हमारी सनातन संस्कृति में माता-पिता तथा गुरूजनों को नित्य चरणस्पर्श करके प्रणाम
करने का विधान है। चरणस्पर्श करके प्रणाम न कर सकें तो दोनों हाथ जोड़कर ही नमस्कार
करें। कन्याओं को तो किसी भी पुरूष के पैर छूकर प्रणाम करना ही नहीं चाहिए।
शास्त्रों में आता हैः
अभिवादनशीलस्य नित्यं वृद्धोपसेविनः।
चत्वारि तस्य वर्द्धन्ते आयुर्विद्या यशो बलम्।।
'जो नम्रताशील हैं तथा नित्य बड़ों की सेवा करता है उसके आयु, विद्या, यश एवं बल ये
चारों बढ़ते हैं।'
हमारी संस्कृति में अभिवादन करना 'गुड मार्निंग', 'गुड इवनिंग' अथवा 'हेलो-हाय' की
भाँति एक निरर्थक व्यापार नहीं है जिसमें लाभ तो कुछ होता नहीं अपितु व्यर्थ की
वाणी नष्ट होती है और चंचलता आती है। मनु आदि महर्षियों ने हमारी संस्कृति की
अभिवादन पद्धति के चार लाभ बताये हैं – आयुवृद्धि, विद्यावृद्धि, यशवृद्धि एवं
बलवृद्धि। यही चार वस्तुएँ धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष के लिए आवश्यक हैं। अर्थात्
बड़ों के चरणस्पर्श करने से पुरूषार्थ चातुष्टय साधने में सहायता मिलती है।
यह मात्र कल्पना नहीं अपितु एक ऐसा कठोर सत्य है जिसे स्वीकार करने के लिए आज का
विज्ञान भी मजबूर हो गया है।
प्रत्येक मनुष्य के शरीर में धनात्मक एवं ऋणात्मक विद्युतधारायें सतत प्रवाहित होती
रहती हैं। शरीर के दायें भाग में धनात्मक एवं बायें हिस्से में ऋणात्मक
विद्युतधाराओं की अधिकता होती है।
इस सिद्धान्त को हम पक्षाघात रोग के द्वारा भी समझ सकते हैं। इस रोग में व्यक्ति
के शरीर का एक हिस्सा जड़ हो जाता है जबकि दूसरा हिस्सा पूर्ववत् क्रियाशील बना
रहता है। अतः मानव शरीर एक होने के बावजूद भी उसके दो हिस्सों में दो अलग-अलग
प्रकार की विद्युतधारायें बहती रहती हैं।
जब हम माता-पिता तथा गुरूजनों को प्रणाम करते हैं तो स्वाभाविक रूप से हमारे
दायें-बायें अंग उनके दायें-बायें अंगों से विपरीत होते हैं। जब हम अपनी ऋषिपरम्परा
के अनुसार अपने हाथों से चौकड़ी (X) का चिन्ह बनाते हुए अपने दायें हाथ से उनका
दायाँ चरण तथा बायें हाथ से बायाँ चरण छूते हैं तो हमारे तथा उनके शरीर की धनात्मक
एवं ऋणात्मक विद्युतधाराएँ आपस में मिल जाती हैं जिसे वैज्ञानिक लोग औरा (Aura)
बोलते हैं।
इसके बाद जब वे आदरणीय प्रणाम करने वाले के सिर, कंधों अथवा पीठ पर अपना हाथ रखते
हैं तो इस स्थिति में दोनों शरीरों में बहने वाली विद्युत का एक आवर्त (वलय) बन
जाता है। आज कल विशिष्ट प्रकार के कैमरा निकले हैं जो उस तेजोवलय का चित्र भी
खींचते हैं।
यहाँ पर यह बताना भी आवश्यक होगा कि ये विद्युतधाराएँ मात्र शरीर में ही नहीं बहती
हैं अपितु इनकी सूक्ष्म तरंगे शरीर के रोमकूपों तथा नुकीले मार्गों से बाहर भी
निकलती हैं। इन्हीं तरंगों को हमारे ऋषियों ने 'तेजोवलय' का नाम दिया है।
शरीर द्वारा होने वाली चेष्टाओं का मूल केन्द्र मस्तिष्क है। किसी भी कार्य द्वारा
