2.8.10

स्वामी रामकृष्ण परमहंस और रसिक मेहतर

तेरे भीतर नारायण है

दक्षिणेश्वर (कोलकाता) में स्वामी रामकृष्ण परमहंस किसी मार्ग से जा रहे थे। उन्हें देखकर झाड़ू लगानेवाले रसिक मेहतर ने उन्हें दण्डवत् प्रणाम किया। ठाकुर ने प्रसन्नमुख से पूछाः "क्यों रे रसिक ! कुशल तो है ?"

"बाबा ! हमारी जाति हीन, हमारा कर्म हीन, हमारा क्या कुशल-मंगल !" हाथ जोड़ कर रसिक ने उत्तर दिया।

ठाकुर तेजयुक्त स्वर में बोलेः "हीन जाति कहाँ ! तेरे भीतर नारायण हैं, तू स्वयं को नहीं जान पाया इसलिए हीनता का अनुभव कर रहा है।"

"किंतु कर्म तो हीन है।" रसिक ने कहा।

"क्या कह रहा है ! क्या कभी कोई कर्म हीन होता है !" फिर ठाकुर जोर देकर बोलेः "यहाँ माँ का दरबार है, राधाकांत, द्वादश शिव का दरबार है, कितने साधु-संतों का यहाँ आना-जाना लगा रहता है, उनके चरणों की धूल चारों ओर फैली हुई है। झाड़ू लगाकर तू वही धूल अपने शरीर पर लगा रहा है। कितना पवित्र कर्म है ! कितने भाग्य से यह सब तुझे मिल रहा है !"

रसिक आश्वस्त होकर बोलाः "बाबा ! मैं मूर्ख हूँ, बातों में आपसे पार नहीं पा सकता। मैं तो केवल एक बात आपसे पूछना चाहता हूँ कि क्या मेरी मुक्ति होगी ?"

ठाकुर चलते-चलते स्वाभाविक बोलेः "हाँ होगी, अंतिम समय होगी किंतु घर के आँगन में तुलसी का पौधा लगाना और संध्या के समय हरिनाम का जप करना।"

संत तो परम हितकारी होते हैं। वे जो कुछ कहें, उसका पालन करने के लिए तत्परता से लग जाना चाहिए। इसी में हमारा परम कल्याण है। महापुरुष की बात को टालना नहीं चाहिए।

रसिक ने ठाकुर जी की आज्ञा समझकर अपने घर के आँगन में तुलसी का पौधा लगा लिया और रोज बच्चे-बूढ़ों सहित संध्याकाल में हरिनाम का जप-कीर्तन करने लगा।

कुछ वर्ष पश्चात रसिक की तबीयत अचानक खराब हो गयी। उसे तेज बुखार था पर उसने जिद पकड़ी कि दवा नहीं खाऊँगा। बुखार ने और जोर पकड़ा। एक दिन भरी दोपहर को उसने पत्नी को बुलाया और कहाः

"मुझे तुलसी के पास ले चलो, पुत्रों को बुलाओ। अब मेरा शरीर जाने वाला है।"

बच्चे जल्दी उसे तुलसी के पास ले गये। वहाँ रसिक तुलसी की माला से जप करने लगा। जप करते-करते पता नहीं उसे कौन सा दृश्य दिखने लगा। उसके मुखमंडल पर तृप्ति, संतुष्टि का एक विलक्षण भाव झलकने लगा।

अचानक वह बोल उठाः "बाबा आये हो, आहा ! कितने सुन्दर, कितने सुन्दर.... बाबा ! आपके दर्शन से कितनी शांति मिल रही है ! आपका दर्शन पाकर मैं धन्य हो गया ! बाबा बाबा...." न कहीं साँस खिंची, न हिचकी आयी। बोलते-बोलते रसिक ने गम्भीर शांति से आँखें मूँद लीं और सदा के लिए परमात्मधाम में प्रवेश पा लिया।

भगवत्प्राप्त महापुरुष पृथ्वी पर के साक्षात कल्पतरू हैं। जन्मों की अंतहीन यात्रा से थका मानव उनका सान्निध्य पाकर, उनके अमृतवचन सुनकर परम शांति का अनुभव करता है, उसे जीवन में भी विश्रांति मिलती है और मृत्यु में भी। वह जन्म-मृत्यु के चक्र से सदा के लिए छूट जाता है।

स्रोतः लोक कल्याण सेतु, जुलाई 2010, पृष्ठ संख्या 7, अंक 157

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