पंजाब में एक सिद्ध संत हो गये योगिराज फलाहारी जी। आपका जन्म संवत् 1924 में लुधियाना के सतलुज नदी पर बसे शेरपुर (बड़ा) नामक गाँव में हुआ था। आप संत कैसे बने और आपको जीवन का परम लक्ष्य आत्म-साक्षात्कार कैसे प्राप्त हुआ, यह घटना बड़ी रोचक है।
बाईस साल की युवावस्था में घर छोड़कर भगवत्प्राप्ति की तीव्र प्यास हृदय में लिए कामिल (पूर्ण) गुरु की तलाश में आप गली-गली, गाँव-गाँव पागलों की तरह घूम रहे थे। किसी ने बताया की भरोवाल (लुधियाना) में एक महापुरुष हरिदास जी पधारे हुए हैं। वहाँ पहुँचते ही आप हरिदास जी के श्रीचरणों में दंडवत् पड़ गये। आँखों से अविरल अश्रुधार बह रही थी, मानों वर्षों से बिछुड़ा हुआ पुत्र माँ से मिला हो। बाबा हरिदासजी दोनों वरदहस्त इस भाग्यशाली युवक के मस्तक पर रख दिये।
उस समय इनके शरीर से चट चट की ऐसी ध्वनि निकल रही थी, मानों कोई उंगलियाँ चटका रहा हो। ध्वनि बंद होते ही इनकी समाधि लग गयी। आधे घंटे के पश्चात जब नेत्र खुले तो नेत्रों में एक प्रकार की मादकता थी। मुरझाया चेहरा खिल उठा था, जिससे पता चलता थ कि अनादि-अनंत व्याथाओं का नितांत अंत हो चुका है और हृदय किसी लोकोत्तर आनंद में निमग्न है।
बाबाजी के अन्य शिष्यगण ईर्ष्यापूर्ण नेत्रों से घूर-घूरकर देख रहे थे। एक से रहा नहीं गया, वह बोल ही पड़ाः "बाबा जी ! हम लोगों को बारह-बारह वर्ष आपकी सेवा करते हो गये, कुछ न मिला। अभी जो छोकरा चलता-चलता आया, उस पर बिना जान-पहचान के आपने इतनी दया कर दी, इसका कारण मैं नहीं समझा।"
बाबा हरिदासजी मुस्कराकर बोलेः "संतों ! मैं तो लोहा हूँ। कोई भी चुम्बक बनकर अपनी ओर खींच सकता है, आज को हो या कल का। दूसरी बात यह है कि भिक्षुक और डाकू दोनों धनाभिलाषी हैं। एक को मालिक की प्रसन्नता पर निर्भर रहना होता है और दूसरे के सामने मालिक को विवश होकर सब कुछ खोलकर रख देना पड़ता है। तुम लोग भिक्षुक हो यह डाकू। मैं क्या करूँ ? इसकी अंतरात्मा उत्तम अधिकार की उस कक्षा में पहुँच चुकी है, जहाँ पर परमेश्वर का भी कुछ वश नहीं चलता।"
बाबा हरिदासजी उस युवक से बोलेः "बेटा ! तुम्हारी आंतरिक व्यथाओं को देख मुझसे न रहा गया, यथाशक्ति मैंने उपचार किया। अब कहो, कहाँ से आ रहे हो ? कहाँ जाना है ?"
युवकः "महाराज ! मैं आया हूँ संसार वनदावाग्नि की धधकती ज्वालाओं में से। जाना बस श्रीचरणों तक था, पहुँच गया। अब यहाँ से मुझे कहीं जाना नहीं है। आपका शिष्य बनकर अपने जीवन को सफल करूँगा।"
बाबाजीः "मैं शिष्य नहीं बनाता।"
युवकः "यदि आप शिष्य नहीं बनाते तो ये सब संत कौन हैं ?"
बाबाजीः "ये सब मेरे गुरु हैं।"
एक शिष्य चिढ़कर बोलाः "बाबाजी ! माँगने वालों को यदि कुछ देते नहीं तो न सही, पर पत्थर क्यों मारते हो !"
बाबा हरिदास मंद-मंद मुस्करा उठे।
अपनी श्रेष्ठता, वरिष्ठता का अभिमान रखने वाले दूसरे शिष्य पीछे रह गये और परमात्मप्राप्ति की तीव्र पिपासावाला यह नवयुवक बाबा हरिदास की कृपा पचाकर धन्य-धन्य हो गया। यही युवक आगे चल कर महात्मा फलाहारीजी के नाम से प्रख्यात हुआ।
भगवत्प्राप्ति की तीव्र तड़प व तत्परता हो और समर्थ सदगुरु का आश्रय मिल जाय तो भगवत्प्राप्ति दूर नहीं, दुर्लभ नहीं।
स्रोतः लोक कल्याण सेतु, जून 2010, पृष्ठ संख्या 9,11 अंक 156
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