !"
वह बोलाः "हीरा क्या होता है?"
"यह दे दे, तेरे को मैं इसके 50 रूपये देता हूँ।"
फिर उसने देखा कि "50 रूपये.... इसके ! इसके तो ज्यादा होने चाहिए।"
"अच्छा 100 रूपये देता हूँ।"
"मैं जरा बाजार में दिखाऊँगा, पूछूँगा।"
"अच्छा 200 ले ले।"
ऐसा करते-करते उस जौहरी ने 1100 रूपये में वह हीरा ले लिया। उस व्यक्ति ने रूपये लेकर वह हीरा तो दे दिया लेकिन वह छाती कूट के रोने लगा कि 'हाय रे हाय' मैंने इतने हीरे नदी में बहा दिये। मैंने कंकड़ समझकर हीरों को खो दिया। मैं कितना मूर्ख हूँ, कितना बेवकूफ हूँ !"
उससे भी ज्यादा बेवकूफी हम लोगों की है। कहाँ तो सच्चिदानंद परमात्मा, कहाँ तो ब्रह्मा, विष्णु, महेश का पद, कहाँ तो 33 करोड़ देवताओं से भी ऊँचा पद और कहाँ फातमा, अमथा, शकरिया का बाप होना तथा उनकी मोह-माया में जीवन पूरा करके अपने आत्मनाथ से मिले बिना अनाथ होकर श्मशान में जल मरना !
आप शिवाजी से रत्ती भर कम नहीं हैं। आप ब्रह्माजी से तिनका भर भी कम नहीं हैं। आप श्रीकृष्ण से धागा भर भी कम नहीं हैं। आप रामकृष्ण परमहंस जी से एक डोरा भर भी कम नहीं है। आप भगवत्पाद लीलाशाहजी बापू से एक तिल भर भी कम नहीं हैं और आप आसाराम बापू से एक आधा तिल भी कम नहीं हैं।
भगवान कहते हैं-
'हे अर्जुन ! मैं सब भूतों के हृदय में स्थित सबका आत्मा हूँ।'
(गीताः10.20)
लेकिन चिल्ला रहे हैं- 'हे कृष्ण ! तू दया कर। हे राम ! तू दया कर। हे अमथा काका ! तू दया कर। हे सेंधी माता ! तू दया कर...' पर यहाँ क्य है?
इन्सान की बदबख्ती अंदाज से बाहर है।
कमबख्त खुदा होकर बंदा नजर आता है।।
शोधी ले शोधी ले,
निज घरमां पेख, बहार नहि मले।
ढूँढ ले ढूँढ ले, अपने घर में देख अर्थात् अपने में गोता मार और जान ले निज स्वरूप को बाहर नहीं मिलेगा।
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