28 मार्च 2010;

हरिद्वार सत्संग समाचार


पूज्य बापूजी इस गाय माता से बहोत राजी है….. दर्शक जहां से भी देखे उस को लगता है की ये गो माता उस को ही देख रही है!!!!!!

गीता के ४थे अध्याय का १७ वा श्लोक है :-

कर्मणो ह्यपि बोध्दव्यं बोध्दव्यं च विकर्मणा: l
अकर्मणश्च बोध्दव्यं गहना कर्मणो गति: ll

भगवान कहेते कर्म, वि-कर्म और अ-कर्म क्या है ये जान लेना चाहिए…क्यों की कर्मो की गति गहन है..किसी कर्म को करने में मनुष्य
अपना हीत समझता है, लेकिन हो जाता है अ-हीत…वह लाभ के लिए करता है , लेकिन हो जाता है नुक्सान, वो सुख के लिए करता
है लेकिन हो जाता है दुःख!इसलिए मनुष्य को कर्म योग क्या है ये जान लेना चाहिए.. विकर्म का योग भी जानना चहिये, अ-कर्म का योग
भी जानना चाहिए… कर्म की गति बड़ी गहन है…

.भगवान कहेते. मनुष्य को कर्मो के बारे में शास्त्रीय ज्ञान जान लेने से सत्वगुण बढ़ते अन्तर्यामी तक पहुँचने में मदत होती..इसलिए शास्त्रीय कर्म क्या है ये
जान लेने चाहिए..
बड़ो का आदर करना, धर्म ग्रंथो का आदर करना, शास्त्र पढ़ना, पूजा पाठ करना, तीर्थो में नहाना, गुरुदीक्षा, ध्यान, मौन, एकांत आदि सभी शास्त्रीय कर्म है…जो प्रत्यक्ष वा अ-प्रत्यक्ष परमात्मा ज्ञान पाने में सहायक कर्म है वो सभी शास्त्रीय कर्म है…
शास्त्रीय कर्म क्या है?
..जिन से वासना अहंकार नियंत्रित हो, दुःख चिंता नियंत्रित हो और जिस से वर्तमान में शांति प्रसन्नता और भविष्य में उज्जवल ज्ञान
हो… ऐसे सभी कर्म शास्त्रीय है… मनुष्य को अपने कल्याण के लिए इन शास्त्रीय कर्मो का पता होना चाहिए..
ये शास्त्रीय ज्ञान अपने बच्चो में भी ज्ञान भर दे… पिता, माता और बड़ो का आदर करने से यश, बल, विद्या, आयु बढती है..
श्रीराम जी किसी की निंदा नहीं करते, नहीं सुनते …इसलिए पूजे जाते…पराई निंदा से बड़ा पाप कोई नहीं.. इर्षा करने – कराने से
एल.डी. एल. नुरोहोपेटाइल नाम का विषैला द्रव्य होता.. द्वेष से वात पित्त कफ़ आदि का प्रकोप होता, दंभ से कफ्फ़ बढ़ता शरीर बेडोला होता है.. किस्से, कहानियों से, आसपास के घटनाओं के द्वारा बच्चो को ये संस्कार डाल दे…त़ा की वे बेड़ोले ना बने… बीमार ना बने और मिली हुयी योग्यताओं का, शक्ति का दुरुपयोग ना करे….
वि-कर्म क्या है?
निंदा, इर्षा, क्रोध, हिंसा, कुर-कपट,चोरी, झूठ बोलना, किसी को फसाना आदि सब वि-कर्म है…वि-कर्म करनेवाला देर सबेर
नाश की खायी में गिरता है…
वि-कर्म में तमोगुण की प्रधानता होती है…
अ-कर्म .. कुछ ना करते उस को तो आलसी बोलते, उस को अ-कर्म नहीं कहेते.. महा पुरुष भी कर्तुत्व करते हुए दिखते, लेकिन कर्म करने का भाव नहीं होता, कर्तापन नहीं होता…कर्म में लापरवाही ना हो, किसी का अ-हीत ना हो तो अ-कर्म हो जाते… क्रिया रहीत तो कोई होते नहीं…और अ-कर्म तो ज्ञानी के होते….
क्रिया करने में ४ दोष कर्ता में आते.
१) कर्तृत्व की आसक्ति
२)फल की आसक्ति
३)अहंकार और (४) आकांक्षा


