24 मार्च 2010; हरिद्वार राम नवमी सत्संग समाचार
लोक लाडले परम पूज्य संतश्री आसाराम बापूजी को वेद, वेदान्त, गीता, रामायण, भागवत, योगवाशिष्ठ-महारामायण, योगशास्त्र, महाभारत, स्मृतियाँ, पुराण, आयुर्वेद आदि अन्यान्य धर्मग्रन्थों का मात्र अध्ययन ही नहीं, आप इनके ज्ञाता होने के साथ अनुभवनिष्ठ आत्मवेत्ता संत भी हैं | हरिद्वार में लाखो लोग पूज्यश्री के सान्निध्य में ईश्वरीय आनंद, सुख, माधुर्य,ज्ञान और ध्यान में शान्ति का अनुभव कर रहे है…. सच ही कहा गया है की स्वयं गंगाजी भी बापूजी जैसे संतो के आगमन से ही स्वयं को पवित्र होने का अनुभव करती है……
भगवान सर्व व्यापक है तो अवतरित होने पर लाचारी की स्थिति दिखाने की क्या जरुरत थी..सोचो..
ह ssssssssssरी..ओ ssssssssssssssssssssम्म्म्म्म्म्म्म्म्म्….
हरि ॐ के लम्बे उच्चारण से बुध्दी में शान्ति और बल आता है..
भगवान सर्व व्यापक है, सर्व समर्थ है तो उन को गोबर उठाना, गाय चराना या ‘हाय सीता’ करना, ये सब दिखाने की क्या दरकार पड़ी थी? ज़रा सोचो ऐसा क्यों हुआ?
भगवान कृष्ण रात को १२ बजे आये और भगवान राम दिन के १२ बजे आये… बोले दीन दयाला.. दीनो पे दया कर के आये.. अ-प्रगट प्रगट हो के आये ….अ-व्यक्त व्यक्त हो के आये … निराकार सगुण साकार बन के क्यों आये?
क्यों की भगवान निर्गुण निराकार , सर्व व्यापक , सर्व समर्थ है तो उन के भक्त में भी ये ताकद है..
तुलसी मस्तक तब नमे धनुष्य बाण लियो हाथ
कित मुरली कित चन्द्रिका कित गोपियन का साथ?
बांके बिहारी ने तुलसी दास जी के कहेने पर धनुष्य-बाण हाथ में लिया! तुलसीदास के संकल्प में इतना बल है…
ये क्या भगवान की लीला है ? बुध्दी को लगाए तो बुध्दी के दोषों का परिमार्जन हो जाता है… बुध्दी शुध्द हो जाती है…तुलसीदास जी ये जानते थे कृष्ण ही राम जी है..कृष्ण जी और राम जी एक ही भगवान है तो एक वृन्दावन वाला , एक अयोध्या वाला भगवान ऐसा कैसा होगा बोले ?..जानते थे.. मानवीय संकल्प से ईश्वरीय सत्ता का निर्गुण निराकार, सर्व व्यापक, सर्व समर्थ रूप प्रगट हो जाता है..
भगवान बोलते की मैं निष्काम हूँ , मुझे ना किसी से द्वेष है ना मुझे कोई प्रिय है..ऐसे भगवान को कैसे किसी का प्रिय किसी का द्वेषी बना दिया? अ-व्यक्त को व्यक्त, अखंड को खंड के रूप में कैसे प्रगट कर दिया?
तो ये मानवीय चेतना की महिमा है..
आज सच्चिदानंद पर धामा
व्यापक ते ही धरी देह चरी नाना
रामावतार के कारण ब्रम्ह लोक में विष्णु जी का आगमन हुआ तो सनद कुमार खड़े नहीं हुए स्वागत नहीं किया.. गर्व में बैठे रहे…. तो नारद जी बोल पड़े, ‘निष्काम- ता के अभिमान में ज्युं के त्यूं बैठे हो तो स्कन्द बनोगे , बाल ब्रम्हचारी हो तुम को विवाह की इच्छा होगी इच्छा भी जागेगी ….’ तो सनकादी ऋषियों ने भी नारायण को शाप दिया की कुछ समय के लिए तुम्हारा सर्व व्यापकता का ज्ञान चला जाएगा… ‘हे सीता, हे सीता’ करने लगोगे.. आप का सर्व व्यापक-ता का ज्ञान तिरोहित होगा..
