भक्त पुण्डरीक
पितामह भीष्म धर्मराज युधिष्ठिर से बोलेः राजन् ! तुम्हारे हृदय में ईश्वरप्रीति दृढ़ करे, ऐसा एक भक्त चरित्र मैं तुम्हें सुनाता हूँ। ब्राह्मणकुमार पुण्डरीक महाबुद्धिमान, इन्द्रियजीत, क्षमाशील और तप व स्वाध्याय का प्रेमी था। वह प्रतिदिन त्रिकाल संध्या करता था। उसने बहुत दिनों तक श्रद्धापूर्वक गुरुसेवा की थी। ऐसा करते-करते जब उसका अंतःकरण शुद्ध हुआ, तब वह भगवत्प्राप्ति की प्यास में घर से निकल पड़ा। भक्त पुण्डरीक घूमते-घूमते शालग्राम गाँव में पहुँचा, जहाँ उच्चकोटि के तत्त्वज्ञ महात्मा रहते थे। वह स्थान बहुत ही शांत, पवित्र एवं आध्यात्मिक स्पंदनों से समृद्ध था। पुण्डरीक वहीं रहकर सत्संग एवं साधन-भजन करने लगा। वैराग्य के साथ एकांतिक उपासना का सुमेल होने से उसकी भगवत्प्राप्ति की तड़प पराकाष्ठा पर पहुँची।
भगवान ने भक्ति, योग एवं ज्ञान के समर्थ आचार्य देवर्षि नारदजी से कहाः "गुरुसेवा, त्रिकाल संध्या व ध्यान के फलस्वरूप पुण्डरीक मेरे सर्वव्यापक स्वरूप का ज्ञान पाने का अधिकारी हो गया है। आप उसे मंत्रदीक्षा देकर सदगुरु के रूप में परमार्थ-तत्त्व का उपदेश दीजिए।"
नारदजी विचरण करते-करते पुण्डरीक के पास पहुँचे। पुण्डरीक प्रेमावेश से पुलकित हो गया और उसने अर्घ्य-पाद्य से नारदजी का पूजन किया। उन्हें जल, कंदमूल, फल आदि का सेवन कराने के पश्चात् उसने उनके चरणों में निवेदन कियाः "प्रभो ! आज मैं धन्य हो गया, मेरे सब पुरखे आज तर गये। हे गुरुवर ! अब अपने इस भक्त और दास के प्रति विशेष कृपा करके जो कुछ मेरे योग्य हो सो उपदेश कीजिए। परम गोपनीय होने पर भी छिपाइये नहीं। मुझ संसार-सागर में डूबे हुए को बचाइये।"
पुण्डरीक की निष्कपट वाणी सुनकर नारदजी को बड़ी प्रसन्नता हुई। वे बोलेः "वत्स ! इस लोक में अनेक प्रकार के मनुष्य हैं और उनके अनेकों मत हैं। मैं सबके तर्कों को समझकर जो निश्चित परमार्थ तत्त्व है, वही तुमसे कहता हूँ। तत्त्ववेत्ता महापुरुष प्रमाणों द्वारा ही इसका प्रतिपादन करते हैं। जो लोग मूर्ख हैं, वे केवल प्रत्यक्ष और वर्तमान प्रमाण को ही मानना चाहते हैं। वे अप्रत्यक्ष और अतीत प्रमाणों को स्वीकार नहीं करते। मुनिगण कहते हैं कि जो पूर्वरूप है, परम्परा से चला आता है, वही आगम है, यही प्रमाण है। इसी से परमार्थ-तत्त्व की सिद्धि होती है। जिसके अभ्यास से ज्ञान होता है, राग-द्वेष का मल नष्ट होता है, वही आगम है। जो कर्म, कर्मफळ, तत्त्व विज्ञान, दर्शन और विभु है, जिसमें जाति आदि की कोई कल्पना नहीं है, जो नित्य आत्मसंवेदन है, जो सनातन, अतीन्द्रिय, चेतन, अमृत, अज्ञेय, अनंत, अज, अविनाशी, अव्यक्त, व्यक्त, व्यक्त में स्थित और निरंजन है, वही द्वितीय आगम है। वही विश्व में व्याप्त होने के कारण 'विष्णु' कहलाता है, उसी के और भी अनेकों नाम हैं। परमार्थ से विमुख व्यक्ति उस योगियों की परम ध्येय वस्तु को प्रत्यक्ष प्रमाणों से नहीं जान सकते।
पितामह ब्रह्माजी ने इन्द्रादि देवताओं से भी एक दिन कहा था कि 'धर्म नारायण के आश्रित है। वे नारायण ही अपनी माया से इस चराचर विश्व में व्याप्त हैं। उन परम प्रभु की ही शरण सबको होना चाहिए।' अतएव हे वत्स ! तुम उन सर्वव्यापक, सबके अंतर्यामी ईश्वर का ही आश्रय लो।"
इस प्रकार उपदेश देकर समर्थ सदगुरु नारदजी ने पुण्डरीक को 'ॐ नमो नारायणाय' मंत्र की दीक्षा दी और अंतर्ध्यान हो गये। पुण्डरीक गुरुमंत्र के अर्थसहित जप और इष्टदेव श्रीहरि के ध्यान में निमग्न हो गया। उसकी स्थिति बहुत ही ऊँची होने लगी, अंत में यहाँ तक पहुँची कि पुण्डरीक ने देखा उसके अंग श्यामवर्ण हो गये हैं, चार भुजाएँ हो गयी हैं और वह पुण्डरीक से पुण्डरीकाक्ष बन गया है। वन के हिंसक पशु भी उसके पास प्रेमपूर्वक विचरण कर रहे हैं, सरोवरों का जल मधुरतम बन गया है, वन के वृक्ष सुगंधित फूलों से लदकर नत हो गये है।
अब भगवान स्वयं प्रकट हुए, बोलेः "वत्स ! मैं बहुत ही प्रसन्न हूँ, जो माँगना हो माँग लो।" महामति पुण्डरीक ने कहाः "भगवन् ! मैं क्या माँगू, आपको जो अच्छा लगे वही दीजिये।"
भगवान ने महाबुद्धिमान पुण्डरीक को हृदय से लगा लिया और बोलेः "हे सुव्रत "मैं जान गया कि नारदजी ने तुम्हें जो परमात्म-तत्त्व का उपदेश दिया है, उसे तुमने पूर्णरूप से आत्मसात किया है। इसी का यह फल है कि तुम्हारी समस्त इच्छाएँ मुझमें लीन हो गयी हैं। तुम धन्य हो वत्स ! अब मेरे साथ चलो।"
इतने में आकाश में दुंदुभियाँ बजने लगीं और पुष्पवृष्टि होने लगी। देवता पुण्डरीक की जय जयकार करने लगे। भगवान पुण्डरीक को साथ लेकर अंतर्ध्यान हो गये।
यह पावन गाथा सुनकर भीष्मजी बोलेः "युधिष्ठिर ! आत्मज्ञानी महापुरुषों से उपदेश पाकर तुम भी अपने चित्त व प्राणों को भगवान की उपासना और भक्तों की सेवा में लगा दो। पाप-पुण्य दोनों को हर के बंधनमुक्त करने वाली भगवान की मनोहर कथा सुनो और जिस प्रकार से भी भगवान की भक्ति प्राप्त हो, विश्वात्मा भगवान प्रसन्न हों वही करो।
स्रोतः लोक कल्याण सेतु, जुलाई 2010, पृष्ठ संख्या 15,16 अंक 157
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