क्रिया शक्ति, भाव शक्ति और विवेक शक्ति सब के पास है….उस का
उपयोग
करे….करने की शक्ति, मानने की शक्ति, जानने की शक्ति .. ये ३ शक्तियां सभी में जन्मजात है..इन का सदुपयोग कर ले…तो इस लोक में ही परम सुखी और जीवन की पूर्णता यहाँ ही पा ले… आसक्ति , अहंकार विलय हो जाए.. ऊँचे पद को पा लेंगे…. अन्यथा कितनी भी ऊँची साधना हुयी , संसार की नजर से ऊँची उपलब्धियां हुयी…लेकिन कर्म, अ-कर्म के रहस्य नहीं जानते तो ऊँची उड़ाने भरने वाले नीची गति को प्राप्त हो जाते..
शास्त्रीय कर्म क्या है ये जान के अ-कर्म करे तो इस से अहम् का नाश होगा.. अहम् आपदायें पैदा करता है.
प्रभु को अपना मानने से कर्म के फल का नाश होगा… अ-कर्तृत्व में स्थिति होगी..
परमात्म रस जागृत होता है… नित्य नविन रस प्राप्त होता है..

कर्म में कर्ता को ४ दोष निगलते रहेते..
कर्म तो सभी करते …लेकिन वो अ-कर्म हो तो साक्षात्कार करा सकते..अ-कर्म कैसे बनते?

  • उस में कर्तृत्व भाव ना हो ,
  • दूसरा अपने में अहंकार ना हो ,
  • तीसरा फल आकांक्षा ना हो और
  • चौथा उस में कर्म आसक्ति ना हो….

कई लोग आदत से कर्म करते रहेते ….कर्म की आसक्ति मुक्त जीवन के लिए बंधन है… नास्तिक तो नास्तिक है ..लेकिन आस्तिक आसक्ति में ज्यादा परेशान होते..आस्तिक
कर्तृत्व की आसक्ति में फसे मारे जाते है…बोलते, ‘मेरा ध्यान लगना चाहिए, ऐसा होना चाहिए…बेटा ऐसा होना चाहिए …
हम दारु नहीं पीते , मांस नहीं खाते और बेटा खाता है…’ ..तो खाने दो ऐसा मेरा मतलब नहीं..लेकिन ज्यादा आग्रह करोगे तो परेशान
हो जाएगा, छोड़ के चला जाएगा तो अब आप की बात थोड़ा बहोत मानेगा वो भी छुट जाएगा…!
बोले, ‘मेरा बेटा कहेने में नहीं चलता…’
अरे भोंदू! तेरा मन नहीं चलता तेरे कहेने पे तो बेटा कहाँ से चलेगा?
..ज़रा कड़क शब्द इसलिए कहे की ये याद आएगा तो आप को बड़ा फ़ायदा होगा! :)