जगत का भार संभालने के लिए सती वृंदा के पति का रूप लेकर भगवान नारायण ने ज़रा उन्नीस-बीस किया तो सती वृंदा के पति ने नारायण को शाप दिया की, ‘मुझे मेरी पत्नी के लिए रोना पडा ऐसे तुम को भी पत्नी के विरह में रोना पडेगा… ‘हाय सीते हाय सीते’ करना पडेगा..भगवान नारायण को वृंदा के पति ने ऐसा शाप दिया था..
पयोशनी नदी के तट पर देवदत्त ब्राम्हण की पत्नी को नरसिंह भगवान ने विनोद से भय किया तो वो मर गयी.. तो देवदत्त ब्राम्हण ने नारायण को शाप दिया की ‘पत्नी के बिना गृहस्थ को जीवन में कितनी लाचारी होती इस का अनुभव होगा..तुम भी पत्नी बिना के दिन गुजारोगे’ ..ऐसा शाप दिया था..
भगवान नारायण ने नारदजी को नारदजी के कल्याण के लिए बन्दर का रूप दे दिया था..
नारदजी शिव को बोले, ‘आप जैसा काम को जितने का गुण मैंने पा लिया ऐसा मैं महेसुस करता हूँ..मुझे काम विकार नहीं सताता..’
शिव जी बोले, ‘मुझे बताया और जगह नहीं करना ऐसा’
क्यों की शिव जी जानते थे, की जहा ‘मैं ‘ है वहा काम क्रोध है.. चाहे काम क्रोध बिज रूप में बैठे है, चाहे बाल रूप में बैठे है लेकिन जहा ‘मैं ‘ ‘मेरे’ से जुड़े रहेते वहा विकार होते ही है, इसलिए वो जीव होता है….ब्रम्ह में विकार नहीं होता है… काम को जितने वाला ब्रम्ह होता ये नारद जी को परिचय कराने के लिये लीला है.. नारद जी भगवान विष्णु को बोले, ‘मेरा मन शांत है, अप्सरा देख के भी मेरे मन में काम विकार नहीं होता..जैसे शिवजी ने पाया ऐसे मैंने भी काम पे विजय पा लिया.. मैं भी वहा पहुँच गया!’ ….भगवान नारायण ने नारद का भाषण सहे लिया.. लेकिन अन्दर से सोचे की इस का अभिमान मिटाना चाहिए..नारद जी विदाय हुए तो रास्ते में ऐसा नगर रच लिया..एक खुबसूरत कन्या दौड़ती हुयी आई..नारद जी को हाथ दिखाया ..नारद जी ने हाथ देखा..बोले, ‘तुझे जो वरेगा वो विष्णु रूप होगा’… फिर बोले की, अच्छा राज्य है.. पिता का नाम क्या है? बोली, श्रीनिधि राजा..कब है स्वयंवर? बोली, ‘फलानी तिथि को है’ …नारद जी वापस वैकुण्ठ गए!
भगवान नारायण को बोले, ‘प्रभु ऐसा रूप दो की साक्षात नारायण स्वरुप लगु..स्वयंवर में जाना है, वहा तो सुस्वरूप राजकुमार आयेंगे..’
थोड़ी देर पहेले बोल के गए थे की काम को जीत लिया…अब स्वयंवर में जा रहे…इसलिए कभी किसी बात का गर्व नहीं करना चाहिए… कोई बात अच्छी है तो ईश्वर की लीला है ऐसा माने….
नारदजी ने भगवान से रूप माँगा ‘ऐसा रूप दो की साक्षात नारायण लगु’ लेकिन आगे ये भी कहा की ‘जिस में मेरा मंगल हो’.. तो भगवान नारायण ने नारदजी का पूरा रूप ऐसा बनाया की साक्षात नारायण लगे…लेकिन चेहरा हनुमान कंपनी का …बन्दर का बनाया….
अब नारद जी गए स्वयंवर में..सब से आगे जाकर बैठे..मेरे से बढ़कर कोई नहीं हो सकता.. कन्या को तो धक्का लगा की बन्दर कैसे आया?..
उस का चेहरा और हावभाव देख कर नारद जी को लगा की शायद मेरा प्रभाव सहे नहीं सकती..
