2.8.10

स्वामी विज्ञानानंद

दो हथियार

स्वामी विज्ञानानंद नाम के एक संन्यासी थे। निर्भयता, सहजता, सरलता उनका स्वभाव था। एक बार वे हिमाचल प्रदेश के किसी गाँव में प्रवचन करने गये। प्रवचन करते-करते बहुत देर हो गयी महात्मा जी को सत्संग हेतु दूसरे गाँव में भी जाना था। उन्होंने जाने के लिए अपनी पोटली उठायी तो गाँव के मुखिया ने प्रार्थना करते हुए कहाः "बाबाजी ! जंगल का रास्ता है, अकेले मत जाइये। कुछ रक्षक साथ में भेज देता हूँ।"

बाबा जी ने मुखिया पर प्रेमभरी दृष्टि डालते हुए कहाः "बेटा ! सबका रक्षक जो है वह मेरा भी रक्षक है। वह अन्तर्यामी जब मेरे साथ है तो बाह्य रक्षकों की मुझे क्या आवश्यकता ! तुम्हारी इस सदभावना का मैं धन्यवाद करता हूँ।"

"बाबाजी ! आपके पास तो हथियार भी नहीं है, कुछ तो साथ में रखिये।"

"बेटा ! सबसे तेज दो हथियार तो मैं सदा अपने साथ ही रखता हूँ, फिर तीसरे की मुझे क्या जरूरत !"

बाबाजी की अटपटी बातें मुखिया की समझ में नहीं आ रही थीं।

बाबा जी समझाते हुए बोलेः भगवान का नाम और भगवान पर भरोसा – "ये दो मेरे सबसे तेज हथियार है, जो हर मुसीबत में कदम-कदम पर मेरा साथ देते आये हैं।"

बाबाजी के आगे मुखिया ने हाथ जोड़ते हुए माथा टेक दियाः "ठीक है बाबा ! जैसी आपकी मर्जी।"

बाबाजी ने अपनी पोटली उठायी, छाता हाथ में लिया और चल पड़े।

घंटे भर की यात्रा के बाद बाबाजी को थोड़ी थकान लगी। वे सुस्ताने के लिए कोई जगह ढूँढा रहे थे कि उन्हें सामने से एक भीमकाय काली छाया आती दिखायी दी। एक खतरनाक जंगली भालू बाबा की ओर तेजी से बढ़ रहा था। उसके तेज दाँत और पैने नाखून चमक रहे थे।

छिपने की कोई जगह नहीं और भागने का कोई रास्ता नहीं, ऊपर सीधी चढ़ाई, नीचे गहरी खाई ! बाबाजी ने नारायण.... नारायण.... नारायण... नारायण...कहा और अन्तर्यामी नारायण में तनिक शांत हुए। भालू और बाबाजी में थोड़ा ही फासला बचा था कि महात्मा जी की मति में भगवान ने प्रेरणा की। उन्होंने अपना काला छाता भालू के मुँह में ठीक सामने लाकर एक झटके से खोला।

छाता एक तो काला था, दूसरा वह खुला भी झटके के साथ। यूँ भी भालू काले कपड़े से घबराता है। उसे देखकर वह ऐसे घबराया मानो आकाश से सहसा कोई बला टपक पड़ी हो। छाते से डरकर उलटे पाँव वह ऐसे भागा कि पलटकर देखा तक नहीं। डर के मारे उसकी टट्टी निकलती जाती थी। उसकी यह बुरी हालत देखकर बाबाजी ठहाका मार कर हँस पड़े। उनके वे हँसी के ठहाके पहाड़ों से टकराकर पचासों ठहाकों में बदल गये। उसे सुनकर तो भालू और घबराया। वह और तेजी से भागा और नजरों से ओझल हो गया।

बाबा जी की आँखों से धन्यवाद के आँसू बह रहे थे और दोनों हाथ प्रार्थना की मुद्रा में जुड़े थे।

यह घटना बताती है कि जीवन की राह मे चाहे कैसी भी मुश्किल आ पड़े, धैर्य नहीं खोना चाहिए। जन्म से पहले ही जिसने दूध की व्यवस्था कर दी, जो प्राणों को गति देता है, हमारे हृदय को जो धड़कनें दे रहा है, वह प्यारा प्रभु हमारे साथ है, हमारे पास है, फिर भय और चिंता के लिए स्थान ही कहाँ ! भगवान का नाम लेकर उसके अर्थ में जो शांत होता है, जो सच्चा ईश्वर-विश्वासी है उसके कदम कैसी भी कठिन परिस्थिति में लड़खड़ाते नहीं। भगवत्कृपा से उसकी हर मुश्किल आसान हो जाती है।

मुश्किल आसान हो जाये इसलिए नहीं, परमात्मा के लिए ही परमात्मा में विश्रान्ति पायें। संतों महापुरुषों के सत्संग-सान्निध्य से परमात्मा के स्वरूप का सच्चा ज्ञान पाकर इसी जीवन में मुक्तता, पूर्णता का अनुभव कर लें। संतों की युक्ति पाकर परमात्मा के ज्ञान –ध्यान से अपने जीवन को महकायें, इसी में जीवन का साफल्य है।

स्रोतः लोक कल्याण सेतु, मई 2010, पृष्ठ संख्या 6,7 अंक 155

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