हरिदास महाराज

संगीततज्ञ हरिदास महाराज के बैजू बावरा और तानसेन शिष्य थे… ऐसे ऊँचे गुरु से ज्ञान पाकर शिष्य भी ऊँचे ज्ञान के धनि
थे..बैजू बावरा का गोपाल नायक नाम का शिष्य ऊँची साधना करने के बाद, ऊँची अवस्था पाने के बाद , बहोत सारे लौकिक लाभ
पाने के बाद भी वि-कर्म के खायी में जा गिरा और शिष्य का वि-कर्म रोकने के लिए गुरु को आना पडा..कितनी परेशानी कष्ट झेलने पड़े ये इस कहानी के द्वारा
समझा दूंगा…
बैजू का कुल खानदान उंचा था..सतशिष्य बैजू का व्यवहार ऐसा सुखद था, ऐसा सुखद था की वो हरिदास महाराज के
आशीर्वाद को हजम कर गया…
१५९९ में ग्वालियर में आश्विन महीने में शरद पूनम को बैजू का जनम हुआ था..गुरु हरिदास महाराज से सिख कर एकांत में साधू जीवन
जीने वाला बैजू संगीत विद्या में ऐसा तदाकार हुआ की कई लोग संगीत सिख ने वाले उस की चरण चम्पी कर के बड़े बड़े संगीतज्ञ बन गए…
बैजू बावरा का एक शिष्य था गोपाल नायक नाम का..बड़ा प्रतिभा संपन्न था..शिष्य ऐसा था की उस ने गुरु बैजू की प्रसन्नता
पा लीया ..महीने सप्ताह बीते..वर्षो की यात्रा बीत गयी..गोपाल संगीत विद्या में निपुण हो गया …. विदाय लेनेवाला गोपाल गुरु बैजू
महाराज को प्रणाम करता है…गुरु बैजू का ह्रदय भर आया.. ये शिष्य कैसे मेरी छाया की तरह था, मेरी विद्या को पचाने
में सफल हुआ…गुरु बोले, ‘तुम मेरे पुत्र की तरह हो…तुम ने जो विद्या पायी उस विद्या से मनुष्यो का दुःख, शोक हरने के लिए उन के
जीवन में प्रसन्नता भरने के लिए उपयोग करना..अपने में मोह, लोभ,अहंकार भरने के लिए ना करे..’ भरे कंठ से..भरी आँखों से
शिष्य गोपाल को बैजू महाराज ने विदाई दी.. ..

..तो बैजू महाराज का शिष्य गोपाल ऐसी कविता करता की उस के प्रभाव से कश्मीर नरेश का ख़ास राज कवी बन गया..ईश्वर प्राप्ति का
उद्देश्य नहीं होता तो लालसा बढती गयी…मनुष्य सत्ता, धन, पद, सुख की लालसा में रास्ता चुक जाता तो ना करने जैसे कर्म कर
डालता है….
इसलिए भगवान श्रीकृष्ण कहेते की मनुष्य को कर्म, वि-कर्म को जान लेना चाहिए… अ-कर्म को जान लेना चाहिए… बड़ा काम का
श्लोक है ये :-

कर्मणो ह्यपि बोध्दव्यं बोध्दव्यं च विकर्मणा: l
अकर्मणश्च बोध्दव्यं गहना कर्मणो गति: ll

गोपाल का यश अहंकार ऐसा फुला की जो कोई कवी हो उस को ललकारता… मुझे हरा दे तो सीर कटवा दूंगा और मुझ से हार गए
तो गला काट दूंगा.. कई कवी बेचारे उस की ललकार से सीर कटाते…कई कवी पत्निया , उन के बच्चे लाचार मोहताज हो
गए…गोपाल को उन को देख कर मजा आता की मुझे चैलेन्ज करनेवाला मृत्यु को प्राप्त होता है…

अंतरयामी ईश्वर जानता की .. ‘किस की सत्ता से ये विद्या आई है…ये सत्ता कहाँ से आई ये जो जानेगा तो उस का कल्याण करता हूँ…’
ईश्वर किस किस तरीके से कर्म गति की नालियों से उठाने की व्यवस्था करते..गुरु चरणों में पहुंचाते..तब कही कोई सत शिष्य
होता…
लेकिन ये सतशिष्य गोपाल अहंकार में कु-शिष्य बन गया…

गोपाल के चैलेन्ज से कई अबलाये विधवा हो गयी.. कई बच्चे दर-दर के ठोकरे खाते फिरने लगे…ये बात बैजू महाराज के
कान में पड़ी तो उन को बड़ा दुःख हुआ… मैंने कहा था ये संगीत की विद्या का खजाना इसलिए नहीं है की अपना अहम् पोस कर वि -कर्म की खायी में गिरे… ..

