2.8.10

विदुरजी और धृतराष्ट्र

क्या आश्चर्य है !
महाभारत के युद्ध में अपने 100 पुत्रों और सारी सेना का संहार हो जाने से धृतराष्ट्र बड़े दुःखी हुए। उनके शोक को शांत करने के लिए धर्मात्मा विदुर जी ने मधुर, सांत्वनापूर्ण वाणी में धर्म का उपदेश दिया।
तब राजा धृतराष्ट्र ने कहाः ''विदुरजी ! धर्म के इस गूढ़ रहस्य का ज्ञान बुद्धि से ही हो सकता है। अतः तुम मेरे आगे विस्तारपूर्वक इस बुद्धिमार्ग को कहो।"
विदुरजी कहने लगेः "राजन ! भगवान स्वयंभू को नमस्कार करके मैं इस संसाररूप गहन वन के उस स्वरूप का वर्णन करता हूँ, जिसका निरूपण महर्षियों ने किया है। एक ब्राह्मण किसी विशाल वन में जा रहा था। वह एक दुर्गम स्थान में जा पहुँचा। उसे सिंह, व्याघ्र, हाथी, रीछ आदि भयंकर जंतुओं से भरा देखकर उसका हृदय बहुत ही घबरा उठा, उसे रोमांच हो आया और मन में बड़ी उथल पुथल होने लगी। उस वन में इधर-उधर दौड़कर उसने बहुत ढूँढा कि कहीं कोई सुरक्षित स्थान मिल जाये परंतु वह न तो वन से निकलकर दूर ही जा सका और न उन जंगली जीवों से त्राण ही पा सका। इतने में ही उसने देखा कि वह भीषण वन सब ओर जाल से घिरा हुआ है। एक अत्यंत भयानक स्त्री ने उसे अपनी भुजाओं से घेर लिया है तथा पर्वत के समान ऊँचे पाँच सिरवाले नाग भी उसे सब ओर से घेरे हुए हैं। उस वन के बीच में झाड़-झंखाड़ों से भरा हुआ एक गहरा कुआँ था। वह ब्राह्मण इधर उधर भटकता उसी में गिर गया किंतु लताजाल में फँसकर वह ऊपर को पैर और नीचे को सिर किये बीच में ही लटक गया।
इतने में ही कुएँ के भीतर उसे एक बड़ा भारी सर्प दिखायी दिया और ऊपर की ओर उसके किनारे पर एक विशालकाय हाथी दिखा। उसके शरीर का रंग सफेद और काला था तथा उसके छः मुख और बारह पैर थे। वह धीरे-धीरे उस कुएँ की ओर ही आ रहा था। कुएँ के किनारे पर जो वृक्ष था, उसकी शाखाओं पर तरह-तरह की मधुमक्खियों ने छता बना रखा था। उससे मधु की कई धाराएँ गिर रही थीं। मधु तो स्वभाव से ही सब लोगों को प्रिय है। अतः वह कुएँ में लटका हुआ पुरुष इन मधु की धाराओं को ही पीता रहता था। इस संकट के समय भी मधु पीते-पीते उसकी तृष्णा शांत नहीं हुई और न उसे अपने ऐसे जीवन के प्रति वैराग्य ही हुआ। जिस वृक्ष के सहारे वह लटका हुआ था, उसे रात दिन काले और सफेद चूहे काट रहे थे। इस प्रकार इस स्थिति में उसे कई प्रकार के भयों ने घेर रखा था। वन की सीमा के पास हिंसक जंतुओं से और अत्यंत उग्ररूपा स्त्री से भय था, कुएँ के नीचे नाग से और ऊपर हाथी से आशंका थी, पाँचवाँ भय चूहों के वृक्ष को काट देने पर गिरने का था और छठा भय मधु के लोभ के कारण मधुमक्खियों से भी था। इस प्रकार संसार-सागर में पड़कर भी वह नहीं डटा हुआ था तथा जीवन की आशा बनी रहने से उसे उससे वैराग्य भी नहीं होता था।
