बहुरत्ना वसुंधरा
मानव के जीवन में संसारी चीजों की कीमत तब तक होती है, जब तक उसको अपने जीवन के वास्तविक उद्देश्य का पता नहीं होता। जब उसे किन्हीं ब्रह्मनिष्ठ सदगुरु से दीक्षा-शिक्षा मिल जाती है, जीवन के वास्तविक उद्देश्य का पता चल जाता है और गुरुमंत्ररूपी अमूल्य रत्न मि जाता है तो फिर उसके जीवन में और किसी चीज की कीमत नहीं रह जाती। मेवाड़ की महारानी मीराबाई के जीवन में धन-धान्य की कोई कमी नहीं थी, परंतु जब उन्हें गुरु से भगवन्नाम की दीक्षा मिली तब वे कहती हैं-
पायो जी मैंने राम रतन धन पायो।
वस्तु अमोलक दी मेरे सदगुरु
कृपा करी अपनायो,
पायो जी मैंने राम रतन धन पायो।।
ऐसे ही भक्त पुरंदरदासजी के जीवन में भी देखने को मिलता है।
एक बार राजा कृष्णदेव के निमंत्रण पर भक्त पुरंदरदासजी राजमहल में पधारे। जाते समय राजा ने दो मुट्ठी चावल उनकी झोली में डालते हुए कहाः "महाराज ! इस छोटी सी भेंट को स्वीकार कर मुझे अनुगृहीत करें।" राजा ने उन चावलों में कुछ हीरे मिला दिये थे।
पुरंदरदास जी की पत्नी ने घर पर चावल साफ करते समय देखा कि उनमें कुछ बहुमूल्य रत्न भी हैं तो उन्हें अलग कर कूड़ेदान में फेंक दिया।
पुरंदरदासजी प्रतिदिन दरबार में जाते थे। राजा सदैव ही उन्हें दो मुट्ठी चावल के साथ हीरे मिलाकर दे देता पर मन में सोचता कि 'पुरंदरदास जी धन के लालच से मुक्त नहीं हैं। यदि वे मुक्त होते तो प्रतिदिन भिक्षा के लिए दरबार में क्यों आते !'
एक दिन राजा ने कहाः ''भक्तराज ! लालच मनुष्य को आध्यात्मिक उपलब्धियों से दूर कर देता है। अब आप स्वयं ही अपने विषय में विचार करें।"
राजा के मुख से यह बात सुनकर भक्त पुरंदरदास जी को बड़ा दुःख हुआ। वे अगले दिन राजा को अपना घर दिखाने ले गये। उस समय पुरंदरदासजी की पत्नी थाली में चावल फैलाकर साफ कर दी थी। राजा ने पूछाः "देवि ! आप क्या कर रही हो ?"
वह बोलीः "महाराज ! कोई व्यक्ति भिक्षा में चावल के साथ कुछ बहुमूल्य रत्न मिलाकर हमें देता है। मैं उन पत्थरों को निकालकर अलग कर रही हूँ।"
"फिर क्या करेंगी उनका ?"
"घर के बाहर कूड़ेदान में फेंक दूँगी। हमारे लिए इन पत्थरों का कोई मूल्य नहीं है।"
राजा ने उन सभी बहुमूल्य रत्नों को कूड़ेदान में पड़े देखा तो आश्चर्यचकित रह गया और भक्त-दम्पत्ति के चरणों में गिर पड़ा।
बहुरत्ना वसुंधरा.... यह वसुन्धरा, यह भारतभूमि ऐसे बहुविध मानव-रत्नों से सुशोभित है। धन संग्रह से अलिप्त, बहुमूल्य रत्नों से सुशोभित है। धनसंग्रह से अलिप्त, बहुमूल्य रत्नों में पत्थरबुद्धि रखने वाले भक्त पुरंदरदासजी व उनकी पत्नी जैसे भक्त भी यहाँ हुए हैं और लोक-मांगल्य के लिए धन का सदुपयोग कर सदज्ञान, सत्सेवा, सदाचार की विशाल पावन सरिता बहाने वाले संत एकनाथजी आदि महापुरुष भी इसी धरा पर हुए हैं।
स्रोतः ऋषि प्रसाद, अप्रैल 2010, पृष्ठ संख्या 9, अंक 208
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