बैजू महाराज ऐसी उच्च विद्या जानते की भीम पलासी राग गाते तो पथ्थर पिघला देते थे… पिघले हुए पथ्थर में कोई चीज डाल देते तो वो चीज पथ्थर के अन्दर सचमुच जम जाती की पथ्थर तोड़े बिना निकले नहीं… मानो जैसे शक्कर को पिघलाया और उस में रुपया का सिक्का डाल दिया , ठन्डे होने के बाद शक्कर जम गयी , तो शक्कर तोड़े बिना रुपया निकले नहीं… ऐसी ही बैजू महाराज की विद्या भी थी .. उन का नाम ‘बावरा’ क्यों पडा तो घाटवाले बाबा ने इस का रहस्य बताया था की गायक गायिका सदाचारी नहीं हो सकते ..किसी नर्तकी के दीवाने थे..इसलिए लोग बावरा कहेते..

……तो कश्मीर नरेश के ख़ास संगीत कवी गोपाल के चैलेन्ज के कारण संगीत सम्मेलनों में कईयों के सीर कटे… अबलाओ के सुहाग छीने गए…बच्चे अनाथ हुए ये सुनकर बैजू महाराज के आंसू बरसे … शिष्य को समझाने के लिए
चलते चलते वहाँ पहुंचे.. राज -कवी बन के गोपाल नायक बड़े ताम झाम से रहेता था..ख़ास सन्देश भेजा की गुरु मिलने को आये.. गोपाल नायक ने
इस को अपमान समझा ….किसी भी बहाने बैठा रहा अपने ताम झाम से ….गुरु आये तो उठ के खड़े रहेना भी जरुरी नहीं समझा….

‘क्या है ?’ बुढ्ढा क्यों सताने आया इस भाव से बोला…

बैजू महाराज बोले, ‘ बेटे भरे ह्रदय से तुम को विदाय दी
थी …भूल गया?… अहंकार में ये क्या कर रहे हो बेटे?.. मैं तुम्हारी भलाई चाहता हूँ इसलिए इतनी दूर आया हूँ पुत्र ‘

‘पागल कही के… क्या बकता है… ‘ सेवको को आदेश देकर धक्के मार के निकलवा
दिया…जाते जाते कहा, ‘अगर तू मेरा गुरु है तो राजदरबार में दिखा देना कविता गायन अपनी विद्या…हार गया तो सीर कटवा के जाना… बड़ा आया गुरु बनने को!’
कैसा अहंकार ! लेकिन गुरु एक दांव अपने पास भी रखते…. बुढ्डा लाचार दिखनेवाला बैजू महाराज कश्मीर के नरेश को बोला, ‘राज दरबार में कल हम राज-कवी के साथ संगीत का शाश्रार्थ
करेंगे …हम हारे तो सीर कटवाएँगे और वो हारा तो राजासाब उस का कटवाए की नहीं स्वतंत्र है’

..कैसा उदार होता है गुरु का दिल!

… ..दुसरे दिन गोपाल नायक अपने ताम झाम से, विजय की पताका फड़काने वाले रुबाब में दरबार में आया…गोपाल नायक के
सामने बुढ्ढा गुरु बेचारा ऐसा लगे की जैसे मखमल के
आगे पुरानी लिरिया… बाहर से लिरिया दिखने वाले बैजू महाराज ने भीतर हरिदास गुरु की कृपा संभाल रखी
थी… गुरु से गद्दारी नहीं किया था…
दुसरे दिन इस प्रकार दरबार में आये… गोपाल नायक ने अपना कवित्व ऐसी शक्ति से आलापा.. की महेलो की रानियाँ स्तब्ध हो गयी…कश्मीर नरेश मन्त्र
मुग्ध होकर सुन रहा था.. जंगल से हीरन दौड़ कर आये…गोपाल नायक ने उन के गले में हार डाल दिया… उस का गाना पूरा हुआ तो
हिरन वापस चले गए..गोपाल नायक ने बुढ्ढे गुरु को ललकारा…. ‘ये मुर्ख कवी ….क्या है अब कुछ अपने दम तो हीरन के गले में डाली हुयी मालाएं अपने हाथ से उतार के दे तो
मानु…नहीं तो अपना सीर कटवा के जाना!’

