महाराष्ट्र में एक लड़का था। उसकी माँ
बड़ी कुशल और सत्संगी थी। वह बच्चे को थोड़ा बहुत ध्यान सिखाती थी। लड़का जब 14-15
साल का हुआ, तब तक
उसकी बुद्धि विलक्षण बन गयी।
चार डकैत थे। उन्होंने कहीं डाका डाला
तो हीरे-जवाहरात का बक्सा मिल गया। उसे सुरक्षित रखने के लिए चारों एक ईमानदार
बुढ़िया के पास गये। बक्सा देते हुए बुढ़िया से बोलेः
"माता जी ! हम चारो मित्र
व्यापार-धंधा करने के लिए निकले हैं। हमारे पास कुछ पूँजी है। यहाँ कोई जान-पहचान
नहीं है। इस जोखिम को कहाँ साथ लेकर घूमें ? आप
इसे रखें और जब हम चारों मिलकर एक साथ लेने के लिए आयें, तब लौटा देना।"
बुढ़िया ने कहाः "ठीक है।"
बक्सा देकर चोर रवाना हुए, आगे गये तो एक चरवाहा दूध लेकर
बेचने जा रहा था। इन लोगों को दूध पीने की इच्छा हुई। पास में कोई बर्तन तो था
नहीं। तीन डकैतों ने अपने चौथे साथी को कहाः "जाओ, वह बुढ़िय़ा का घर दिख रहा है, वहाँ से बर्तन ले आओ। हम लोग
यहाँ इंतजार करते हैं।"
डकैत बर्तन लेने चला गया। रास्ते में
उसकी नीयत बिगड़ गयी। वह बुढ़िया के पास आकर बोलाः "माता जी ! हम लोगों ने
विचार बदल दिया है। यहाँ नहीं रूकेंगे। आज ही दूसरे नगर में चले जायेंगे। अतः
हमारा बक्सा लौटा दो। मेरे तीन दोस्त सामने खड़े हैं। मुझे बक्सा लेने भेजा
है।"
बुढ़िया को जरा सन्देह हुआ। बाहर आकर
उसके साथियों की तरफ देखा तो तीनों खड़े थे। बुढ़िया ने बात पक्की करने के लिए
उनको इशारे से पूछाः "इसको दे दूँ ?"
डकैतों को लगा कि माई पूछ रही है, इसको बर्तन दूँ ? तीनों ने दूर से ही कह दियाः "हाँ, हाँ उसको दे दो।"
बुढ़िया घर में गयी। पिटारे से बक्सा
निकालकर उसे दे दिया। वह चौथा डकैत लेकर दूसरे रास्ते से पलायन हो गया।
तीनों साथी काफी इंतजार करने के बाद
बुढ़िया के पास पहुँचे। उन्हें पता चला कि चौथा साथी बक्सा ले भागा है। अब तो वे
बुढ़िया पर ही बिगड़ेः "तुमने एक आदम को बक्सा दिया ही क्यों ? चारों को साथ में देने की शर्त की
थी।"
झगड़ा हो गया। बात पहुँची राजदरबार में।
डकैतों ने पूरी हकीकत राजा को बतायी। राजा ने माई से पूछाः
"क्यों जी ! इन लोगों ने बक्सा
दिया था ?"
"जी महाराज !"
"ऐसा कहा था कि जब चारों मिलकर आवे
तब लौटाना ?"
"जी महाराज"
"तुमने एक ही आदमी को बक्सा दे
दिया, अब इन
तीनों को भी अपना अपना हिस्सा मिलना चाहिए। तेरी माल-मिल्कियत, जमीन जायदाद, जो कुछ भी हो उसे बेचकर इन
लोगों का हिस्सा चुकाना पड़ेगा। यह हमारा फरमान है।" राजा ने बुढ़िया को आदेश
दिया।
बुढ़िया रोने लगी। वह विधवा थी। घर में
छोटे-छोटे बच्चे थे। कमाने वाला कोई था नहीं। संपत्ति नीलाम हो जायेगी तो गुजारा
कैसे होगा। वह अपने भाग्य को कोसती हुई, रोती पीटती रास्ते से गुजर रही
थी। 15 साल के रमण ने उसे देखा तो पूछने लगाः
"माता जी ! क्या हुआ ? क्यों रो रही हो ?"
