4.12.10

सीता जी को भी कर्मफल भोगना पड़ा

'पद्म पुराण' में एक कथा आती हैः

अपने बाल्यकाल में एक दिन सीताजी मिथिलानगरी में सखियों के साथ विनोद कर रही
थीं। वहाँ उन्हें शुक पक्षी का एक जोड़ा दिखायी दिया, जो आपस में किलोल करते
हुए भगवान श्री राम की गाथा गा रहा था कि "पृथ्वी पर श्री राम नाम से प्रसिद्ध
एक बड़े सुंदर राजा होंगे। उनकी महारानी सीता के नाम से विख्यात होगी। श्री
रामचंद्रजी बड़े बलवान और बुद्धिमान होंगे तथा समस्त राजाओं को वश में रखते हुए
सीता के साथ ग्यारह हजार वर्षों तक राज्य करेंगे।

अपना व श्रीरामजी का चरित्र सुनकर सीताजी ने सखियों से कहाः "कुछ भी करके इन
पक्षियों को पकड़ लाओ।"

सखियों ने शुक-शुकी को पकड़ कर सीता जी को अर्पित कर दिया। सीता जी ने उन
पक्षियों से कहाः "तुम दोनों बड़े सुन्दर हो। तुम कौन हो और कहाँ से आये हो? सीता
जी के इस प्रकार प्रेमपूर्वक पूछने पर उन्होंने कहाः "देवि ! हम महर्षि
वाल्मीकि के आश्रम में रहते हैं। वे त्रिकालज्ञानी हैं। उन्होंने रामायण नामक
एक ग्रंथ बनाया है। उसकी कथा मन को बड़ी प्रिय लगती है।

भगवान विष्णु अपने तेज से चार अंश में प्रकट होंगे। राम, लक्ष्मण
, भरत और शत्रुघ्न के रूप में वे अवधपुरी में अवतरि होंगे। भगवान श्री राम
महर्षि विश्वामित्र के साथ मिथिला पधारेंगे। उस समय वे जनककिशोरी सीता को अपनी
धर्मपत्नी के रूप में ग्रहण करेंगे।"

सीता जी ने पुनः पूछाः "श्रीरामजी कैसे होंगे? उनके गुणों का वर्णन करो।
मनुष्यावतार में उनका श्री विग्रह कैसा होगा? तुम्हारी बातें मुझे बड़ी प्रिय
लग रही हैं।"

सीता जी के प्रश्न सुनकर शुकी मन ही मन जान गयी की ये ही सीता
हैं। उन्हें पहचान कर वह सामने आ उनके चरणों पर गिर पड़ी और बोलीः "श्रीराम जी
का मुख कमल की कली के समान सुंदर होगा। वे अपनी शांत, सौम्य दृष्टि से जिस पर
भी निगाह डालेंगे, उसका चित्त प्रसन्न और उनकी तरफ आकर्षित हो जायेगा।
श्रीरामजी सब प्रकार के ऐश्वर्यमय गुणों से युक्त होंगे।

परंतु सुंदरी ! तुम कौन हो? मालूम होता है तुम ही जानकी जी हो। इसलिए अपने पति
के सौन्दर्य, शूरवीरता और यशोगान का बार-बार श्रवण करना तुम्हें अच्छा लग रहा
है।"

सीता जी ने लज्जा प्रदर्शित करते हुए कहाः "तुम ठीक कहती हो। मेरे मन को
लुभानेवाले श्रीराम जब यहाँ आकर मुझे स्वीकार करेंगे तभी मैं तुम दोनों को
छोड़ूँगी, अन्यथा नहीं। अब तुम इच्छानुसार क्रीड़ा करते हुए मेरे महल में सुख
से रहो और मीठे-मीठे पदार्थों का सेवन करो।"

सीताजी की यह बात सुनकर शुकी ने कहाः "साध्वी ! हम वन के पक्षी हैं। पेड़ों पर
रहते हैं और सर्वत्र विचरण करते हैं। हमें तुम्हारे महल में सुख नहीं मिलेगा।
मैं गर्भिनी हूँ, अभी वाल्मीकि जी के आश्रम में अपने स्थान पर जाकर बच्चों को
जन्म दूँगी। उसके बाद तुम्हारे पास आ जाऊँगी।"

सीता जी ने कहाः "कुछ भी हो, "शुक तुम जा सकते हो। किंतु शुकी को नहीं
छोड़ूँगी।"

दोनों बहुत रोये-गिड़गिड़ाये किंतु सीता जी उन्हें छोड़ने के लिए तैयार नहीं
हुईं।

तब शुकी ने क्रोध और दुःख से व्याकुल होकर सीता जी को शाप दे दियाः
"अरी ! जिस प्रकार तू मुझे इस समय अपने पति से अलग कर रही है, वैसे ही तुझे भी
गर्भिणी की अवस्था में श्रीरामजी से अलग होना पड़ेगा।"

यह कहकर पति-वियोग के शोक से उसने प्राण त्याग दिये। पत्नी की मृत्यु हो जाने
पर शुक शोकाकुल होकर बोलाः- "मैं मनुष्यों से भरी श्री रामजी की नगरी अयोध्या
में जन्म लूँगा तथा ऐसी अफवाह पैदा करूँगा कि प्रजा गुमराह हो जायेगी और
प्रजापालक श्रीरामजी प्रजा का मान रखने के लिए तुम्हारा त्याग कर देंगे।"

क्रोध और सीता जी का अपमान करने के कारण शुक का धोबी के घर जन्म हुआ। उस धोबी
के कथन से ही सीता जी निंदित हुईं और गर्भिणी अवस्था में उन्हें पति से अलग
होकर वन में जाना पड़ा।

कर्म का फल तो अवतारों को भी भोगना पड़ता है। इसी से विदित होता है कि कर्म
करने में कितनी सावधानी बरतनी चाहिए।

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