बैजू महाराज ने गुरु हरिदास का स्मरण किया… ‘मन्त्र मुलं गुरुर वाक्यं’ …गुरु से मिली हुयी विद्या का उपयोग अहंकार सजाने के लिए नहीं, किसी को नीचा दिखाने के लिए नहीं , धर्म की रक्षा करने के लिए गुरु की सम्मति है… बैजू महाराज ने राग आलापा….जो रानिया झरोखों से झाँक रही थी वो ऐसी स्तब्ध हो गयी की जैसे बैजू महाराज के वाणी में माँ सरस्वती देवी साक्षात प्रगट हुयी है..…कश्मीर का नरेश जो अभी तक गोपाल नायक के कवित्व और गायन से झूमता था उस के लिए तो वो अनुभव भी नगण्य हो गया ऐसा स्तंभित हो गया की उस की समाधि लग गयी बैजू महाराज की रागिनी सुनकर…भागे हुए जंगली हीरन वापस आये.. ऐसे खड़े रहे की सुध बुध ना रही…हीरन तो मनुष्य से भागता..लेकिन कैसी विद्या होगी की जंगल से हीरन दौड़ के चले आये! बैजू महाराज ने हीरनो के गले में गोपाल नायक ने डाली हुयी मालाये उतार के रख लिया..वो ऐसे राग गाते चले गए की हिरन मंत्रमुग्ध होकर खड़े थे…गले की मालाये उतार कर रख दिया तो भी हीरन स्तब्ध ऐसे राग आलापे..बैजू महाराज गाते गए.. गाते गए..और देखते देखते एक पथ्थर पर दृष्टी डाली तो वो पथ्थर पिघल गया!! ऐसा की जैसे मोम पिघले ….पथ्थर द्रवीभूत हो गया!बैजू महाराज ने उस में अपने हाथो का साज तान पूरा जो बजा रहे थे..उस को डाल दिया…. गाना बंद हो गया….सब की समाधि टूट गयी..हीरन जंगलो में भाग गए…
अब गुरु बोले की , गोपाल देख मैंने हीरन की गले से मालाये उतार दी है…अब तू इस पथ्थर पर दृष्टी डाल के द्रवीभूत कर के मैंने डाला हुआ साज
निकाल
के दिखाओ….
बैजू महाराज ने पथ्थर पर दृष्टी डाली तो पथ्थर पिघल गया और उस में अपना तान पूरा डाल दिया…गाना बंद कर दिया तो साज उस में जम गया..बोले ‘अब दम है तो मेरा साज निकाल के दिखा!’
जिन्होंने कईयों की जाने लेकर रखी थी उस के राग में इतना दम कहाँ ?… उस ने बहोत कोशिशे की..पानी के घूंट पी पी के राग आलापे… लेकिन ये समझ नहीं पाया था की ‘मेरी दारुदवा तुम्हारा दीदार था’ गुरु की कृपा को समझ नहीं पाया था.. गाते गाते थक गया…. ना पथ्थर पिघला, ना साज निकला…. राजा की आँखे क्रोध से लाल हो गयी…
फकीर बैजू ने कहा, ‘इस को मृत्यु दंड ना दे तो अच्छा है….’
गोपाल नायक बोला, ‘ हां, इस को ही मृत्यु दंड देना चाहिए….ये मेरा गुरु बना था और ये विद्या छुपा के रखी थी …इस ने सिखाई होती तो आज मै हारता नहीं…’
बैजू बावरा कहे, ‘मुझे ही सजा दो जो ऐसे कु-पात्र को विद्या सिखाई… जिस से कितनो की जाने गयी, कितनी अबलाओ के सुहाग छीन गए.. बच्चे अनाथ हो गए…इस ने अपना अहंकार पोसने में तुम्हारा राज-धन भी व्यर्थ्य में लग गया…’
कश्मीर का नरेश बोला, ‘कविराज तुम्हारी वाणी से पथ्थर पिघल सकता है… लेकिन इस कठोर न्यायासन का ह्रदय नहीं पिघल सकता.. इस के अहंकार ने कितनो के सीर कटाए.. इस को भी वो ही दंड होना चाहिए….’ चमचमाती तलवारे पकडे उग्र सिपाहियों को इशारा किया …गोपाल का शिरोच्छेद हुआ…
बैजू बावरा गोपाल के लिए शोक करे… ‘आप मेरा शिष्य नहीं छीन सकते’ …जैसे माता पिता को पुत्र कु-पुत्र हो तो भी उस के मर जाने से दुःख होता ऐसे बैजू महाराज को दुःख हुआ…
बैजू महाराज अपने शिष्य का अहंकार नहीं निकाल पाया और गोपाल गुरु का पथ्थर में जम गया तानपुरा ना निकाल पाया…
कही आप ऐसी गलती तो नहीं कर रहे?
इसलिए श्रीकृष्ण कहेते की कर्म करने में सावधान रहे…कर्मो को जान ले…

