4.12.10

पूर्ण समर्पण

माता कैकेयी की इच्छा और पिता दशरथ जी के दिये वचन को पूरा करने के लिए श्री रामचन्द्र जी वन जाने को तैयार हुए। उनकी वन जाने की बात सुनकर लक्ष्मण जी ने भी साथ चलने की आज्ञा माँगी। भगवान श्रीरामजी ने कहाः
"मातु पिता गुरू स्वामी सिख
सिर धरि करहिं सुभायैं।
लहेउ लाभु तिन्ह जनम कर
नतरू जनमु जग जायैं।।
'जो लोग माता-पिता, गुरु और स्वामी की शिक्षा को स्वाभाविक ही सिर चढ़ाकर उसका पालन करते हैं, उन्होंने ही जन्म लेने का लाभ पाया है, नहीं तो संसार में उनका जन्म व्यर्थ ही है।'
भैया ! मैं तुम्हें साथ ले जाऊँगा तो अयोध्या अनाथ हो जायेगी। माता, पिता, परिवार, प्रजा आदि सभी को बड़ा दुःख होगा। तुम यहाँ रहकर सबको संतुष्ट करो, नहीं तो बड़ा दोष होगा।"
जो भगवान का परम भक्त होता है उससे भगवान से एक पल की भी दूरी सहन नहीं होती। लक्ष्मण जी भगवान श्रीराम के परम भक्त थे, श्रीरामजी की ये बातें सुनकर कहने लगेः "हे स्वामी ! आपने मुझे बड़ी अच्छी सीख दी परंतु मुझे तो अपने लिए वह असम्भव ही लगी। यह मेरी कमजोरी है। शास्त्र और नीति के तो वे ही नर श्रेष्ठ अधिकारी हैं, जो धैर्यवान और धर्म धुरंधर हैं। मैं तो प्रभु के स्नेह से पाला-पोसा हुआ छोटा बच्चा हूँ। भला, हंस भी कभी मंदारचल या सुमेरू को उठा सकता है। मैं आपको छोड़कर किसी भी माता पिता को नहीं जानता।"
धन्य हैं लक्ष्मण जी की ईश्वरनिष्ठा ! जो माता पिता, स्वजन आदि सत्संग या भगवान के रास्ते ईश्वर, के रास्ते जाने से रोकते हैं, उनकी बात नहीं माननी चाहिए।
संत तुलसीदास जी के वचन हैं कि-
जाके प्रिय न राम – बैदेही।
तजिये ताहि कोटि बैरी सम,
जद्यपि परम स्नेही।।
भागवत(5.5.18) में भी कहा हैः
गुरूर्न स स्यात्स्वजनो न स स्यात्
पिता न स स्याज्जननी न सा स्यात्।
दैवं न तत्स्यान्न पतिश्च स स्या-
न्न मोचयेद्यः समुपेतमृत्युम्।।
'जो अपने प्रिय संबंधी को भगवदभक्ति का उपदेश देकर मृत्यु की फाँसी से नहीं छुड़ाता, वह गुरू, गुरू नहीं है, माता माता नहीं है, इष्टदेव इष्टदेव नहीं है और पति पति नहीं है।'
लक्ष्मण जी ने कहा कि "यह मैं स्वभाव से ही कहता हूँ, आप विश्वास करें। जगत में जहाँ तक स्नेह, आत्मीयता, प्रेम और विश्वास का संबंध वेदों ने बताया है, वह सब कुछ मेरे तो बस केवल आप ही हैं। आप दीनबंधु हैं, हृदय की जानने वाले हैं। धर्म-नीति का उपदेश तो उसे कीजिये, जिसको कीर्ति, विभूति या सदगति प्यारी लगती है। जो मन, वचन, कर्म से चरणों में ही प्रेम रखता हो, कृपा सिंधु ! क्या यह भी त्यागने योग्य है ?"
दया के सागर श्री रामचन्द्रजी का हृदय भाई के कोमल व नम्रतायुक्त वचन सुनकर छलक उठा। जब भक्त को भगवान से दूरी सहन नहीं होती तो भगवान भी उससे दूर नहीं रह सकते। उन्होंने लक्ष्मण जी को हृदय से लगा लिया और सुमित्रा मैया से आज्ञा लेकर साथ चलने की अनुमति दे दी।
स्रोतः लोक कल्याण सेतु, अक्तूबर 2010, पृष्ठ संख्या 6, अंक 160
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