29.10.10

वाह फकीरी......





राजा तेजबहादुर की शोभायात्रा निकल रही थी, उस समय रास्ते पर एक संत बैठे हुए
थे। उनका नाम धूलीशाह था। वे हमेशा भूल पर ही बैठे रहते। राजा की सवारी आ रही
थी, इसलिए सिपाहियों ने जाकर कहाः


"महाराज ! उस किनारे हो जाइये। राजा की सवारी आ रही है।"


धूलीशाहजी बोलेः "राजा की सवारी आ रही है तो क्या बड़ी बात है ? उसको कहो कि
सहजता से प्रणाम करके यहाँ से निकल जाये क्योंकि यहाँ महाराज विद्यमान हैं।"


सिपाहियों ने कहाः यदि राजा अकेले होते तो नमस्कार करके संकोच से निकल जाते, पर
उनके हाथी, रथ, घोड़े आदि सब कैसे निकलें ? महाराज ! आप जरा किनारे हो जाइये।"


धूलीशाहजी बोलेः "यदि हाथी-घोड़े पर ही जाना हो तो दूसरा रास्ता पकड़ लो। उसे
बता दो कि यदि तुम राजा हो तो मैं महाराजा हूँ। महाराजा यहाँ पर ही बैठेंगे।
महाराजा की सवारी नहीं हट सकती।"


बात राजा तक पहुँची। राजा इतना आवेशी नहीं था। वह रथ से उतरकर आया और धूलीशाह
की ओर निहारकर बोलाः


"महाराज ! आप राजा-महाराजा हो ?"


धूलीशाह जी बोलेः "हाँ, मैं महाराजा हूँ।"


राजाः "राजा के पास तो राज्य होता है, सिपाही होते हैं....खजाना होता है, नौकर
होते हैं। राजा के पास अपनी पताका होती है, झंडा होती है। आपके पास क्या है ?"


धूलिशाहजी बोलेः "तेरा राज्य कोई छीन न ले इसलिये तू शत्रुओं से डरता है और
तुझे सीमाओं की रक्षा करनी पड़ती है। मेरा तो कोई शत्रु ही नहीं है और मुझे
सीमाओं की रक्षा की फिकर नहीं तो मैं सिपाही क्यों रखूँ ? तुझे तो नौकरों को
वेतन भी देना पड़ता है, इसलिए धन भी चाहिए। मुझे तो कोई नौकरों को वेतन देना
नहीं पड़ता इसलिए धन भी नहीं चाहिए। तेरे नौकर तो पैसे के लालच से तेरी सेवा
करेंगे और अंदर से सोचेंगे कि कब राजा जाये। तेरा तो इस इलाके में ही आदर होगा,
जबकि हम तो जहाँ जाएँगे वहाँ सब लोग मुफ्त में हमारी सेवा करेंगे। हमको नौकरों
की जरूरत नहीं। हमको धन की भी जरूरत नहीं क्योंकि हमारा कोई खर्च नहीं है। हमें
किसी से डर भी नहीं कि हम अंगरक्षक रखें। बात रही झोली, झंडा और पताका की, तो
तेरी यह बाह्य पताका है, जबकि हमारी तो सोहं और शिवोहं की भीतर की पताका लहरा
रही है। हम जहाँ भी नजर डालते हैं, वहाँ हमारा राज्य खड़ा हो जाता है। सीमाओं
को सँभालने के लिए सिपाहियों की जरूरत नहीं पड़ती। तेरा राज्य तो जमीन पर कुछ
दिन के लिए है, लेकिन फकीरों का राज्य तो दिलों पर होता है। फकीरों की हयाती
(उपस्थिति) में तो होता ही है, परन्तु यदि वे चले जायें, फिर भी उनका राज्य तो
समाज के दिलों पर शाश्वत रहता है। इसलिये भैया ! मैं तो महाराजा और तू राजा है।
मेरी इच्छा है कि तू भी महाराजा हो जा।"


दास कबीर चढ्यो गढ़ ऊपर। राज मिल्यो अविनाशी।। 


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