श्लोक :

कर्मणो ह्यपि बोध्दव्यं बोध्दव्यं च विकर्मणा: l
अकर्मणश्च बोध्दव्यं गहना कर्मणो गति: ll

गुरु से पायी हुयी विद्या में ईश्वर प्राप्ति का उद्देश नहीं तो किस प्रकार धोका दे इस का कोई भरोसा नहीं…
..ऐसे ही हम संसार में धोका खा लेते… ईश्वर के सिवाय कही भी मन लगाए तो धोखा ही खायेंगे…कर्मो का ज्ञान पाए और
ऐसे कर्म करे की अंतरयामी परमात्म संतुष्ट हो…किसी से द्वेष ना बढे.. चिंता ना बढे ऐसे कर्म करो..
सत्संग में आने से भारी पुण्य होता ऐसे सत्संग में विक्षेप का भारी पाप भी होता.. घंटो बैठ के लोग प्रतीक्षा करते और टिकटिकी लगाते उन में आप विक्षेप करते तो बहोत पाप होता…नेता के या और भाषणों में ऐसा चलता, लेकिन सत्संग में नहीं चलता…सत्संग में आते तो एक एक कदम चलकर आते तो एक एक यज्ञ करने का पुण्य होता..ऐसा नहीं की गाडी का उपयोग ही ना करे..चलते रहे और यज्ञो का फल पाए ऐसा नहीं..अपनी साधन सामग्री छोड़ के जहां से उतरे , वहाँ से चलकर आये तो उतने कदम चलकर आये उतने यज्ञ करने का फल मिलता…यहाँ बैठते तो भक्ति योग का फल होता…सत्संग का ज्ञान सुनते तो ज्ञान योग होता…भगवान के नाम का सामूहिक उच्चारण करते तो तूल -ध्वनि.. “ॐ” की ध्वनि से इस ब्रम्हांड को लांघ कर इतर ब्रम्हाडों के सत्ता से एकाकार होते….”ॐ” का ७ वि बार उच्चारण करते तो मूलाधार में विशेष व्हायब्रेशन शुरू होते..मनोरथ पूर्ण होते, कष्ट के
समय सहायता मिलती..अन्तर्यामी सत्ता से तादात्म्य से जुड़ता..
पानी में डूबता हुआ लड़का प्रार्थना किया तो अ-दृश्य सत्ता ने हाथ पकड़ के किनारे पे लाके रख दिया…
ऐसे नहीं की जान बुझ के पानी में जाकर डूबे और देखे सच्ची बात है की झूठी! :) ..परीक्षा के लिए ऐसा ना करो..सच्चे ह्रदय
से प्रार्थना निकलेगी तो फल मिलेगा..शंका कर के चेक करने वाले वैसे ही रहे जाते..
मैंने अपने गुरु के वचनों पर कभी शंका नहीं किया तो मेरा तो भण्डार भर गया…और ये भरा हुआ भण्डार छलकता है तो
वो ही मेरे गुरुदेव का दिया भण्डार आप को नित्य नविन रस देता..इस में मेरा अपना कुछ नहीं..

