गुरू आज्ञा सम पथ्य नहीं
(पूज्य बापूजी के सत्संग प्रवचन से)
उज्जयिनी  (वर्तमान में उज्जैन) के राजा भर्तृहरि से पास 360 पाकशास्त्री थे भोजन  बनाने के लिए। वर्ष में केवल एक एक की बारी आती थी। 359 दिन वे ताकते रहते  थे कि कब हमारी बारे आये और हम राजासाहब के लिए भोजन बनायें, इनाम पायें  लेकिन भर्तृहरि जब गुरू गोरखनाथजी के चरणों में गये तो भिक्षा माँगकर खाते  थे।
एक बार गुरू गोरखनाथजी ने अपने शिष्यों से कहाः "देखो, राजा होकर भी इसने काम, क्रोध, लोभ तथा अहंकार को जीत लिया है और दृढ़निश्चयी है।" शिष्यों ने कहाः "गुरूजी !  ये तो राजाधिराज हैं, इनके यहाँ 360 तो बावर्ची रहते थे। ऐसे भोग विलास के  वातावरण में से आये हुए राजा और कैसे काम, क्रोध, लोभरहित हो गये !"
गुरू गोरखनाथ जी ने राजा भर्तृहरि से कहाः "भर्तृहरि ! जाओ, भंडारे के लिए जंगल से लकड़ियाँ ले आओ।" राजा भर्तृहरि नंगे पैर गये, जंगल से लकड़ियाँ एकत्रित करके सिर पर बोझ उठाकर ला रहे थे।
गोरखनाथ जी ने दूसरे शिष्यों से कहाः "जाओ, उसको ऐसा धक्का मारो कि बोझा गिर जाय।"  चेले गये और ऐसा धक्का मारा कि बोझा गिर गया और भर्तृहरि भी गिर गये।  भर्तृहरि ने बोझा उठाया लेकिन न चेहरे पर शिकन, न आँखों में आग के गोले, न  होंठ फड़के।
गुरू जी ने चेलों से कहाः "देखा ! भर्तृहरि ने क्रोध को जीत लिया है।"
शिष्य बोलेः "गुरुजी ! अभी तो और भी परीक्षा लेनी चाहिए।"
थोड़ा  सा आगे जाते ही गुरुजी ने योगशक्ति से एक महल रच दिया। गोरखनाथ जी  भर्तृहरि को महल दिखा रहे थे। ललनाएँ नाना प्रकार के व्यंजन आदि लेकर आदर  सत्कार करने लगीं। भर्तृहरि ललनाओं को देखकर कामी भी नहीं हुए और उनके  नखरों पर क्रोधित भी नहीं हुए, चलते ही गये।
गोरखनाथजी ने शिष्यों को कहाः "अब तो तुम लोगों को विश्वास हो ही गया है कि भर्तृहरि ने काम, क्रोध, लोभ आदि को जीत लिया है।"
शिष्यों ने कहाः "गुरुदेव एक परीक्षा और लीजिये।"
गोरखनाथजी  ने कहाः "अच्छा भर्तृहरि ! हमारा शिष्य बनने के लिए परीक्षा से गुजरना  पड़ता है। जाओ, तुमको एक महीना मरूभूमि में नंगे पैर पैदल यात्रा करनी  होगी।"
भर्तृहरिः "जो आज्ञा गुरूदेव !"
भर्तृहरि  चल पड़े। पहाड़ी इलाका लाँघते-लाँघते मरूभूमि में पहुँचे। धधकती बालू,  कड़ाके की धूप... मरुभूमि में पैर रखो तो बस सेंक जाय। एक दिन, दो दिन.....  यात्रा करते-करते छः दिन बीत गये। सातवें दिन गुरु गोरखनाथजी अदृश्य शक्ति  से चेलों को भी साथ लेकर वहाँ पहुँचे।
गोरखनाथ जी बोलेः "देखो, यह भर्तृहरि जा रहा है। मैं अभी योगबल से वृक्ष खड़ा कर देता हूँ। वृक्ष की छाया में भी नहीं बैठेगा।"
अचानक वृक्ष खड़ा कर दिया। चलते-चलते भर्तृहरि का पैर वृक्ष की छाया पर आ गया तो ऐसे उछल पड़े मानो अंगारों पर पैर पड़ गया हो !