बुढ़िया ने सारा किस्सा कह सुनाया। आखिर
में बोलीः
"क्या करूँ बेटा ! मेरी तकदीर ही
फूटी है, वरना
मैं उनका बक्सा लेती ही क्यों ?"
रमण ने कहाः "माता जी ! आपकी तकदीर
का कसूर नहीं है, कसूर
तो राजा की खोपड़ी का है।"
संयोगवश राजा गुप्तवेश में वहीं से गुजर
रहा था। उसने सुन लिया और पास आकर पूछने लगाः
"क्या बात है ?"
"बात यह है कि नगर के राजा को
न्याय करना नहीं आता। इस माता जी के मामले में गलत निर्णय दिया है।" रमण ने
निर्भयता से बोल गया।
राजाः "अगर तू न्यायाधीश होता तो
कैसा न्याय देता ?" किशोर रमण की बात सुनकर राजा
की उत्सुकता बढ़ रही थी।
रमणः "राजा को न्याय करवाने की गरज
होगी तो मुझे दरबार में बुलायेंगे। फिर मैं न्याय दूँगा।"
दूसरे दिन राजा ने रमण को राजदरबार में
बुलाया। पूरी सभा लोगों से खचाखच भरी थी। वह बुढ़िया माई और तीन मित्र भी बुलाये
गये थे। राजा ने पूरा मामला रमण को सौंप दिया।
रमण ने बुजुर्ग न्यायाधीश की अदा से
मुकद्दमा चलाते हुए पहले बुढ़िया से पूछाः
"क्यों माता जी ? चार सज्जनों ने आपको बक्सा सँभालने के
लिए दिया था।"
बुढ़ियाः "हाँ।"
रमणः "चारों सज्जन मिलकर एक साथ
बक्सा लेने आयें तभी बक्सा लौटाने के लिए कहा था ?"
"हाँ।"
रमण ने अब तीनों डकैतों से कहाः
"अरे, अब तो
झगड़े की कोई बात ही नहीं है। सदगृहस्थो ! आपने ऐसा ही कहा था न कि हम चार मिलकर
आयें तब हमें बक्सा लौटा देना ?"
डकैतः "हाँ, ठीक बात है। हमने इस माइ से ऐसा
ही तय किया था।"
रमणः "ये माता जी तो अभी भी आपका
बक्सा लौटाने को तैयार हैं, मगर आप
ही अपनी शर्त भंग कर रहे हैं।"
"कैसे ?"
"आप चारों साथी मिलकर आओ तो अभी
आपकी अमानत दिलवा देता हूँ। आप तो तीन ही हैं। चौथा कहाँ है ?"
"साहब ! वह तो..... वह
तो....."
"उसे बुलाकर लाओ। जब चारों साथ में
आओगे, तभी
आपको बक्सा मिलेगा। नाहक में इन बेचारी माता जी को परेशान कर रहे हो ?"
तीनों व्यक्ति मुँह लटकाये रवाना हो
गये। सारी सभा दंग रह गयी। सच्चा न्याय करने वाले प्रतिभासंपन्न बालक की
युक्तियुक्त चतुराई देखकर राजा भी बड़ा प्रभावित हुआ।
प्रतिभा विकसित करने की कुंजी सीख लो।
जरा-सी बात में खिन्न न होना, मन को स्वस्थ व शांत रखना। ऐसी पुस्तकें
पढ़ना जो संयम और सदाचार बढ़ायें, परमात्मा का ध्यान करना और सत्पुरूषों
का सत्संग करना – ये ऐसी
कुंजियाँ हैं, जिनसे
तुम भी प्रतिभावान बन सकते हो। वही बालक रमण आगे चलकर महाराष्ट्र में मुख्य
न्यायाधीश बना और मरियाड़ा रमण के नाम से सुविख्यात हुआ।
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