भगवान शिव जी ने अपने गण भेजे की देखे की नारद जी क्या हरकत करते है..सुंदरी दूसरी दिशा में जाए तो नारद जी भी वहां पहुँच जाते..सामने खड़े हो जाते..वो सुंदरी फिर माला लेकर दूसरी दिशा में जाए, तो नारद जी भी वहां खड़े हो जाते.. नारद जी जिस दिशा में बैठे, उस की दूसरी दिशा में वो कन्या जाए..शिव जी के गण खूब हँसने लगे… अपना चेहरा क्या है ये नारद जी को पता ही नहीं था…हकीकत में नारदजी का रूप देखकर कन्या पीछे जा रही थी…
वास्तव में है तो सभी ब्रम्ह…लेकिन जिव को वासना है, इच्छा है तो इसलिए वो जीव कहेलाता है..वासना गयी, इच्छा गयी तो जीव तो ब्रम्ह ही है…ब्रम्ह कही दूर नहीं, दुर्लभ नहीं..उसी में है..
कन्या राजकुमारों की तरफ जाती, तो jahaan तहां नारद जी जाकर खड़े रहेते.. आखिर समय बितता गया… गरुड़ पर भगवान नारायण आये, शिलनिधि राजा की कन्या ने वैजयंती माला भगवान नारायण को पहेराई…
नारदजी चिढ गए, बोले, मुझे आप ने अपना रूप दिया था, फिर हरीफ बन के क्यों आये?
भगवान नारायण बोले, ‘तुमने कहा की जिस में मंगल हो वो ही करो इसलिए तुम को बन्दर का चेहरा दिया और मुझे आना पडा..’
नारद जी को क्रोध आया और उन्हों ने नारायण भगवान को शाप दिया की, ‘जिस प्रकार आप ने मेरी पत्नी छीन लिया ऐसे आप की भी पत्नी छीन जायेगी..’
भगवान नारायण बोले, ‘नारद आप संत हो, सच्चे हो.. ‘मेरा जिस में भला हो ऐसा करो’ भी बोलते…तो ये आप के कल्याण के लिए ही शिलनिधि राजा का राज्य और कन्या मेरी माया से उत्पन्न किया है.. माया में तुम्हारा भला नहीं था.. ये सब मेरी माया मात्र था..देखो अब कुछ भी नहीं है..’
शरीर को कोई संयमित कर के तर जाए इस बात में दम नहीं है… संसार में सत्य बुध्दी से तरा नहीं जाता..मनुष्य ये सोचे की मुझ में काम है तो ये लोहे की जंजीर है और ‘मैं काम को जीत लिया’ सोचे तो ये सोने की जंजीर है ..
जब तक ‘मैं ’ ‘मेरा’ बना है तब तक जंजीर बनी ही है..
सब मैं और मोर तोर की माया है ..
माया के बंधन में जीवन काया बंधी है… स्थूल काया छुपती तो सूक्ष्म काया दूसरी काया में जाती है..
नारदजी ने भगवान से क्षमा मांगी की मुझ से शाप का उच्चारण आप की सत्ता से आवेश में हुआ.. आप का उद्देश मेरे को बचाना था, ये मैं जान गया..लेकिन मैंने आप को शाप दे दिया..संत की वाणी सच्ची तो होगी.. तो मेरे ही द्वारा बन्दर के रूपों से आप की पत्नी वापस लाने की सेवा हम कर लेंगे..’
तो श्री राम जी का जन्म केवल निर्गुण निराकार को साकार सगुण स्वरुप में दिखाने के लिए नहीं था.. खाली रावण को मिटाने के लिए नहीं था..भक्त के वाणी को सत्य करने के लिए, निति मर्यादा की स्थापना करने के लिए और भक्त-वत्सलता का प्रत्यक्ष प्रमाण देने के लिए वो निर्गुण निराकार सगुण साकार हो जाता है..
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय…
केवल शिव भगवान, विष्णु भगवान, गणपति भगवान,सूर्य भगवान या माता भगवान, गुरु भगवान है ऐसा नहीं.. अनेक रूपों में भगवान ही है… उतना ही नहीं, भगवान अनेक रूपों में है, लेकिन जहां रूप नहीं दिखते वहां भी भगवान है..
समुद्र में जैसे बड़ी लहेरे , छोटी तरंगे रहेते वो है तो पानी ही..तरंग रहीत भी है तो वो पानी ही है ऐसे
सगुण साकार निर्गुण वही
जल ते विलग तरंग नहीं
जैसे हवा चली तो समुद्र में भंवर हुए, झाग हुए, बुलबुले हुए, तरंगे हुयी लेकिन है तो सब पानी..