महाराज ! मोक्षतत्त्व के विद्वानों ने यह एक दृष्टान्त कहा है। इसे समझकर धर्म का आचरण करने से मनुष्य परलोक में सुख पा सकता है। यह जो विशाल वन कहा गया है, वह यह विस्तृत संसार ही है। इसमें जो दुर्गम जंगल बताया है, वह इस संसार की ही गहनता है। इसमें जो बड़े-बड़े हिंस्र जीव बताये गये हैं, वे तरह-तरह की व्याधियाँ हैं तथा इसकी सीमा पर जो बड़े डीलडौलवाली स्त्री है वह वृद्धावस्था है, जो मनुष्य के रूप रंग को बिगाड़ देती है। उस वन में जो कुआँ है, वह मनुष्य देह है। उसमें नीचे की ओर जो नाग बैठा हुआ है, वह स्वयं काल ही है। वह समस्त देहधारियों को नष्ट कर देने वाला और उनके सर्वस्व को हड़प जाने वाला है। कुएँ के भीतर जो लता है, जिसके तंतुओं में यह मनुष्य लटका हुआ है, वह इसके जीवन की आशा है तथा ऊपर की ओर जो छः मुँहवाला हाथी है वह संवत्सर (वर्ष) है। छः ऋतुएँ उसके मुख हैं तथा बारह महीने पैर हैं। उस वृक्ष को जो चूहे काट रहे हैं, उन्हें रात-दिन कहा गया है तथा मनुष्य की जो तरह-तरह की कामनाएँ हैं, वे मधुमक्खियाँ हैं। मक्खियों के छत्ते से जो मधु की धाराएँ चू रही हैं, उन्हें भोगों से प्राप्त होने वाले रस समझो, जिनमें अधिकांश मनुष्य डूबे रहते हैं। बुद्धिमान लोग संसारचक्र की गति को ऐसा ही समझते हैं, तभी वे वैराग्यरूपी तलवार से इसके पाशों को काटते हैं।"
धृतराष्ट्र ने कहाः "विदुर ! तुम बड़े तत्त्वदर्शी हो। तुमने मुझे बड़ा सुंदर आख्यान सुनाया है। तुम्हारे अमृतमय वचनों को सुनकर मुझे बड़ा हर्ष होता है।"
विदुरजी बोलेः "राजन् ! शास्ज्ञों ने गहन संसार को वन बताया है। यही मनुष्यों तथा चराचर प्राणियों का संसारचक्र है। विवेकी पुरुष को इसमें आसक्त नहीं होना चाहिए। मनुष्यों की जो प्रत्यक्ष और परोक्ष शारीरिक तथा मानसिक व्याधियाँ हैं, उन्हीं को बुद्धिमानों ने हिंस्र जीव बताया है। मंदमति पुरुष इन व्याधियों से तरह-तरह के क्लेश और आपत्तियाँ उठाने पर भी संसार से विरक्त नहीं होते। यदि किसी प्रकार मनुष्य इन व्याधियों के पंजे से निकल भी जाय तो अंत में इसे वृद्धावस्था तो घेर ही लेती है। इसी से यह तरह-तरह के शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गंधों से घिरकर मज्जा और मांसरूप कीचड़ से भरे हुए आश्रयहीन देहरूप गड्ढे में पड़ा रहता है। वर्ष, मास, पक्ष और दिन रात की संधियाँ – ये क्रमशः इसके रूप और आयु का नाश किया करते हैं। ये सब काल के ही प्रतिनिधि हैं, इस बात को मूढ़ पुरुष नहीं जानते।
अतः बुद्धिमान पुरुष को संसार की निवृत्ति का ही प्रयत्न करना चाहिए, इस ओर से लापरवाही नहीं करना चाहिए।
मनुष्य को चाहिए कि अपने मन को काबू में करके ब्रह्मज्ञानरूप महौषधि प्राप्त करे और उसके द्वारा इस संसार-दुःखरूप महारोग को नष्ट कर दे। इस दुःख से संयमी चित्त के द्वारा जैसा छुटकारा मिल सकता है, वैसा पराक्रम, धन, मित्र या हितैषी किसी की भी सहायता से नहीं मिल सकता।
जो बुद्धिहीन पुरुष तरह-तरह के माया-मोह में फँसे हुए हैं और जिन्हें बुद्धि के जाल ने बाँध रखा हैं, वे भिन्न-भिन्न योनियों में भटकते रहते हैं।"
स्रोतः ऋषि प्रसाद, अप्रैल 2010, पृष्ठ संख्या 16,17 अंक 208
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