गुरुभक्त रसिक मुरारीजी
रसिकमुरारी नाम के एक महात्मा हो गये। वे बड़े ही संतसेवी और गुरुभक्त थे। एक बार उनके यहाँ साधुओं का भंडारा था। बहुत से साधु-संत पधारे हुए थे। रसिकजी ने संतों का चरणामृत मँगवाया और बड़े अहोभाव से, श्रद्धा-भक्ति से पान किया, पर आज उन्हें पहले जैसी तृप्ति न हुई।
चरणामृत लाने वाले सेवक को बुलाकर उन्होंने कहाः "ऐसा लगता है कि मेरे प्राणप्यारे प्रभु मेरे समीप हैं पर मैं उनके दर्शन नहीं कर पा रहा। चरणामृत में भी आज वह अमृतमय स्वाद नहीं आया। जरूर हमसे कोई चूक हुई है।"
रसिकजी संतों के निवास पर गये। एक-एक करके सभी संतों को उन्होंने वंदन किया और क्षमा प्रार्थना की, पर अब भी उनके हृदय का अभाव गया नहीं।
संतों के निवास से काफी दूर वृक्ष की छाया में एक कोढ़ी साधु बैठे थे। शरीर भले कोढ़ से ग्रस्त था पर उनके चेहरे पर अदभुत तेज विद्यमान था। उन पर दृष्टि जाते ही रसिकजी उसी ओर भागे। दंडवत् कर उनके चरणों में गिर पड़े। बार-बार उठते, फिर दंडवत् करते।
"प्रभो ! आप स्वयं मेरे द्वार पर आये, मैं पहचान न सका। मुझे अपनी शरण में लीजिए।
संत उनके मस्तक पर स्नेह से हाथ फेरते हुए बोलेः "बेटा ! संतों के प्रति तुम्हारी श्रद्धा-भक्ति अदभुत है। भगवान तुम पर अवश्य कृपा करेंगे। यहाँ से थोड़ी दूरी पर एक ब्रह्मनिष्ठ महात्मा रहते हैं, वे ही तुम्हारे गुरु हैं। बेटा ! अनंत जन्मों की तपस्या का, अनंत जन्मों की साधनाओं का साफल्य इसी में है कि किसी हयात ब्रह्मनिष्ठ महात्मा की चरण-शरण मिल जाय। तुम्हारे जीवन की वह शुभ घड़ी आ गयी है।"
दूसरे लोग जिन्हें देखकर नाक सिकोड़ रहे थे, रसिक जी ने बड़े प्रेम से उन संत का चरणामृत लिया और तब उनके हृदय को तृप्ति मिली।
सदगुरु से दीक्षा पाकर रसिकमुरारी के जीवन का रूपांतरण हो गया। भगवन्नाम जप व गुरु की बतायी साधना-पद्धति से वे तीव्र गति से साधन-मार्ग में आगे बढ़ने लगे।
अपने गुरुदेव के प्रति रसिक जी की कैसी अटूट निष्ठा व भक्तिभाव था, इससे जुड़ा उनके जीवन का एक मधुर प्रसंग उल्लेखनीय है।
रसिकजी के गुरुदेव को एक राजा ने आग्रहपूर्वक चार गाँव भेंट किये ताकि उनके राजस्व से साधु संतों की सेवा भली प्रकार होती रहे। परंतु कुछ समय बाद एक लोभी ठेकेदार ने राजा को पटाकर वे चार गाँव खरीद लिये। संतों की सेवा में विघ्न उपस्थित देख गुरु महाराज ने रसिक जी को बुलावा भेजा। जिस समय उनके पास संदेशवाहक पहुँचा उस समय वे भोजन कर रहे थे। समाचार मिलते ही बिना हाथ धोये उसी अवस्था में चल पड़े। गुरु ने उनको उक्त चार गाँव ठेकेदार से छुड़ाने की आज्ञा दी। उधर जब ठेकेदार को पता चला कि रसिकमुरारी गाँव छुड़ाने आ रहे हैं तो उसने उनके मार्ग में एक मतवाला हाथी छुड़वा दिया ताकि वह उन्हें कुचलकर मार डाले। रसिकजी को ठेकेदार की बदनीयत पता चल चुकी थी। वे बोलेः 'कई जन्मों में कई बार यह शरीर मर चुका, फिर भी जन्म-मरण का अंत नहीं आया। इस बार यह नाशवान शरीर यदि गुरुदेव के काम आ रहा है तो मेरा अहोभाग्य है !' ऐसा कहकर वे आगे बढ़ने लगे। सभी शिष्य घबराये और रसिकजी से मार्ग छोड़ देने का आग्रह करने लगे। रसिकजी ने कहाः 'आप लोगों ने निष्ठापूर्वक उपदेश नहीं लिया है। अगर तुम्हें शरीर का मोह है तो गले में व्यर्थ ही यह माला क्यों पहन रखी है ?'
