15 वर्ष का एक नटखट किशोर था। वह बड़ा ही शैतान था। बात-बात पर गुस्सा हो जाना, झगड़ पड़ना यह उसकी आदत ही थी।
एक बार वह अपने मित्रों के साथ एक बारात में गया। वहाँ भोजन बनाने में कुछ देर हो गयी उसे सख्त भूख लग रही थी। जी मसोलकर वह बैठा हुआ था पर अंदर तो गुस्से का गुबार उठ रहा था। वह भूख से तिलमिलाया और स्वागत कर्ताओं पर बरस पड़ाः "इतनी देर हो गयी, अभी तक तुम्हारा भोजन ही तैयार नहीं हुआ है !"
उस ओर भी था कोई सवा सेर, बोलाः "भीख माँगना तो तुम्हारा काम है ही, गाँव में से माँगकर खा लो। यहाँ ज्यादा धाँस मत दिखाओ।"
उस किशोर को और गुस्सा आया। बात कहा सुनी से हाथापाई तक पहुँची और किशोर की अच्छी मरम्मत हुई। पिट-पिटकर वह अपने गाँव लौट आया। उसके कपड़ों की हालत और रूआँसा चेहरा देखकर उसके पिताजी सारी बात समझ गये, बाकी की जानकारी साथ गये लोगों ने दे दी।
पिता जी ने उसे सांत्वना देकर भोजन कराया और आराम करने भेज दिया। वह दो घंटे बाद सोकर उठा तो शांत था।
पिता जी ने प्यार से बुलाकर कहाः "बेटा ! तुम अपने अंदर झाँककर देखो कि अपराध किसका है ? तुम हरेक से लड़ते झगड़ते रहते हो। कोई भी व्यक्ति तुमसे प्रसन्न नहीं है। बात-बात में तुम उत्तेजित हो जाते हो। अपनी प्रकृति के अनुसार अवश्य तुम्हारी वहाँ भी किसी छोटी सी बात पर अनबन हो गयी होगी।"
वह किशोर बुद्धिमान तो था। वह उद्विग्न नहीं हुआ। उसे अपनी गलती पर ग्लानि हो रही थी। वह नम्रतापूर्वक प्रार्थना करते हुए बोलाः
"पिता जी ! कृपा करके इसका कोई उपाय बताइये ताकि मैं भी आपकी तरह शांत हो जाऊँ।"
पिता जी ने कहाः "बेटा ! तुम चैतन्यस्वरूप हो। शांति तो तुम्हारा जन्मसिद्ध अधिकार है। मनुष्य जब अपने आत्मस्वरूप को भूल जाता है तो बाह्य व आंतरिक कारणों के वशीभूत होकर अपना संतुलन खो बैठता है। बुद्धिमान मनुष्य कैसी भी परिस्थिति में सम रहता है। छोटे व्यक्ति छोटी-छोटी बातों पर खिन्न हो जाते हैं, चिढ़ जाते हैं और आवेश में आकर गलत कदम उठा लेते हैं।
ध्यायतो विषयन्पुंसः सङ्गस्तेषूपजायते।
सङ्गात्संजायते कामः कामात्क्रोधोऽभिजायते।
विषयों का चिंतन करने वाले पुरुष की उन विषयों में आसक्ति हो जाती है, आसक्ति से उन विषयों की कामना उत्पन्न होती है और कामना में विघ्न पड़ने से क्रोध उत्पन्न होता है।
(श्रीमद् भगवद गीताः 2.62)
इसलिए तुम अपनी इच्छाओं को नियंत्रण में रखो। इच्छा की पूर्ति न होने पर क्रोध आता है। यदि तुम न पूरी होने वाली कामनाओं से बच सकते हो तो तुम शांत रहोगे।
गीता का यह श्लोक उस बालक के हृदय पर मानो हमेशा हमेशा के लिए अंकित हो गया। उसने इसका गहन चिंतन-मनन किया। उसे जीवन का अनमोल सूत्र हाथ लग गया था। उसने उसे अपने जीवन में उतारा और अभ्यास किया। अब उसका क्रोधी स्वभाव शांत हो गया था। वह एक अच्छा बालक बन चुका था। एक-एक करके वह अपनी कमियों को खोज-खोज कर निकालता गया। भगवदध्यान और जप से उसकी दैवी शक्तियों का विकास हुआ और वही बालक आगे चलकर अवंतिका क्षेत्र में महात्मा शांतिगिरी नाम से प्रसिद्ध हुआ।
स्रोतः लोक कल्याण सेतु, अप्रैल 2010, पृष्ठ 6,13, अंक 145
ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ
sath vachn Brhmgyan se uncha kuch nahin hai.
जवाब देंहटाएं