मेरे गुरु देव का भी ऐसा एक शिष्य था..गुरुदेव जी ने आखिर त्याग कर दिया उस का….मैं भी उस का आदर करता था ….मेरे से
बाद में मिला था… मेरे पास आया तो मैंने भी उस का त्याग किया…जो मेरे गुरु का नहीं हुआ तो मेरा गुरु भाई कैसे…हम गुरुभाई
तब तक थे, जब तुक गुरु के सिध्दान्तो पर है…गुरु ने उस का त्याग किया , अब वो गुरुभाई नहीं….सुबह का मैल छोड़ कर आते या वमन कर के आते तो
देखते नहीं की कितनी कीमती उलटी है ….ऐसे ही ये भी होता है…
मेरे गुरु भाई को देखा ऐसा भी देखा था की जोशी मठ के जगत गुरु शंकराचार्य जी को सत्संग सूना के प्रसन्न करते… वेदान्त पर बोलते .. स्वामी
मनोहर दास’ नाम था….जगत गुरु राजस्थान में गए तो बोले, ‘मनोहर दास जी का सत्संग बढ़िया है, सुनना है’ … तो बोला, ‘मैं
ही हूँ मनोहरदास’ .. जगत गुरु ने सत्संग सूना…सराहना की …लेकिन गुरु से अहंकार टकराया तो गया ….पुष्कर के रास्ते में वेदान्त
आश्रम का बोर्ड लगा है… गुरु से किनारा करने वाले की जो गति होती वैसी गति हुयी…

मैं हाथ जोड़ कर प्रार्थना करता हूँ आप के कर्म वि-कर्म ना बने…
आप भी मेरे लिए प्रार्थना करना…
तन में प्राण रहे मेरे श्रध्दा की डोर बढती रहे… मेरा शरीर मरे तो पानी का अंश गुरु के बाग़ में बरसे… हे देव तू कृपा करना …ये पञ्च भौतिक शरीर के अंश गुरु के बाग़ बगीचे में लगे…. अन्त वाहक शरीर गुरु के सूक्ष्म तत्वों की शरण जाए… मेरा ‘मै’ गुरु के ‘मै’ में मिल जाए…हे नाथ मैं सनाथ हो कर मरू …
..हे गंगा माई… हे गोपाल… हे केशव…. हे माधव… हम कर्म करे तो अ-कर्म हो जाए प्रभु..वि-कर्म से बचायियो प्रभुजी… दुश-कर्म से बचायियो …फल-आकांक्षा से बचायियो..अहंकार से बचायियो..हे प्रभु तुम्हारी प्रीति जगायियो ..असत्य की आसक्ति से बचाकर सत्य स्वरुप की प्रीति दे दे.. माधुर्य दे दे प्रभुजी…’
भगवान को सच्चे ह्रदय से प्रार्थना करो..
नारायण हरी.. नारायण हरी..
ॐ शान्ति.
सदगुरुदेव जी भगवान की जय हो!!!!!
गलतियों के लिए प्रभुजी क्षमा करे….