स्वप्ने में रात को सो गए .. स्वप्ना देख रहे…मैं किशन गढ़ गया..मार्बल का ग्राहक आया… रात को चले गए अहमदाबाद बापूजी ने आशीर्वाद दिया… आप तो यहाँ सोये हरिद्वार में लेकिन स्वप्ने में किशनगढ़ बना दिया, अमदाबाद भी बना दिया, तो ये आप का चैत्यन्य है.. कुछ बनता तब भी चैत्यन्य है, घूम रहा तो भी आप ही है, स्वप्ने के आशीर्वाद देनेवाले बापू भी आप ही है…तो ये आप का आत्म-वैभव से दीखता है…स्वप्ने में जो दुनिया बना लेते वो आत्मा का वैभव है, लीला है…
कई कारणों से सनकादी जी का उदाहारण लेकर मर्यादा की स्थापना, नारद जी का कारण लेकर संत वाणी की सत्यता, भक्त-वत्सलता, मनुष्य कल्याण ऐसे कई कारण मिलाकर भगवान का अवतरण होता है….
रात को बार बजे क्यों? दिन को बारा बजे क्यों? मध्यान्ह काल, मध्य रात्री क्यों अवतरण हुआ?
ये वेदान्तिक संकेत की बात है..मध्यान्ह सूर्य की तरह धड़कते अस्थि की भाँती मानव अपने अन्दर प्रिय सत्चितानंद को जान ले…. रूप, रंग,फलाना सब माया का खिलवाड़ है..आत्म ज्ञान प्रकाश है उस के लिए मध्यान्ह सूरज के समय अवतरण लिया..
दूसरा अर्थ मध्यावस्था शांत अवस्था है…मध्यावस्था ये परमात्मा की अवस्था है जैसे श्वास लिया और बाहर आया , इस बिच का समय संधि का समय है… संधि का समय जितना अधिक बढे उतने ही आप अधिक परमात्म तत्व में टिक जाते..श्वास अन्दर गया तो तुरंत बाहर नहीं आया, बिच में संधि है…इस संधि काल में प्रवेश हो इसलिए संधि काल चुना है.. श्रीकृष्ण भगवान में रात्री का संधि काल अवतरण के लिए चुना और भगवान श्री राम ने दिन का मध्यान्ह काल का अर्थात सुख दुःख के बिच का काल चुना है..
रात और सुबह के बिच का संधिकाल में, शाम और रात के बिच का संधि काल में सुषुम्ना की अवस्था ऐसी होती की मनुष्य ब्रम्ह सुख में प्रवेश कर सकता है… जागरण करते तो रात के १२ बजे तक जगे तो संधि काल है..अकेले में बैठते तो आनंद आना शुरू हो जाएगा.. रात विदा और सूर्य उदय हुआ तो उस समय भी ब्रम्ह सुख का एहसास होगा… ऐसे संधिकाल का फ़ायदा देनेवाले ये दोनों अवतार हुए है…
राम कृष्ण जो रोम रोम में रम रहे वो सच्चिदानंद राम है…चित्त को कर्षित-आकर्षित करते वो कृष्ण है..है तो दोनों एक ही भगवान के नाम… अवतरण भिन्न काल में हुए…
ओ ssssssssssssssssssssssम्म्म्म्म्म्म्म्म्म्म्म्
(ओमकार मन्त्र का जप हो रहा है..)
चुप बैठे…..श्वास को देखो….श्वास को चलाओ मत..
लाख आदमी में एक आदमी भी ब्रम्ह भाव में रहे तो लाखो का कल्याण हो जाएगा..
ओ sssssssssssssssssssssssss mmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmm
बाहर की स्थिति ठीक कर के या बदल के भजन नहीं होता….आप जिस भी अवस्था में हो, हर अवस्था में इस भजन की अवस्था में आ जाओ तो सब ठीक हो जाता..
ये ऊँचा सुन्दर सहेज साधन है..आप को सारे तीर्थ, यज्ञ , दान, पुण्य करने का लाभ मिल गया…
जैसे शिव जी ने सहेज स्वभाव संभाला तो उस में समाधिस्त हो गए
ये तीर्थक्षेत्र है…यहाँ भाषण ज्यादा नहीं…विश्रांति योग हो..!
सदगुरुदेव जी भगवान की जय हो!!!!!
गलतियों के लिए प्रभुजी क्षमा करे…
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें