पुराने जमाने में प्रारम्भ से ही बालक-बालिकाओं में निर्भयता एवं शूरता-वीरता के संस्कार डाले जाते थे लेकिन आज वैसा नहीं है। आज के माता-पिता, दादा-दादी और शिक्षकगण सभी को बच्चों में वीरता और पराक्रम के संस्कार भरने चाहिए ताकि वे छोटी-छोटी समस्याओं में घबरा न जायें, उद्विग्न होकर गलत कदम न उठायें।
पहले के जमाने में तो भाइयों में ही नहीं, बच्चियों, माताओं और बहनों में भी मर्दानगी के संस्कार भरे जाते थे। इसी कारण रानी लक्ष्मीबाई, गार्गी, मदालसा, जीजाबाई आदि अनेक महान नारी रत्न भारत देश को गौरवान्वित करते थे। इसी श्रृंखला में एक थी झलकारीबाई। जब वह छोटी बालिका थी तब की यह घटना है। एक शाम वह ईंधन के लिए सिर पर लकड़ियाँ लेकर जंगल से घर वापस लौट रही थी। अचानक उसे झाड़ियों में हलकी सी सरसराहट सुनायी पड़ी। एक कद्दावर चीता उस पर आक्रमण करने को तैयार था। चीते को अपने सामने पाकर वह घबरायी नहीं बल्कि उसका मुकाबला करने के लिए उसने भगवन्नाम व आत्मविश्वास का सहारा लिया। जैसे ही चीते ने छलाँग लगाकर उस पर आक्रमण किया, सावधानी से अपना बचाव करते हुए झलकारी ने चीते के मुँह पर लाठी का एक भरपूर प्रहार किया। जोरों की मार से चीता तिलमिला उठा, गुस्से से लाल-पीला होकर वह और फुर्ती से उस पर झपटा। झलकारी ने भी दुगने वेग से चीते पर तड़ातड़ कई प्रहार कर दिये। चीता दोबारा सँभल न सका, वहीं चित हो गया।
बचपन की इस साहसिक घटना से उसकी कीर्ति दूर दूर तक फैल गयी। आगे चलकर वह रानी लक्ष्मीबाई की महिला सेना में भर्ती हो गयी। उसका हौंसला देखकर रानी ने उसे अपनी महिला सेना का प्रमुख बना दिया।
समय बीतता गया, अंग्रेजों की पकड़ भारत पर मजबूत होती गयी। उन्होंने झाँसी पर भी आक्रमण कर दिया और किले की घेराबंदी कर दी। विपदा की इस घड़ी में झलकारी की स्वामीभक्ति ने रंग दिखाया। झलकारी ने रानी लक्ष्मीबाई का वेश धारण कर रानी को एक विश्वस्त सैनिक टुकड़ी के साथ किले से बाहर सुरक्षित निकाल दिया और अंग्रेजों को भुलावे में डालने के लिए स्वयं अंग्रेज छावनी में जाकर युद्ध करने लगी।
झलकारी हूबहू रानी लक्ष्मीबाई लग रही थी किंतु एक विलक्षण वीरांगना ऐसे ही आत्मसमर्पण कर दे, अंग्रेजों को विश्वास नहीं हो रहा था। गुप्तचरों द्वारा वास्तविकता का पता लगते ही अंग्रेज घुड़सवारों की सेना रानी लक्ष्मीबाई को पकड़ने के लिए रवाना कर दी गयी और झलकारीबाई को अंग्रेजों को गुमराह करने के जुर्म में गिरफ्तार कि लिया गया। झलकारीबाई की दिलेरी और स्वामीभक्ति की चर्चा सर्वत्र फैल गयी।
अंग्रेज न्यायाधीश ने जब झलकारी को उम्रकैद का दंड दिया तो उसने अंग्रेजी न्याय की खिल्ली उड़ाते हुए तुरंत झाँसी से लौट जाने का आदेश दिया। चिढ़े हुए अंग्रेज अफसरों ने बौखलाकर तुरंत उस पर फौजी मानहानि तथा बगावत का आरोप सिद्ध किया और देशभक्त वीरांगना झलकारीबाई को तोप के मुँह से बाँधकर उड़वा दिया गया। धन्य थी उसकी स्वामीभक्ति !
उस समय जीवन में निष्ठा का अत्यन्त महत्त्व था, आज की तरह लोग केवल रोटी, कपड़ा और मकान के लिए ही नहीं जीते थे। उनमें ईमानदारी, सच्चाई, स्वामीनिष्ठा और जिसका नमक खाया है उसके प्रति वफादारी का भाव कूट-कूटकर भरा होता था। लोग प्राण न्योछावर करके भी दिया हुआ वचन निभाते थे। उस आदर्श स्थिति को पुनः प्राप्त करने के लिए अब हमारा यह कर्तव्य है कि अपनी संस्कृति के नैतिक मूल्यों का सिंचन अपने बालकों व विद्यार्थियों में अवश्य करें।
स्रोतः लोक कल्याण सेतु, मई 2010, पृष्ठ संख्या 12,15 अंक 155
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