रसिकजी की बात सुनकर कुछ शिष्य जिन्हें जान प्यारी थी माला उतारकर आसपास छुप गये और निष्ठावान शिष्य रसिकजी के साथ ही डटे रहे। इधर से विशालकाय मतवाला हाथी बढ़ता चला आ रहा था तो इधर रसिकमुरारि गुरुनाम का जप करते निर्भयता से बढ़े चले जा रहे थे। 'अब क्या होगा', यह सोच कायर शिष्यों के हृदय भय से काँप रहे थे और निष्ठावान शिष्य अपने सदभाग्य की मनोमन सराहना कर रहे थे।
जाको राखें साइयाँ, मार सके ना कोय।
बाल न बाँका करि सकै, चाहे जग बैरी होय।।
रसिकजी के समीप आकर वह मतवाला हाथी मानो पालतू कुत्ता बन गया। रसिक जी की दृष्टि पड़ते ही उस तामसी जीव में भी अष्टसात्त्विक भावों का संचार हो गया। उसके नेत्रों से जल बहने लगा और वह हाथी रसिकजी के चरणों में शीश झुकाकर बैठ गया। रसिकजी ने शिष्यों की उतारी हुई मालाएँ हाथी को पहना दीं और उसके कान में 'रामकृष्ण नारायण' मंत्र सुनाकर उसे मंत्रदीक्षा भी दे दी। उसका मतवालापन शांत हो गया। जो बेचारे माला छोड़कर छुप गये थे वे भी अब अपनी जगह से निकल आये और रसिकजी के चरणों में पड़कर क्षमा माँगी व पुनः शरणागत हुए। जब ठेकेदार को यह समाचार मिला तो वह नँगे पाँव भागा-भागा आया और रसिकजी से क्षमा-याचना करने लगा। उसने चारों गाँवों के दस्तावेज और वह हाथी भी रसिकजी को भेंट कर दिया। गुरुसेवा में सफल होकर जब वे अपने गुरुदेव के पास पहुँचे तो गुरु ने परम संतुष्ट होकर उन्हें हृदय से लगा लिया। गुरु शिष्य से संतुष्ट हो जायें, इसके आगे तीनों लोक का वैभव भी तुच्छ हैं, अष्टसिद्धियाँ, नवनिधियाँ भी फीकी हैं। भगवान शिव माता पार्वती जी से कहते हैं-क
आकल्पजन्मकोटीनां यज्ञव्रततपः क्रियाः।
ताः सर्वाः सफला देवि गुरुसंतोषमात्रतः।।
'हे देवी ! कल्पपर्यन्त के, करोड़ों जन्मों के यज्ञ, व्रत, तप और शास्त्रोक्त क्रियाएँ – ये सब गुरुदेव के संतोषमात्र से सफल हो जाते हैं।'
स्रोतः लोक कल्याण सेतु, जून 2010, पृष्ठ संख्या 5,6,7 अंक 156
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