निर्णय करने के पश्चात उसकी आज्ञानुसार शरीर के सभी अंग अपना-अपना कार्य करते हैं।
मस्तिष्क के विचारों के पूरे शरीर तक पहुँचाने में इस विद्युतशक्ति का बड़ा योगदान
होता है। नारी अपने मस्तक पर भ्रूमध्य में तिलक करे। कन्याओं के लिए भी तिलक
आत्मबलवर्धक है।
मनोविज्ञान के अनुसार जब कोई व्यक्ति क्रोध अथवा किसी बुरे विचार से उद्विग्न होता
है तो उसके शरीर से निकलने वाले विद्युत कणों के सम्पर्क में आने वाला दूसरा
व्यक्ति भी उद्विग्न सा हो जाता है। वह उसके नजदीक नहीं रहना चाहता या अपनी सामान्य
मनःस्थिति से विचलित हो जाता है।
कहने का तात्पर्य है कि हमारे मस्तिष्क के विचार विद्युतशक्ति के द्वारा शरीर में
फैलते हैं तथा यही विद्युतशक्ति जब तेजोवलय के रूप में शरीर से बाहर निकलती है तो
उसमें उन विचारों का समावेश भी होता है इसीलिए उसके तेजोवलय के सम्पर्क में आनेवाले
व्यक्ति को भी उसके विचार प्रभावित कर देते हैं।
जब हम अपने आदरणीय जनों के चरण स्पर्श करते हैं तो हमारे मस्तिष्क में प्रसन्नता के
साथ-साथ उनके प्रति आदर, सम्मान एवं कृतज्ञता के विचार उत्पन्न होते हैं। जब दोनों
की विद्युतधाराएँ आपस में मिलती हैं तो दोनों में भावनाओं का आदान प्रदान होता है।
इस प्रकार आदरणीयजनों की ऊँची भावनायें जब विद्युत तरंगों के माध्यम से हमारे
मस्तिष्क तक पहुँचती है तो वह अपनी ग्रहणशील प्रकृति के अनुसार उन्हें संस्कारों
के रूप में संचित कर लेता है। ये संस्कार ही मनुष्य को उत्थान अथवा पतन की ओर ले
जाते हैं।
इस सिद्धान्त का एक व्यावहारिक उदाहरण है कि जब एक व्यक्ति परदेश से आकर अपने
मित्रों से मिलता है तो वह प्रसन्न होकर हँसी-मजाक करता है। परन्तु जैसे ही वह
अपने माता पिता एवं गुरूजनों को प्रणाम करता है उसके विचार स्वाभाविक ही गम्भीर हो
जाते हैं। उसके मस्तिष्क में उन्नत होने के कुछ विचार उत्पन्न होते हैं।
जैसे जले हुए दीपक के संपर्क में आने पर दूसरा दीपक भी उसके प्रकाश आदि समस्त गुणों
को ग्रहण कर लेता है परन्तु इससे उस जले हुए दीपक को कुछ हानि नहीं होती, इसी
प्रकार गुरूजनों के दैवी गुण प्रणाम-पद्धति के अनुसार प्रणामकर्ता में आ जाते हैं
परन्तु प्रणम्य गुरूजनों की शक्ति में इससे कोई कमी नहीं होती।
साधारण सी दिखने वाली हमारी अभिवादन-पद्धति में हमारे ऋषियों ने कितनी महान उन्नति
संजोयी है परन्तु उन्हीं ऋषियों की हम सन्तानें पश्चिमवासियों का अंधानुकरण
करके 'हाय-हेलो' कहकर अपने आदरणीयजनों की जीवनशैली एवं महान पूर्वजों का अपमान करते
हैं।
जिससे हमारा जीवन ऊर्ध्वगामी एवं महान बने ऐसी सनातन अभिवादन पद्धति को
छोड़कर 'गुड-मार्निंग' अथवा 'हाय-हेलो' कहना कौवे की काँव-काँव तथा तोते की टें-टें
से किसी भी प्रकार भी बड़ा नहीं है।
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