'मरुभूमि में वृक्ष कैसे आ गया ? छायावाले वृक्ष के नीचे पैर कैसे आ गया ? गुरु जी की आज्ञा थी मरुभूमि में यात्रा करने की।' – कूदकर दूर हट गये।
गुरु  जी प्रसन्न हो गये कि देखो ! कैसे गुरु की आज्ञा मानता है। जिसने कभी पैर  गलीचे से नीचे नहीं रखा, वह मरुभूमि में चलते-चलते पेड़ की छाया का स्पर्श  होने से अंगारे जैसा एहसास करता है।' गोरखनाथ जी दिल में चेले की दृढ़ता पर  बड़े खुश हुए लेकिन और शिष्यों की मान्यता ईर्ष्यावाली थी।
शिष्य बोलेः "गुरुजी ! यह तो ठीक है लेकिन अभी तो परीक्षा पूरी नहीं हुई।"
गोरखनाथ जी (रूप बदल कर) आगे मिले, बोलेः "जरा छाया का उपयोग कर लो।"
भर्तृहरिः "नहीं, गुरु जी की आज्ञा है नंगे पैर मरुभूमि में चलने की।"
गोरखनाथ  जी ने सोचा, 'अच्छा ! कितना चलते हो देखते हैं।' थोड़ा आगे गये तो गोरखनाथ  जी ने योगबल से कंटक-कंटक पैदा कर दिये। ऐसी कँटीली झाड़ी कि कंथा (फटे  पुराने कपड़ों को जोड़कर बनाया हुआ वस्त्र) फट गया। पैरों में शूल चुभने  लगे, फिर भी भर्तृहरि ने 'आह' तक नहीं की।
तैसा अंम्रित1 तैसी बिखु2 खाटी।
तैसा मानु तैसा अभिमानु।
हरख सोग3 जा कैं नहीं बैरी मीत समान।
कहु नानक सुनि रे मना मुकति ताहि तै जान।।
1.अमृत 2. विष 3 हर्ष-शोक
भर्तृहरि तो और अंतर्मुख हो गये, 'यह सब सपना है और गुरुतत्त्व अपना है। गुरु जी ने जो आज्ञा  की है वही तपस्या है। यह भी गुरुजी की कृपा है'।
गुरुकृपा ही केवलं शिष्यस्य परं मंगलम्।
अंतिम  परीक्षा के लिए गुरुगोरखनाथ जी ने अपने योगबल से प्रबल ताप पैदा किया।  प्यास के मारे भर्तृहरि के प्राण कंठ तक आ गये। तभी गोरखनाथ जी ने उनके  अत्यन्त समीप एक हरा-भरा वृक्ष खड़ा कर दिया, जिसके नीचे पानी से भरी  सुराही और सोने की प्याली रखी थी। एक बार तो भर्तृहरि ने उसकी ओर देखा पर  तुरंत ख्याल आया कि कहीं गुरुआज्ञा का भंग तो नहीं हो रहा है ?
उनका इतना सोचना ही हुआ कि सामने से गोरखनाथ आते दिखाई दिये। भर्तृहरि ने दंडवत प्रणाम किया। गुरुजी बोलेः "शाबाश भर्तृहरि !  वर माँग लो। अष्टसिद्धि दे दूँ, नवनिधि दे दूँ। तुमने सुंदर-सुंदर व्यंजन  ठुकरा दिये, ललनाएँ चरण-चम्पी करने को, चँवर डुलाने को तैयार थी, उनके  चक्कर में भी नहीं आये। तुम्हें जो माँगना हो माँग लो।"
भर्तृहरिः "गुरूजी ! बस आप प्रसन्न हैं, मुझे सब कुछ मिल गया। शिष्य के लिए गुरु की प्रसन्नता सब कुछ है।"
भगवान शिव पार्वतीजी से कहते हैं-
आकल्पजन्मकोटीनां यज्ञव्रततपः क्रियाः।
ताः सर्वाः सफला देवि गुरुसंतोषमात्रतः।।
'हे देवी ! कल्पपर्यन्त के, करोड़ों जन्मों के यज्ञ, व्रत, तप और शास्त्रोक्त क्रियाएँ – ये सब गुरुदेव के संतोषमात्र से सफल हो जाते हैं।'
"गुरुजी ! आप मुझसे संतुष्ट हुए, मेरे करोड़ों पुण्यकर्म और यज्ञ, तप सब सफल हो गये।"
"नहीं भर्तृहरि ! अनादर मत करो। तुमने कुछ-न-कुछ तो लेना ही पड़ेगा, कुछ-न-कुछ माँगना ही पड़ेगा।"
इतने में रेती में एक चमचमाती हुई सुई दिखाई दी। उसे उठाकर भर्तृहरि बोलेः "गुरूजी ! कंथा फट गया है, सुई में यह धागा पिरो दीजिए ताकि मैं अपना कंथा सी लूँ।"
गोरखनाथजी और खुश हुए कि 'हद हो गयी !  कितना निरपेज्ञ है, अष्टसिद्धि-नवनिधियाँ कुछ नहीं चाहिए। मैंने कहा कुछ  तो माँगो तो बोलता है कि सुई में जरा धागा डाल दो। गुरु का वचन रख लिया।'
अनपेक्षः शुचिर्दक्ष उदासीनो गतव्यथः।
सर्वारम्भपरित्यागी यो मद् भक्तः स मे प्रियः।।
'जो  पुरुष आकांक्षा से रहित, बाहर भीतर से शुद्ध, दक्ष, पक्षपात से रहित और  दुःखों से छूटा हुआ है – वह सब आरम्भों का त्यागी मेरा भक्त मुझको प्रिय  है।'
(गीताः 12.16)
'कोई अपेक्षा नहीं ! भर्तृहरि तुम धन्य हो गये ! कहाँ तो उज्जयिनी का सम्राट और कहाँ नंगे पैर मरुभूमि में ! एक महीना भी नहीं होने दिया, सात-आठ दिन में ही परीक्षा से उत्तीर्ण हो गये।'
अभी भर्तृहरि की गुफा और गोपीचंद की गुफा प्रसिद्ध है।
कहने का तात्पर्य है कि मनुष्य-जीवन में बहुत सारी ऊँचाइयों को छू सकते हैं।
स्रोतः ऋषि प्रसाद जुलाई 2010, पृष्ठ संख्या 11, 12, 13 अंक 211
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